इक्कीसवीं सदी में अहिंसा का कारवाँ – आनंद कुमार

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नुष्य
मूलत: एक संवेदनायुक्त विवेकशील प्राणी है। एक आदर्श मनुष्य के आचरण का सनातन आधार न्याय और प्रेम रहता आया  है। इन्हीं दो मूल्यों सेमानवता’ (मनुष्यता, इंसानियत आदि) की परिभाषा बनी है। इसका विलोम दानवता और पशुता हैं।न्यायसमाज का एक प्रमुख सद्गुण है। व्यक्ति-हित और समाज-संचालन के स्वस्थ समन्वय के लिए न्याय-व्यवस्था हमारे कर्तव्य और आचरण का पथ-प्रदर्शन करती है। इसके तीन स्वरूप हैं– राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक। इसी प्रकारप्रेममें संवेदना और सक्रिय सरोकारिता की केन्द्रीयता होती है जिससे हम एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारी का व्यवहार करते हैं और सहज मददगार बनते हैं। इससेअन्यताकम होती है औरअपनत्वतथा सामुदायिकता बढ़ती है।

दूसरी तरफ, स्वतंत्रता और मानवता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए मानवीय आचरण के लिए स्वराज और स्वराज के संवर्धन के लिए मानवीय आचरण की अनिवार्यता स्वीकारी गयी है। अपने अंदर स्वतंत्रता, न्यायप्रियता और प्रेम के आधार पर विवेकशीलता को लगातार प्रवाहित बनाये रखना किसी भी व्यक्ति का, समाज का और देश का सहज लक्ष्य है। न्याय और प्रेम ही अहिंसा की नींव होती है। इन्हीं दो के संयोग से  ‘मैंका विलय होता है। व्यक्तित्व में करुणा और संवेदना पनपती है।स्वका जीवमात्र को समेटने वाला विस्तार होता है। अन्याय तथाअन्यताहिंसा का औचित्य होते हैं और न्याय और प्रेम की भावना ममत्व और मैत्री की जननी है। प्रेम ही एकता, बंधुत्व और आत्मीयता की नींव है। अपनत्व अहिंसा का आधार है। न्याय और प्रेमभाव मानव के आचरण में हिंसा के प्रबल  प्रतिरोधक रहते आए हैं। लेकिन बिना प्रेम की प्रेरणा के अहिंसा प्रबल नहीं हो पाती है। न्याय और प्रेम के स्तंभों पर ही सक्रिय सकारात्मकता के जरिये अहिंसक समाज की रचना का सच साकार किया जा सकता है।

यह भी महत्त्वपूर्ण सच है कि इक्कीसवीं सदी की दुनिया में हिंसा से अहिंसा की ओर प्रगति के लिए चौतरफा नागरिक-प्रयास चल रहे हैं। इसमें यूरोप-अमरीका के वैज्ञानिकों, लेखकों और युवजनों की अगुवाई है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 2007 से 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाना शुरू कर दिया है। 2030 तक पूरी दुनिया में सामुदायिक जीवन में शांति और सद्भाव की टिकाऊ व्यवस्था स्थापित करना इसके 17 सूत्री स्थायी प्रगति प्रयास (17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) का एक प्रमुख लक्ष्य है। व्यक्तिगत आहार से लेकर अंतरराष्ट्रीय व्यापार तक अहिंसा-आग्रह से प्रभावित हो रहे हैं। खान-पान में शाकाहार ने आन्दोलन का रूप ले लिया है। एक अनुमान के अनुसार, दुनिया की कुल 775 करोड़ आबादी में से 73 फीसद लोग ही मांसाहारी हैं। कम से कम 3 फीसद मनुष्य अपने कोवेगान’ (पशुओं द्वारा उत्पादित दूध, अंडा आदि किसी भी प्रकार के पदार्थ को न खाने वाले), 5 फीसद लोग शाकाहारी, 5 फीसद लोग मांस परहेजी (मत्स्याहारी) और 14 फीसद स्त्री-पुरुष आहार में लचीलापन अपनाते हैं। इससे मनुष्यों द्वारा अपनी क्षुधा-पूर्ति के लिए पशु-पक्षियों और अन्य जीवों की हत्या और मांस-व्यापार के खिलाफ माहौल बन रहा है। मांसाहार के विरुद्ध नयी पीढ़ी का दबाव बढ़ रहा है। मांस-व्यापार पर रोक पर्यावरण आन्दोलन की एक मुख्य माँग बन गयी है।

उधर, अंतर-राष्ट्रीय संबंधों को युद्ध-मुक्त बनाने के लिए वैश्विक सहमति बढ़ रही है। पिछले दशक में ही कई संधियाँ की जा चुकी हैं। राष्ट्रीय सेनाओं को सुसज्जित करते रहने और वैश्विक सैनिक गठबन्धनों के बढ़ते व्यय के बावजूद पिछले पाँच दशकों से किसी भी आधार पर तीसरे विश्व-युद्ध को नहीं होने दिया गया है। युद्ध हो रहे हैं लेकिन किसी भी युद्ध को लेकर वैश्विक या राष्ट्रीय सहमति असम्भव हो चुकी है।

फिर भी हथियार-उद्योग मुनाफे के सबसे बड़े धंधों में बना हुआ है। इसमें दुनिया का 1822 अरब डॉलर प्रतिवर्ष लगाया जाता है। संयुक्त राज्य अमरीका, रूस, फ़्रांस, जर्मनी और चीन दुनिया के सबसे बड़े हथियार निर्यातक देश हैं। दुनिया भर में 98 देशों की 1135 कंपनियाँ छोटे हथियारों का उत्पादन और व्यवसाय करने में जुटी हैं और इन्होंने विश्व भर में 87.5 करोड़ छोटे हथियारों को बेचा है। अमरीका का सैनिक खर्च 778 अरब डॉलर प्रतिवर्ष का है जो पूरी दुनिया के सामरिक व्यय का 33 फीसद है। जबकि अमरीका में पूरी दुनिया की कुल 4.3 फीसद जनसंख्या का निवास है। सकल विश्व-सम्पत्ति के 40 फीसद हिस्से पर जरूर अमरीका का स्वामित्व है।

इन पाँच देशों द्वारा  विश्व-शस्त्र निर्यात का 75 फीसद धंधा किया जाता है। लेकिन इसका सबसे जादा लाभ उठानेवाले किसी यूरोपीय देश में सैनिक तैयारी पर खर्च बढ़ने का, विशेषकर परमाणु अस्त्रों के संग्रह का कोई समर्थन नहीं करता। सिर्फ चीन, भारत, दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के देशों में हथियारी होड़ का नशा बचा हुआ है और अफ्रीका के देशों में कबायली पहचान के नाम पर हजारों निर्दोष स्त्री-पुरुष बलि चढ़ाये जा रहे हैं। दुनिया के पाँच सबसे बड़े शस्त्र-आयातक देश कौन हैं? इसका उत्तर चौंकानेवाला है- सऊदी अरब, भारत, मिस्र, आस्ट्रेलिया और अल्जीरिया के बीच दुनिया के कुल शस्त्र निर्यात का 33 फीसद खरीदा जा रहा है! चीन का सैनिक व्यय 252 अरब डॉलर का है। इसके मुकाबले में भारत अपनी राष्ट्रीय आय का 13.7 फीसद सेना पर खर्च करता है और यह राशि 2018 में 72.9 अरब डॉलर थी। यह खर्च स्वास्थ्य और शिक्षा पर हो रहे कुल व्यय का ढाई गुना जादा है। भारत का सैनिक व्यय रूस (61 फीसद) और ब्रिटेन (59 फीसद) से आगे निकल चुका है और इसमें पड़ोसी चीन की सामरिक तैयारियों का बड़ा योगदान है। अब सैनिक तैयारियों में पाकिस्तान कैसे भारत से पीछे रहेगा?

पाकिस्तान अपनी सकल राष्ट्रीय आय का 18 फीसद फौज पर खर्च करता है और हाल में इसने 6 फीसद की बढ़ोतरी करके कुल 10 अरब डॉलर खर्च किया। जबकि भारत का क्षेत्रफल 3,287,283 वर्ग किलोमीटर और सरहदों की कुल लम्बाई 13,888 किलोमीटर है और पाकिस्तान का क्षेत्रफल 794,095 वर्ग किलोमीटर और सरहदों की कुल लम्बाई 7,257 किलोमीटर है। भारत की 1,339 करोड़ जनसंख्या का 25 फीसद और पाकिस्तान की 23 करोड़ जनसंख्या का 40 फीसद निरक्षरता और निर्धनता के दो पाटों में विदेशी राज से आजादी के बावजूद पिस रहा है। जानकार लोग यह व्यंग्य भी करते हैं कि जहाँ दुनिया के हर देश की अपनी सुरक्षा के लिए एक सेना है वहाँ पाकिस्तान की सेना की अपनी हितरक्षा के लिए एक देश है!

भारतीय चिन्तन परम्परा 

पूरी दुनिया में महावीर और बुद्ध को अहिंसा और मैत्री का प्राचीनतम शिक्षक माना गया है। दोनों की शिक्षाओं के आधार पर दो महान धर्म-धाराओं का प्रवाह हुआ है – जैनधर्म और बौद्धधर्म। भारत में अहिंसक जीवन और समाज-व्यवस्था के आदर्श के उद्गम को महावीर (599 वर्ष ईसापूर्व – 527 वर्ष ईसापूर्व) और गौतम बुद्ध (583 वर्ष ईसापूर्व – 483 वर्ष ईसापूर्व) की शिक्षाओं से जोड़कर देखा जाता है। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने पाँच गुणों (पंचशील’) के विकास की जरूरत बतायी है – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। आज दुनिया में 60 लाख लोग महावीर स्वामी के अनुयायी हैं। इनमें से अधिकांश भारतीय हैं। इसी प्रकार महात्मा बुद्ध ने तीन क्लेशों को पहचानने पर जोर दिया है – मोह, राग और द्वेष। इनके निर्मूलन से दुखों से मुक्ति का रास्ता बनता है। दुनिया के 53 करोड़ से अधिक (8 प्रतिशत) स्त्री-पुरुष अपने को बौद्ध मतावलंबी मानते हैं।

भारतीय संस्कृति में वेदान्त, जैन और बौद्ध शिक्षाओं का संगम हुआ है। इसलिए भारतीय चिन्तन में मनुष्य मात्र की मैत्री के दो महामंत्रों के रूप में निम्नलिखित श्लोकों को अकसर दुहराया ही जाता है :

ऊँ सर्वेभवन्तु सुखिन:

सर्वे सन्तु निरामया

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा कश्चित् दु:ख भाग् भवेत्..

( सभी सुखी होवें। सभी निरोग रहें। सभी का जीवन मंगलमय हो। कोई भी दुख से त्रस्त न हो।)

अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम

उदारचरितानां वसुधैव कुटुम्बकम

(यह मेरा है और यह पराया है – ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले  व्यक्तियों की होती है। इसके विपरीत, उदार चरितवालों के लिए संपूर्ण धरती ही एक परिवार है।)

(जारी)

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