ज्ञानेन्द्रपति की तीन कविताएँ

1
पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल

1.

8 दिसंबर, 2020
(नये कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का बुलाया भारत-बंद)

तुम कहते हो, तुमने
किसानों को आजादी दे दी है
कि वे देश में कहीं के भी बाजार में
बेच सकें अपनी फसल
कि तुमने बिचौलियों को मिटा दिया है
जो बीच में सोख लेते थे सारा फायदा
और किसान की लागत तक निकलनी थी मुश्किल
कि अब तुमने खेतिहरों को धनबली महाजनों से
सीधा जोड़ दिया है
और जबरजोर जमाखोरी की खुली छूट दे दी है महाजनों को
कि अब आगे जो वे मुनाफाखोर महाजन कहें
वे नगदी फसलें ही उगाएँ बँधुआ किसान
उनकी मनचीती कीमत पर उन्हें बेचें
और पामाल से हों मालामाल
– वाह रे ठगिनी भाषा का कमाल !

तुम्हारी मायावी मिथ्या का यह सबसे घातक वार है
देश की छाती पर
कि देश की आत्मा के अन्नमय कोश पर
और इसे
इस देश के किसान ठीक-ठीक समझते हैं
अपनी आत्मा के प्राणमय कोश में कम्पन महसूस करते हुए

तुम्हारे राज के राज़ खुल चुके हैं
उनकी पोढ़ी आँखों के आगे

अपने मित्र धनपतियों के हाथों में
देश की सारी जन-सम्पदा को सौंप
उनकी धन-सम्पदा में बदलने के तुम्हारे अभियान
के आगे
अड़ गये हैं वे
भारत-भू के मानव-भूधर की तरह

तुम्हारे फुसलौआ राष्ट्रवाद के फिसलौए पर
फिसलता हुआ गर्त की ओर जा रहा है जो मध्यवर्गीय मानस
शायद अब चेते

यह उम्मीद, अभी नाउम्मीद भी हो सकती है

लेकिन खेत में खड़ी फसल की देख-रेख की तरह
इस देश के अंतःकरण को जोगने  का जिम्मा
जब पोषक हाथों ने अपने हाथों में ले लिया है
तो अन्न की तरह पकेगी ही सद्बुद्धि
माया-जाल छिन्न-भिन्न होगा जरुर
– शोषक स्तब्ध हैं
और शासक भीतर-भीतर भीत ।

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

2. सुनो, रुको

आंदोलन कर रहे किसानों के बीच
एक जन की आत्महत्या
स्तब्ध कर जाती है हमें

तीन नये कृषि कानूनों को रद्द कराने के लिए
विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं भारतीय किसान
आंदोलन के रास्ते पर हैं
और इसलिए उनके लिए बंद-द्वार दिल्ली तक
पहुँचने वाले रास्तों को ट्रैक्टरों-ट्रालियों
अपने धूप-शीत-सधे शरीरों और
अपने संकल्प की दृढ़ता से जाम कर दिया है उन्होंने
क्योंकि सरकार है कि
उनके लिए बहरी बनी
उन मित्र पूँजीपतियों से कानाफूसी करने में मशगूल है
वस्तुतः जिनके लिए
लाये गये हैं ये कानून
कि देश की और जन-सम्पदाओं की तरह
अब खेती को भी
उनकी तिजारती तिजोरी में बंद किया जा सके
और किसानों को बनाया जा सके उनका बँधुआ

पूँजीधरों के दूरदर्शी रणनीतिकारों ने
सरकारी थिंक टैंकों ने
नीति-निर्धारकों ने
विचार-व्यवसायियों ने
ठीक-ठीक कूत लिया है
कि फाइदे की अकूत संभावनाएँ छिपी हैं
इस उपक्रम में
बस उन्हें खींचकर बाहर निकालना है कड़े हाथों

सो, संगदिल सरकार ने सख्त तेवर अपनाये हैं
उसका सोचना है कि
कड़ाके की इस सर्दी में
जब रगों में बहते खून की हरारत मंद पड़ रही हो
खुले आसमान के नीचे
भला कितनी और रातें बिता पायेंगे किसान
राजधानी की घेरेबंदी खत्म कर
अपने गाँव-घरों को लौटने को मजबूर होंगे
जल्द से जल्द
चंद दिनों के भीतर ही
सो, जल्दी क्या है
गतिरोध जारी रहे
प्रतिरोध पस्त होगा आप-से-आप ही

आंदोलित किसानों में
बहुतेरे हैं बुजुर्ग किसान
और अनेक ऐसे जिनके पास शीत-युद्ध के लिए
कवचोपम कपड़े कम
प्रायः हर दिन एक न एक
अपनी जिंदगी के घुटने टेक ही देता है
इस विकट मौसम में
और शीतलहर को भी कँपाती शोकलहर
गीली कर जाती है जमावड़े की आँखें

लेकिन यह आत्म-विसर्जन
किसानों के दुख-दर्द से व्यथित यह आत्म-बलिदान
स्तब्ध कर जाता है सबको

वे थे पंजाब के एक गुरुद्वारे में ग्रंथी
संतों की अमृतवाणी से सिंची थी उनकी अंतरात्मा
किसी की तकलीफ उनसे बर्दाश्त न होती थी

और यहाँ तो
जुल्म का पहाड़ टूट पड़ा था अपने लोगों पर
कितना भी जोर लगा कर जिसे वे
टसका तक न सकते थे
ओह ! इसलिए ही
मर्त्यलोक की नागरिकता से त्यागपत्र लिख कर
छोड़ दी उन्होंने जालिमों की दुनिया
जुल्म को धिक्कारते हुए
नाइंसाफी के खिलाफ
जंगजुओं को पुकारते हुए

एक तरह से हाराकिरी सरीखी है यह आत्महत्या
एक योद्धा जिसे चुनता है

लेकिन युद्ध अभी लंबा है
इस मोर्चे के आगे भी
उसके लिए
देह का मोह छोड़ कर
देह के साथ रहना है जरूरी
समझते हैं सभी
तब भी उन्हें बताता हूँ
‘आत्महत्या के विरुद्ध’ एक हिंदी कवि की
किताब का नाम है।

(दिसंबर, 2020)

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

3. अन्नपूर्णा की वापसी

भव्य है झाँकी, अकूत है भीड़ और अपार जनोत्साह
लेकिन प्रतिमा की आँखें डबडबायी हुई हैं
जिन्हें रह-रह, आँख बचा
पोंछ लेती है वह चुपके से

तब भी देख ही लेता है कोई शातिर सयाना
और कहता है बगल के जने को पुलकित स्वर में :
देखा न ! खुशी के आँसू !
सौ साल बाद घर लौटने की खुशी
जी में कहाँ अँटती है !

हाँ, सौ साल बाद लौटी है अपने देश के घर
परदेश के उस सज्जित संग्रहालय में जी कहाँ लगता था
केवल यही नहीं कि पारदर्शी काँच की मंजूषा में दम घुटता था
अपने लोगों से दूर निरन्न हो गया था उसके हाथ का अक्षय पात्र
चिंता मन को मथती थी
कि कौन खिलाता होगा उसके निखुराह शिव को दुलार से खाना
गिन-गिन के शिव के गण-गण को, जन-गण को
कौन जिमाता होगा जी-भर
कि दूभर हो गया होगा दिन पर दिन बिताना
उसके लोगों का उसके बगैर!

चली जा रही है झाँकी में सुसज्ज रथ पर सुवह
माँ अन्नपूर्णा की प्रतिमा
लेकिन रह-रह उसकी प्रस्तर-काया के भीतर दुर्वह हो-हो आता है
उसका दिल
उसमें दुख रिस-रिस आता है
अपने जनों का

जिनकी भँवराती खुशी के बीच व्यथा की नाभि
अदीख नहीं है माता को
कि उसकी पोषण-नलिका तो
जन-जन की नाभि से लगी है
हर हमेश!

जानती है वह
कि उसके जिला-दर-जिला, नगर-दर-नगर स्वागत के  चुनाव-समयी अतिरेक को
घटा भी दें तो भी
तस्कर-अपहृत उसको अब वापस पा अपने बीच
प्रफुल्ल हैं उसके अपने लोग
जैसे कि भूख से बड़ी कोई भूख
मिट आयी हो उनके अंदर
जिसके ऊपर कसी हुई भूख
चाहे बढ़ आयी हो इन सौ सालों में जाने कितने गुना

चली जा रही है जुलूस में
नाचते-गाते लोगों से घिरी
भारत-भरणी अन्नपूर्णा की प्रतिमा
उसकी जयकारों से कम्पित आकाश
उसके उद्विग्न माथे को आहिस्ते थपकता है
कोटि-कोटि क्षुधित भारतीयों की जठरागिन-आँच
उसके आँचल को झुलसाती-सी है
उसके हाथ के अक्षय पात्र में
भर आया है भारतीय किसानों का जीवन-क्लेश
आत्मघात को उकसाते उनके ऋण-बोझिल मन का संताप
उनकी दुर्दशा के दृश्यों में दृष्ट दुख
उनकी गुहारों की गूँज, अनशनों की अनसुनी
उनके निरन्न कोठार का सूनापन, उनके जठर का शाश्वत जेठ
अन्नपूर्णा है वह, जिसके हाथ के अक्षय पात्र को अन्न से पूर्ण  करने वाले
अपूर्ण छोड़ जा रहे हैं अपना कर्मठ जीवन थक-हार
स्वार्थी शोषण के शिकार
भले फैलता फलता हो किन्हीं का सत्ता-समर्थित लालची  व्यापार

विश्वनाथ की सन्निधि में स्थापित होने से पहले
शोभा-यात्रा की नायिका
सौ साल बाद घर लौटी अन्नपूर्णा की वह चुनारी बलुहे पत्थर की ममतालु प्रतिमा
रह-रह अपनी डबडबायी आँखें चुपके से पोंछ लेती है, आँख बचा
तब भी देख ही लेता है कोई शातिर सयाना
और कहता है बगल के जने को पुलकित स्वर में :
देखा न ! खुशी के आँसू !
सौ साल बाद घर लौटने की खुशी
जी में कहाँ अँटती है!
(नवम्बर, 2021)

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