4 दिसंबर। विनोद था तो मुझसे करीब दो ढाई साल छोटा ही, पर मित्र जैसा भाई और भाई जैसा मित्र रहा!
हम लोग 1970-71में हंसराज कॉलेज दिल्ली विवि से साथ रहे और 1975 में आपातकाल के दौरान अलग हुए तो फिर करीब दस साल बाद खान मार्केट दिल्ली में टकराये और एक दशक का अंतराल एक पल में छूमंतर हो गया।
विनोद को कॉलेज स्तर की डिबेट में जाना पसंद रहा और पतलून की जेब में सदैव माउथ ऑर्गन रहता था जो कहीं भी कभी भी मूड आने पर या फरमाइश पर बजने लगता था। जैसा नाम वैसा ही विनोदी स्वभाव ।
मुझे जब 1972 में दिल्ली विवि के छात्र आंदोलन के कारण निष्कासित कर दिया गया तो छात्रों ने खुद का एक न्यायिक पैनल बनाकर मामले की सुनवाई की और विनोद दुआ उस पैनल के जज बने। जाहिर है कि रिपोर्ट ने तत्कालीन कुलपति को जिम्मेदार ठहराया और हमें बरी किया।
मैंने 1971में ही खूब कोशिश की थी विनोद समाजवादी युवजन सभा में आएं पर उसे किसी राजनीतिक पक्ष के साथ आना ही नहीं था। राजनीति की अंदरूनी गहरी समझ, राजनेताओं के लिए निष्पक्ष तल्ख बोल और राष्ट्रीय परिदृश्य की पैनी पकड़ विनोद दुआ की विशेषताओं में से थीं ।
विनोद अपने नजदीक नेताओं को फटकने नहीं देता था सिवाय छात्र जीवन के गिने-चुने मित्रों के।
भारत में दूरदर्शन (ब्लैक एंड व्हाइट टीवी) की शुरुआत में ही ‘युववाणी’ कार्यक्रम देकर वे भारतीय टीवी माध्यम के सबसे वरिष्ठ पत्रकार बने और ऐसे कि कोई कभी आर्थिक फायदे के लिए विनोद पर उंगली न उठा सका। बेहद ईमानदार मगर ठाठ वाले पत्रकार थे। बहुत सी सरकारें खिलाफ रहीं पर विनोद दुआ पर कोई आरोप तक नहीं लगा सका। उनके टीवी कार्यक्रमों के लिए ठीकठाक पैसा मिलता था।
कोविड से चिन्ना भाभी के पीड़ादायक बिछोह के बाद विनोद एकदम झटक कर आधा रह गया था। उसके बाद कभी कभार मैसेंजर या फोन पर संक्षिप्त बात होती थी। आखिरी बात कुछ हफ्ते पहले ही हुई जब विनोद ने अपने एलपी रिकॉर्ड्स के संग्रह को देने की बात फेसबुक पर लिखी। बहुतों ने चाहा कि वह संग्रह उनके पास जाए , मैंने भी शायद लिख दिया “मी टू“। कुछ दिनों बाद ही फोन आया कि किसी को भेज दो, वे सब रिकॉर्ड्स ले जाए। मैंने जान-बूझ कर देरी की, जल्दबाजी क्यों दिखाई जाए? मल्लिका बिटिया के सार्वजनिक संदेश से खबर लगी कि विनोद फिर अस्पताल में चले गये।
विनोद के साथ मित्रों के इतने सुखद निजी प्रसंग हैं कि अब शायद उन सबको लिपिबद्ध कर, संग्रहीत कर छपवाना चाहिेए कि नयी पीढ़ी के पत्रकारों को खबर तो रहे कि ऐसा भी कोई पत्रकार हुआ।
क्या ही शानदार ठाठदार इंसान, जीवट और साहस से लबरेज पत्रकार और सच्चा मित्र खोया है हम सबने।
आखिर में धोखा दे गये! अलविदा विनोद!
– रमाशंकर सिंह