जापान की विजय से एशिया में नव-जागृति का आरम्भ हुआ। एशिया-वासियों ने अपने खोये हुए आत्मविश्वास को फिर से पाया और अंग्रेजों की ईमानदारी पर जो बालोचित विश्वास था, वह उठने लगा। इस पीढ़ी का अंग्रेजी शिक्षित वर्ग समझता था कि अंग्रेज हमारे कल्याण के लिए भारत आया है और जब हमको शासन के कार्य में दक्ष बना देगा, तब वह स्वेच्छा से राज्य सौंपकर चला जाएगा। बिना इस विश्वास को दूर किये राजनीति में प्रगति आ नहीं सकती थी। लोकमान्य ने यही काम किया। इस नये दल की स्थापना की घोषणा कलकत्ते में की गयी।
इसकी ओर से कलकत्ते में दो सभाएँ हुईं। एक सभा बड़ा बाजार में हुई थी। उसमें भी मैं मौजूद था। इस सभा की विशेषता यह थी कि इसमें सब भाषण हिंदी में हुए थे। श्री विपिनचंद्र पाल और लोकमान्य तिलक भी हिंदी में बोले थे। श्री पाल को हिंदी बोलने में कोई विशेष कठिनाई नहीं प्रतीत हुई, किन्तु लोकमान्य की हिंदी टूटी-फूटी थी। बड़ा बाजार में उत्तर भारत के लोग अधिकतर रहते थे। उन्हीं की सुविधा के लिए हिंदी में ही भाषण कराये गये थे।
बंगाल में इस नये दल का अच्छा प्रभाव था। कलकत्ते की कांग्रेस के बाद संयुक्त प्रांत को सर करने के लिए दोनों दलों में होड़ लग गयी। प्रयाग में दोनों दलों के बड़े-बड़े नेता आए और उनके व्याख्यानों को सुनने का मुझको अवसर मिला। सबसे पहले लोकमान्य आए। उनके स्वागत के लिए हम लोग स्टेशन पर गये। उनकी सभा का आयोजन थोड़े से विद्यार्थियों ने किया था। शहर के नेताओं में से कोई उनके स्वागत के लिए नहीं गया। उनकी सवारी के लिए एक सज्जन घोड़ागाड़ी लाये थे। हम लोगों ने घोड़ा खोल कर स्वयं गाड़ी खींचने का आग्रह किया, किन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया। लोकमान्य के शब्द थे– ‘Reserve that enthusiasm for a better cause. इस उत्साह को किसी और अच्छे काम के लिए सुरक्षित रखिए।’ एक वकील साहब के अहाते में उनका व्याख्यान हुआ था। वकील साहब इलाहाबाद से बाहर गये हुए थे। उनकी पत्नी ने इजाजत दे दी थी। हम लोगों ने दरी बिछायी। एक विद्यार्थी ने ‘वन्दे मातरम्’ गाना गाया और अंग्रेजी में भाषण शुरू हुआ। लोकमान्य तर्क और युक्ति से काम लेते थे। उनके भाषण में हास्य रस का भी पुट रहता था। किंतु वह भावुकता से बहुत दूर थे। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी मसल है कि ईश्वर उसी की सहायता करता है जो अपनी सहायता करता है। तो क्या तुम समझते हो कि अंग्रेज ईश्वर से भी बड़ा है?
इसके कुछ दिनों बाद श्री गोखले आए और उनके कई व्याख्यान कायस्थ पाठशाला में हुए। एक व्याख्यान में उन्होंने कहा कि आवश्यकता पड़ने पर हम टैक्स देना भी बंद कर सकते हैं। इसके बाद श्री विपिनचंद्र पाल आए और उनके 4 ओजस्वी व्याख्यान हुए। इस तरह समय-समय पर पर किसी न किसी दल के नेता प्रयाग आते रहते थे। लाला लाजपत राय और हैदर रजा भी आए। नरम दल के नेताओं में केवल श्री गोखले का कुछ प्रभाव हम विद्यार्थियों पर भी पड़ा। हम लोगों ने स्वदेशी का व्रत लिया और गरम दल के अखबार मँगाने लगे।
कलकत्ते से दैनिक ‘वन्दे मातरम्’ आता था, जिसे हम बड़े चाव से पढ़ा करते थे। इसके लेख बड़े प्रभावशाली होते थे। श्री अरविन्द घोष इसमें प्रायः लिखा करते थे। उनके लेखों ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया। शायद ही उनका कोई लेख होगा जो मैंने न पढ़ा हो और जिसे दूसरों को न पढ़ाया हो। पांडिचेरी जाने के बाद भी उनका प्रभाव कायम रहा और मैं ‘आर्य’ का वर्षों ग्राहक रहा।
बहुत दिनों तक यह आशा थी कि वह साधना पूर्ण करके बंगाल लौटेंगे और रजनीति में पुनः प्रवेश करेंगे। सन् 1921 में उनसे ऐसी प्रार्थना भी की गयी थी। किन्तु उन्होंने अपने भाई वारीन्द्र को लिखा कि सन 1908 के अरविन्द को बंगाल चाहता है। किन्तु मैं सन 1908 का अरविन्द नहीं रहा। यदि मेरे ढंग के 99 भी कर्मी तैयार हो जाएँ तो मैं आ सकता हूँ। बहुत दिनों तक मुझे यह आशा बनी रही, किन्तु अन्त में जब मैं निराश हो गया तो उधर से मुँह मोड़ लिया। उनके विचारों में ओज के साथ-साथ सच्चाई थी। प्राचीन संस्कृति के भक्त होने के कारण भी उनके लेख मुझे विशेष रूप से पसंद आते थे। उनका जीवन बड़ा सादा था। जिन्होंने अपनी को लिखे उनके पत्र पढ़े हैं, वह इसको जानते हैं। उनके सादे जीवन ने मुझको बहुत प्रभावित किया।
उस समय लाला हरदयाल अपनी छात्रवृत्ति छोड़कर विलायत से लौट आए थे। उन्होंने सरकारी विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा-प्रणाली का विरोध किया था और ‘हमारी शिक्षा समस्या’पर 14 लेख पंजाबी में लिखे थे। उनके प्रभाव में आकर पंजाब के कुछ विद्यार्थियों ने पढ़ना छोड़ दिया था। उनको पढ़ाने का भार उन्होंने स्वयं लिया था। ऐसे विद्यार्थियों की संख्या बहुत थोड़ी थी। हरदयाल जी बड़े प्रतिभाशाली थे और उनका विचार था कि कोई बड़ा काम बिना कठोर साधना के नहीं होता। एडविन अर्नाल्ड की ‘लाइट ऑफ एसिया’ को पढ़कर वह बिल्कुल बदल गये थे। विलायत में श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा का उन पर प्रभाव पड़ा था। उन्होंने विद्यार्थियों के लिए दो पाठ्यक्रम तैयार किये थे। इन सूचियों की पुस्तकों को पढ़ना मैंने आरम्भ किया। उग्र विचार के विद्यार्थी उस समय रूस-जापान युद्ध, गैरीबाल्डी और मैजिनी पर पुस्तकों और रूस के आतंकवादियों के उपन्यास पढ़ा करते थे।
सन् 1907 में प्रयाग से रामानन्द बाबू का ‘मॉडर्न रिव्यू’ भी निकलने लगा। इसका बड़ा आदर था। उस समय हम लोग प्रत्येक बंगाली नवयुवक को क्रांतिकारी समझते थे। बंगला साहित्य में इस कारण और भी रुचि उत्पन्न हो गयी। मैंने रमेशचंद्र दत्त और बंकिम के उपन्यास पढ़े, बंगला साहित्य थोड़ा-बहुत समझने लगा। स्वदेशी के व्रत में हम पूरे उतरे। उस समय हम कोई भी विदेशी वस्तु नहीं खरीदते थे। माघ-मेला के अवसर पर हम स्वदेशी पर व्याख्यान भी दिया करते थे। उस समय म्योर कालेज के प्रिंसिपल जेनिंग्स साहब थे। वह कट्टर एंग्लो-इण्डियन थे। हमारे छात्रावास में एक विद्यार्थी के कमरे में खुदीराम बोस की तसवीर थी। किसी ने प्रिंसिपल को इसकी सूचना दे दी। एक दिन शाम को वह आए और सीधे मेरे मित्र के कमरे में गये। मेरे मित्र कालेज से निकाल दिये गये। किन्तु श्रीमती एनी बेसेण्ट ने उनको हिन्दू कालेज में भरती कर लिया।