— विमल कुमार —
(पिछले दिनों रज़ा फाउंडेशन ने देश के छह मशहूर कलाकारों पद्मविभूषण नृत्य गुरु बिरजू महाराज, महान शास्त्रीय गायक कुमार गन्धर्व, प्रख्यात नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर, जाने-माने चित्रकार सैयद हैदर राजा, जाने- माने फिल्म निर्देशक मणि कौल पर युवा लेखकों की संगोष्ठी आयोजित की। यह साहित्य की दुनिया में युवा लेखकों को अपने देश के महान कलाकारों से जोड़ने का अभिनव प्रयोग था। इस समारोह के बहाने वरिष्ठ कवि विमल कुमार की यह संक्षिप टिप्पणी पेश कर रहे हैं जिसमें युवा पीढ़ी और वरिष्ठों के बीच संवाद बनाने और लड़ाई को मिलजुल कर लड़ने की बात कही गयी है।)
क्या साहित्य की दुनिया में युवा पीढ़ी और वरिष्ठ पीढ़ी के बीच स्वस्थ संवाद है? क्या नयी पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी की कृतियों से वाकिफ है या क्या पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी के लेखन में दिलचस्पी है?
इन प्रश्नों पर विचार करते हुए किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है पर कुछ सवाल जरूर हैं जिन पर विचार होना चाहिए। यह सच है कि आज हिंदी की दुनिया में महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचन्द, बनारसी दास चतुर्वेदी, आचार्य शिवपूजन सहाय और भैरव प्रसाद गुप्त, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय जैसे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने नयी पीढ़ी के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है। साहित्य की परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया है। युवा लेखकों को नयी दिशा दी है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मैथिलीशरण गुप्त को ‘सरस्वती’ में जगह देकर उन्हें प्रकाश में लाया तो विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द को। पहली हिंदी कहानी छापी तो प्रेमचन्द ने जैनेंद्र को प्रोत्साहित किया, बनारसी दास चतुर्वेदी ने अज्ञेय को प्रोत्साहित किया तो शिवपूजन सहाय ने निराला की ‘जूही की कली’ छापकर प्रोत्साहित किया और बेनीपुरी ने दिनकर के निर्माण में भूमिका निभायी।
नब्बे के दशक में राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के माध्यम से यह भूमिका निभायी तो ज्ञानरंजन ने ‘पहल’ के माध्यम से और अब अशोक वाजपेयी “युवा” कार्यक्रम के माध्यम से यह भूमिका निभा रहे हैं। वह पहले भी “पहचान” सीरीज के माध्यम से हिंदी के अनेक कवियों को सामने लाते रहे जिनमें से कई बाद में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजे गए तो विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखक अकादेमी के फेलो भी बने। पहचान सीरीज ने हिंदी कविता को अपने समय के श्रेष्ठ कवि दिये।
आखिर साहित्य में युवा पीढ़ी का अर्थ क्या है?उसकी जिम्मेदारियां और चुनौतियां क्या हैं? उसका एजेंडा क्या है? वह साहित्य और समाज को किस रूप में देखती है, वह अपनी अभिव्यक्ति के नए टूल्स क्या लाती है? वह नया क्या रचती है जो पहले नहीं रचा गया? वह नया क्या देखती है जो पहले नहीं देखा गया? उसके लिए क्या अलक्षित है और क्या लक्षित है।
इस दृष्टि से देखें तो युवा साहित्य का महत्त्व जाहिर है। उसे अनदेखा या अलक्षित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उसका स्वागत किया जाना चाहिए। पर हिंदी साहित्य में नये के प्रति स्वागत भाव कम है। देखा यह गया है कि अब नये लेखकों को अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। लेकिन हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि आखिर कोई साहित्य की दुनिया में क्यों आना चाहता है? अगर वह आता है तो उसे क्या हासिल है? यश या धन या आत्मसंतोष। या वह यह मानकर आया है कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है। वैसे, तुलसीदास कह गये हैं साहित्य सृजन स्वान्तः सुखाय होता है।तुलसीदास का यह कथन आज तक कुछ मायनों में अपना अर्थ बनाये हुए है। यद्यपि साहित्य की दुनिया में भी बाजार ने प्रवेश कर लिया है। बेस्ट सेलर, फेस्टिवल पुस्तक, मेले की धूम और लोकार्पण की चकाचौंध ने नये लेखकों को घेर लिया है। सोशल मीडिया ने भी उन्हें आत्म-विज्ञापन और आत्म-प्रचार के लिए पर्याप्त जगह दे दी है। यद्यपि सोशल मीडिया पर अच्छी रचनाएं भी पढ़ने को मिल जाती हैं लेकिन इस युवा पीढ़ी को दिशा देने, उन्हें अपनी परम्परा से परिचित कराने तथा प्रशिक्षित करने का जिम्मा कौन उठाएगा? क्या यह जिम्मेदारी लेखक संगठनों की नहीं है? अब प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच का नये सिरे से नये रचनाकारों पर ध्यान गया है।
इक्कीसवीं सदी में गत दो दशक में सौ से अधिक युवा लेखक सामने आए हैं। इनमें 50 से अधिक के काव्य संग्रह और कथा संग्रह आ चुके हैं। समकालीन कविता की दुनिया में लीना मल्होत्रा, बाबुषा कोहली, अनुराधा सिंह, मोनिका कुमार, रश्मि भारद्वाज, लवली गोस्वामी, देवयानी भारद्वाज ने अपनी स्पष्ट पहचान बना ली है तो कथा साहित्य में नीलाक्षी सिंह, आकांक्षा पारे, किरण सिंह, अंजू शर्मा, विजयश्री तनवीर, निधि अग्रवाल, सपना सिंह, योगिता यादव ने भी अपनी पहचान बना ली है।
सुधांशु फिरदौस, अनुज लुगन, अविनाश मिश्र, अरुणाभ, सौरभ, विहाग वैभव, अच्युतानंद मिश्र, अम्बर पांडेय आदि से कविता में उम्मीदें जगी हैं। पर यह भी प्रश्न है कि नयी पीढ़ी वर्तमान चुनौतियों का सामना अपनी रचना में कर रही है या नहीं।
अशोक वाजपेयी ने अब तक “युवा” के जितने कार्यक्रम किये उसमें अधिकतर युवा लेखक अपने समय के गहरे दंश और राजनीति के घाव से मुंह चुराते नजर आए।अशोक जी को प्रतिरोध के साहित्य पर भी एक कार्यक्रम करना चाहिए ताकि पता चले कि युवा लेखक अपने समय में कितना हस्तक्षेप कर रहे हैं। यह वर्ष रेणु, अमृत राय की जन्मशती है, इस वर्ष ऐसा कोई कार्यक्रम होता तो इन लेखकों के प्रति युवा लेखकों के जुड़ाव का पता चलता।सत्यजित रे और रविशंकर की जन्मशती वर्ष है। सितारा देवी और गुदई महाराज का जन्मशती वर्ष गुजर गया ।क्या युवा लेखकों ने नोटिस लिया?
युवा लेखक जब लेखन में आता है तो उसके लेखन में एक बेचैनी, आक्रोश और छटपटाहट की भी उम्मीद की जाती है। साम्प्रदायिकता और फासीवाद के इस दौर में युवा लेखकों को भी तीखे तेवर अपनाने चाहिए थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी के काल में निराला, प्रेमचन्द, प्रसाद ने हिंदी साहित्य के परिदृश्य को ही बदल दिया। बाद में जैनेन्द्र, यशपाल और अज्ञेय ने तो आज़ादी के बाद रेणु, मुक्तिबोध ने इसे बदल दिया। साठ के दशक में नयी कहानी आंदोलन ने भी हिंदी साहित्य के मिजाज को बदला। भैरव प्रसाद गुप्त ने जब कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव आदि को छापा तो वे सब युवा ही थे। अमृत राय ने अशोक वाजपेयी जैसे 17 वर्षीय किशोर को एक कार्यक्रम में आमंत्रित किया था। अब जब संवेदनहीनता, दमन, अत्याचार और सत्ता विमर्श का नंगा नाच चल रहा है तो वरिष्ठ लेखकों के साथ युवा लेखकों को भी अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी। तभी युवा कार्यक्रम के जरिये परस्पर संवाद होगा। इसलिए जरूरी है कि नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी दोनों मिलकर यह भूमिका संयुक्त रूप से निभाएं। एक दूसरे से उलाहना और शिकायत करने का यह समय नहीं है। साहित्य की लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती है।पहले भी अकेले नहीं लड़ी गयी थी। इस बात को समझने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब दोनों पीढ़ियां एक दूसरे की रचना से अवगत हों और संवाद करें।