— सेवाराम त्रिपाठी —
हम सभी वक्त को ही कोसते हैं। वक्त की अव्यक्त मार को नहीं। सोचता हूं कि आखिर वक्त को क्या हुआ? कहां गया वक्त? किसी का कहना स्मरण आ रहा है। “गुण न हिरानो गुणगाहक हिरानों है/ समय न हिरानों समय गाहक हिरानों है।” आप चाहे जितनी तनख्वाह पा रहे हों, चाहे जितना अगड़म -बगड़म कमा रहे हों लेकिन किसी के पास सुकून के दो पल नहीं हैं। सब भागे चले जा रहे हैं न जाने कहां? हम एक घुड़दौड़ में है। चिढ़े हुए अपने से नाराज, दूसरों से नाराज। एकदम ऐसे हो गए हैं जैसे सब खुक्ख हो गया है। जैसे सब कुछ स्वाहा हो गया है। रिश्ते-नाते पछाड़ खा-खाकर औंधे हो गये हैं। सब एक चमत्कार के लोक में हैं। उन्हें कोई जाने -पहचाने उनकी बातें करे। वे किसी को न तो समझना चाहते न जानना। फिर भी ऐसा कुछ है जिसे हर हालत में गंभीरता से बचाया जाना चाहिए। वक्त होता नहीं उसे खोजना भी पड़ता है और बचाना भी होता है। मात्र दर्शन से हमारा काम नहीं चल सकता। जीवन का विस्तार और फैलाव विस्तीर्ण है। जीवन से हरा कुछ भी नहीं है। हम हर हालत में हरापन बचाना चाहते हैं।
यह जो हर आदमी के पास घुप्प अंधेरा है- इसको कैसे ठीक किया जा सकेगा? प्रकाश की एक छोटी सी किरण के लिए हम तरस रहे हैं। पैसा है, संपन्नता है, साधन है, आकाश जैसी विराटता है तो दिल एकदम सिकुड़ गया है। आत्मा की ठिठुरन और सिकुड़न बेहद गंभीर मामला है। जिनके पास दिल की दौलत है वे पैसे-पैसे को मोहताज हैं। एक हार्सरेस यानी घुड़दौड़ में हैं हम सब। पता नहीं कहां जा रहे हैं। क्या लूट लेना चाहते हैं। हिटलर, मुसोलिनी, नादिरशाह और न जाने कितने लोग आए और न जाने कितने चले गये। आखिर रावण, कंस, दुर्योधन अपने साथ क्या ले गये? रावण-कंस-दुर्योधन का सब कुछ यहीं का यहीं धरा रह गया। ये ही क्यों, सभी का यहीं धरा का धरा रह जाता है। कुछ बातें मेरे दिमाग में घुमड़ती रहीं। दिल है कि मानता ही नहीं। अपने ही अंदर की सुगंधित कस्तूरी को ही हम जंगल -जंगल ढूंढ़ रहे हैं। आखिर यह क्या है? क्या बांधकर ले जाना चाहते हैं और कहां?
श्री आर.बी. शुक्ल जी को एक संदेश भेजा था कार्यक्रम में पहुंचने के पूर्व। “शरद पूर्णिमा के अवसर पर पिताजी की स्मृति में आयोजित यह कार्यक्रम अपने पूर्वजों को स्मरण करने का अभूतपूर्व अवसर है। स्मारिका का प्रकाशन अपनी सभ्यता -संस्कृति को जीवंत रूप से रखने का एक विनम्र प्रयास भी है और पूर्वजों के प्रति समर्पण और श्रद्धांजलि भी है। यह अपनी मातृभूमि के प्रति प्यार भी। यह काम एक उदाहरण के रूप में, धरोहर के रूप में स्तुत्य है। ”
वे मेरे मित्र हैं। बड़े भाई जैसा आदर देनेवाले श्री राधे बिहारी शुक्ल। उनके द्वारा आयोजित कार्यक्रम में उनके गांव कंदैला गया था। उन्होंने अपने पिता की स्मृति में घर, परिवार, गांव, पास- पड़ोस, मेडोर को इस बड़ी उम्र में भी खोजने का, पहचानने का उद्यम किया है। और अपने तमाम संगी -साथियों, शुभचिंतकों, बुजुर्ग लोगों को बुलवाया था। रिश्तों की एक डोर को यहां से वहां तक फैलाया था। वे कितने अंदर-बाहर से भरे हुए थे। यह सब संभव हुआ अपनी जन्मभूमि को प्यार-दुलार और अभिमान करने के कारण। कुछ सीखने-समझने के कारण। संकल्प और सपना बुनने के कारण। स्मृतियों को रेखांकित करती एक छोटी सी किताब उन्होंने लिखी -स्मृत्यायन। किताब छोटी है, हौसला बड़ा है। ऐसा लगा जैसे एक बूंद समुद्र में मिल रही है। दर्ज है उनके गांव के लिए प्रसिद्ध उक्ति-ज्ञकोदो, कांटा, कौआ, कांदौ और कुनबी। स्मृतियों के खजाने से उनके अनुभव सामने आए हैं। गोबरी का जिक्र, विष्णु पंडित का जिक्र, चंद्रभूषण के पैमाने का जिक्र वे शान के साथ करते हैं। गिरवर जी का उल्लेख हो और मजाल है कि उनका कमंडल छूट जाए। एक अंश पढ़ें- “उनका कमंडल कमाल का था, बच्चों को देखकर कहते थे कि अभी तक चार को ही पकड़ा, पांचवें की तलाश है। हम यही समझते थे कि पकड़कर कमंडल में भर लेंगे।” उनकी एक बात मेरे भीतर छलकती रही- “प्रतिभाएं साधन-सुविधा की मोहताज नहीं हुआ करतीं।…आज भी गांव के लोग संघर्षशीलता, सहजता एवं शालीनता के लिए चंद्रभूषण भइया की मिसाल देते हैं।”
मां, पिता, चाचा लोग, गांव के तमाम लोग, रिश्तेदारियों के अनेक पक्ष इसमें शामिल हैं। सच है कि बड़ा और प्रसिद्ध होकर जीने में उतना आनंद नहीं है जितना रिश्ते, घर-परिवार, आत्मीय लोगों को संजोकर रखने में है। प्रसिद्ध व्यक्ति होकर भी छोटा बनकर सबका संगी बने रहने में। अच्छी बात यह लगी कि इन सभी का प्यार जीवंत है और अपना आत्मान्वेषण भी। छोटे-छोटे दिए जानेवाले दंडों को गठियाकर बांध लेना और उसे सार्वजनिक करना। उन्हें पाथेय बना लेना। ऐसे बड़े भाई बहुत मुश्किल से मिलते हैं- जैसे उनके हैं। किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है। जो हमारे जीवन में उदाहारण होते हैं।
कंदैला गांव गया। कुछ अच्छी बातें सीखीं, कुछ अच्छे क्षण बिताये। लगा कि काफी संपत्तिवान होकर आया हूं। रिश्तों का, प्यार का, अपनत्व-अनुभव का खजाना भर लाया हूं। नहीं जानता उनके मन में क्या है? दरअसल, वे क्या चाहते हैं। नयी पीढ़ी को इससे क्या देना चाहते हैं और कौन से संस्कार सौंपना चाहते हैं, लेकिन लगे हैं मनसा वाचा कर्मणा से। वे अपने बचपन, यौवन, वरिष्ठ नागरिक का कौन सा कोष लुटाना चाहते हैं। एक बात अभी भी मुझे संवेदित कर रही है। “पिता के पसीने की महक उनके चले जाने के बाद भी मन-मस्तिष्क में बनी रहती है और यही महक जीवन में संघर्ष करने की राह प्रशस्त करती है।”
आधुनिकता की भीषण दाढ़ों में होने के बावजूद, वक्त की कमी का रोना करने के बाद भी कुछ पारखी वक्त को रिश्तों को कैसे सुरक्षित रखते हैं। इसी को कहते हैं कि अभी भी सब कुछ बचा रहेगा। यदि रिश्ते और अपनत्व बचा है। कबीर ने बताया है- “हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई/ बुंद समानी समुद में सो कत हेरी जाई।”