विषमता विरोधी आंदोलन की एकता एक ऐतिहासिक जरूरत

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

— किशन पटनायक —

मारे समाज में कई तरह की विषमताएँ हैं। इनके खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा है और वह अलग-अलग आंदोलनों या राजनैतिक उभारों में रूप में प्रकट भी हो रहा है। किंतु इन आंदोलनों से जो व्यवस्था परिवर्तन की शक्ति बननी चाहिए थी, वह नहीं बन पा रही है। इसका कारण उनमें एकता का अभाव और उनकी कुछ कमजोरियाँ हैं।

भारत में आजादी के आंदोलन ने समाज-व्यवस्था और राज्य-व्यवस्था की जकड़न को ढीला किया। आजादी के बाद बालिग मताधिकार मिलने के बाद दबे हुए सामाजिक तबकों की आकांक्षाएँ आकार लेने लगीं। 1957 के चुनाव आते-आते ही ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों के स्थान पर शूद्र मुख्यमंत्री आने लगे। महाराष्ट्र से लेकर दक्षिण के प्रांतों में यह पहले हुआ। अब उत्तर भारत मे हो रहा है। 

पिछले दशकों में भारतीय समाज, राजनीति और संस्कृति में चौतरफा गिरावट आयी है। इस सारी गिरावट के अंदर कोई प्रगति हुई तो वह है शूद्रों के नये सत्ता केंद्रों का उभरना। लेकिन इसका कोई तार्किक परिणाम नहीं दिखाई दे रहा है।

अक्तूबर 1993 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मोर्चे को जो सफलता मिली, वह एक ऐतिहासिक घटना थी। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को गिराये जाने की घटना के बाद सांप्रदायिकता का खतरा पूरे देश पर मँडरा रहा था। इस सांप्रदायिकता की बाढ़ को रोकना सेकुलरवादियों के वश की बात नहीं थी। किंतु जब शूद्रों और दलितों का मोर्चा बना, तो सांप्रदायिकता पिट गयी। अफसोस की बात है कि सपा और बसपा को  जिस बड़े काम के लिए सफलता मिली थी, वह तो उन्होंने किया ही नहीं। राजनीति से जो एकता बनी थी, उसको समाज में फैलाने और नीचे तक ले जाने की कोई कोशिश ही नहीं की, तो उनके हाथ से सत्ता भी छिन गयी। कांशीराम और मुलायम सिंह ने जनादेश के साथ विश्वासघात कर भारतीय समाज को आगे बढ़ाने का एक मौका गँवा दिया।

इसका कारण यह था कि उनके सामने सत्ता प्राप्त करने के अलावा कोई दृष्टि ही नहीं थी। उनके पास ऐसा कोई सपना नहीं था कि शूद्रों और दलितों का आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक उत्थान हो। यह तभी संभव था जब राष्ट्र के उत्थान का भी सपना होता और देश की राजनीति एक क्रांतिकारी दिशा पकड़ती। इसकी न तो इच्छा शूद्र-दलित नेतृत्व में थी, न कोई सोच थी और न ही कोई तैयारी थी। शूद्र आंदोलन, दलित आंदोलन, आदिवासी आंदोलन, नारी आंदोलन, किसान आंदोलन आदि को आपस में जोड़ने की भी कोई सोच उनके पास नहीं थी।

आज उच्च जातियों के नेतृत्व में जो शठता, चरित्रहीनता, मर्यादाविहीनता है, वे सारी की सारी इन नवोदित तबकों के नेतृत्व में भी दिखाई देती है। वे द्विज नेतृत्व का ही अनुकरण कर रहे हैं। यह एक निराशाजनक स्थिति है। यदि शूद्र नेतृत्व की नयी पीढ़ी में सकारात्मक बदलाव नहीं आया, तो भारतीय समाज में जितना शूद्र जागरण हुआ, वह बाद में इतिहास में अपना कोई योगदान सिद्ध नहीं कर पाएगा।

विषमता विरोधी आंदोलन में एक नारीवादी आंदोलन भी है। पचास और साठ के दशक में समाजवादी लोग नारीवादी आंदोलन में गाँव की औरतों के लिए पाखाना, गाँव में पानी, अच्छे ढंग के चूल्हे और प्राथमिक शिक्षा जैसे कुछ मुद्दों को उभारने की चेष्टा कर रहे थे। उन दिनों नारीवादी आंदोलन बहुत शक्तिशाली भी नहीं था। लेकिन आज जब भारत में और दुनिया में नारीवादी आंदोलन शक्तिशाली हो रहा है तो ये मुद्दे उसमें स्थान नहीं ले पा रहे हैं। बीजिंग के अंतरराष्ट्रीय नारी सम्मेलन में हिलेरी क्लिंटन की उपस्थिति नारी आंदोलन को ग्लोबीकरण की व्यवस्था के साथ जोड़ने की द्योतक थी। सम्मेलन में कोई ऐसी धारा नहीं थी, जो पूरे मानव समाज की मुक्ति की ओर आंदोलन को ले जाने के लिए प्रयत्नशील हो।

सवाल यह उठता है कि नारी आंदोलन को किसके साथ जोड़ना है। शूद्र आंदोलन, दलित आंदोलन, और आदिवासी आंदोलन के साथ जुड़कर इसकी एक परिणति दिखाई देनी चाहिए जो पुरुष वर्चस्व पर कुठाराघात करे और स्त्री-पुरुष के बीच स्वस्थ और सकारात्मक संबंधों का एक नया आयाम विकसित करे। नारीवादी आंदोलन की माँगें प्रायः ऐसी होती हैं जिनसे कुछ सहूलियतें तो मिल जाएँगी, लेकिन पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था वैसी ही रह जाएगी। इस सिलसिले में एक उदाहरण ट्रेड यूनियन आंदोलन का दिया जा सकता है। इस आंदोलन से मजदूर की ताकत और सुरक्षा बढ़ती है, उसका स्थान बेहतर हो जाता है। लेकिन ट्रेड यूनियन आंदोलन कितना भी ताकतवर क्यों न हो जाए, वह मालिक-मजदूर के रिश्ते को बदलने का आंदोलन नहीं बनता है। आज जितने सामाजिक आंदोलन हैं, उनकी भी आखिरी गति वहीं तक है, जहाँ तक ट्रेड यूनियन आंदोलन पहुँचते हैं।

विषमता विरोधी आंदोलनों में सबसे कमजोर है आदिवासी आंदोलन। भारतीय समाज में सबसे कमजोर तबका आदिवासी समूह ही है। आधुनिक सभ्यता पूरी तरह उसके खिलाफ है और इस सभ्यता के केंद्रों को स्थापित करने के लिए आदिवासी का बलिदान किया गया है। अमरीका और आस्ट्रेलिया में तो आदिवासी को पूरी तरह मिटा दिया गया है। भारत मे भी हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। आधुनिक विकास, बाँधों, खदानों, कारखानों की जितनी भी बड़ी-बड़ी परियोजनाएँ बनी हैं, वे आदिवासी से उसका सर्वस्व- उसका घर, उसका जंगल और उसकी संस्कृति- छीनने की योजनाएँ हैं।

भारत के विकास और भारत की पुलिस, इन दोनों से भारत के किसी बड़े समूह को अगर कुछ भी फायदा नहीं हुआ है, तो वह आदिवासी हैं। पुलिस में हम वन विभाग को भी शामिल मानते हैं। अगर किसी आदिवासी इलाके से पुलिस थाने और वन विभाग की चौकियाँ-दफ्तर हटा दिए जाएँ, तो निश्चित तौर पर आदिवासी की स्थिति बेहतर हो जाएगी। इतनी दुर्दशा के बाद भी आजाद भारत में आदिवासियों का सशक्त नेतृत्व नहीं उभर पाया है। आदिवासी ही एक ऐसा दबा हुआ तबका है जो कि आज भी ब्राह्मण नेतृत्व में आंदोलन करने को तैयार है। शूद्र समूह अब तैयार नहीं हैं। मराठा और लिंगायत से लेकर चमार-वाल्मीकि जाति तक के लोग, यदि ब्राह्मण नेता के साथ कोई दलित-शूद्र नेता नहीं दिखाई देता है, तो उस आंदोलन के साथ नहीं चलनेवाले हैं। केवल आदिवासियों के लिए ही यह संभव है। यह भारत के सामाजिक दैन्य और विषमता का एक और पहलू है।

किसी भी सामाजिक आंदोलन की दोहरी गतियाँ हैं, दोहरी संभावनाएँ हैं। अन्य विषमता विरोधी आंदोलन के साथ मिलकर वह अपनी बेहतरी की आकांक्षा को पूरे शोषित-पीड़ित समाज की बेहतरी के साथ जोड़ सकता है। इसमें क्रांतिकारी संभावनाएँ छिपी रहती हैं। या फिर नेतृत्व के छोटे-से तबके को ऊपर उठाते हुए वह पूरी व्यवस्था को छोटे-मोटे समायोजनों के साथ बरकरार रख सकता है।

इससे कुल मिला कर पूँजीवाद और मजबूत हो सकता है। इसके उदाहरण हमारे चारों ओर बिखरे हुए हैं। दक्षिण में पेरियार, अन्नादुरई, एम.जी.आर. से जयललिता तक आते-आते द्रविड़ आंदोलन का ब्राह्मणीकरण हो चुका है। जयललिता एक ब्राह्मण है। जब तक आंदोलन पेरियार के हाथ में था, उसमें दोनों संभावनाएँ थीं। एम.जी.आर. के आंदोलन में दूसरी संभावना बची ही नहीं थी। इसी प्रकार से झारखंड राज्य बन चुका है, पर आदिवासियों का दोहन व शोषण पहले से ज्यादा होनेवाला है। शूद्र, दलित, आदिवासी मुख्यमंत्री बन रहे हैं और उनके फरमान से ही विदेशी कंपनियों को खुली लूट के लिए आमंत्रित किया जा रहा है।

विषमता विरोधी सामाजिक आंदोलन की एकता आज की एक ऐतिहासिक जरूरत है। अकेले-अकेले वे अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएँगे। कोई बड़ा सामाजिक समूह जब अपने को आगे बढ़ाने के लिए गतिशील होता है, तो पूरे समाज को आगे बढ़ाये बगैर उसकी आकांक्षा पूरी होना मुश्किल होता है।

विषमता के किले को ढहाने के लिए संयुक्त प्रयास किये बगैर उन्हें सफलता नहीं मिलनेवाली है। इसके लिए सामाजिक आंदोलनों को अपना लक्ष्य बड़ा और उदात्त बनाना होगा। लोकतंत्र और समता के मूल्यों से स्वयं को जोड़ना होगा।

आज जो अलग-अलग आंदोलन हैं, यदि उनमें एकता स्थापित होगी या स्थापित करने की कोशिश होगी, तो उनके नेतृत्व का चरित्र भी बेहतर होगा। कुर्मी और यादव अलग-अलग महारैली करें तो जो नेतृत्व पनपेगा और उसके चरित्र का जो स्तर होगा, उसके मुकाबले अगर बिहार-उत्तरप्रदेश की पिछड़ी जातियों का एकीकृत आंदोलन होगा, तो ऐसे आंदोलन के नेतृत्व का स्तर कुछ तो ऊँचा होगा ही। यदि शूद्रों और दलितों का मिला-जुला आंदोलन होगा तो उसके नेतृत्व का चरित्र इससे भी बेहतर होगा। एकता का महत्त्व इस दृष्टि से भी है।

जितनी व्यापक एकता होगी, नेतृत्व के चरित्र में उतना ही निखार आएगा। उसकी सामाजिक और विश्वदृष्टि में भी निखार आएगा। जितने भी विषमता के शिकार समूह हैं, सबको इससे लाभ होगा। उनके नेतृत्व का अवसरवादी, भ्रष्ट व स्वार्थी चरित्र टिक नहीं पाएगा और एक नया नेतृत्व इन समूहों में पैदा होगा।

विषमता विरोधी आंदोलन में एक बहुत बड़ी कमी वैचारिक है। विषमता की इस व्यवस्था के मूल में क्या है, विषमता के विभिन्न तत्त्वों का आपसी संबंध क्या है, आदि का सही ज्ञान न होने के कारण आंदोलन करनेवाले अपनी सही दिशा नहीं बना पाते। सारी निष्ठा और आंतरिकता के बावजूद कुछ नहीं कर पाते हैं। ज्ञान की यह कमी काफी अखरने वाली है। इस कमी को पूरा करने की चुनौती बुदधिजीवियों की है।

विषमता के खिलाफ असंतोष से उपजे विभिन्न आंदोलन यदि एक होंगे, पूरे समाज को बदलने का विचार और लक्ष्य अपने सामने रखेंगे, तो नया इतिहास रच सकेंगे।

(यह लेख पहली बार मई 1996 में प्रकाशित हुआ था और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किशन जी की पुस्तक भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि में संकलित है।)

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