— केशव शरण —
जिस दिन संसद में कृषि के तीनों बिल पास हुए थे लोगों को लगने लगा था कि अब देश का आर्थिक और लोकतांत्रिक ढाँचा खतरे में है। नोटबंदी जैसे बड़े और अप्रिय फैसले पर विपक्ष और जनता के नतमस्तक हो जाने का अनुभव इस आशंका को प्रबल कर रहा था। संवैधानिक संस्थाएँ सरकार के चंगुल में हो चुकी थीं और सर्वत्र एक धारणा स्थापित हो गयी थी कि अब आंदोलन का माहौल ही नहीं, उसकी संभावनाएँ भी समाप्त हो चुकी हैं। निजीकरण के मार्फत आक्रामक क्रोनी पूँजीवाद की घोर समर्थक सरकार अब कृषि को निजी महाकाय गोदामों के हवाले कर चुकी तो कर चुकी। लेकिन हताश जनता के साथ हठी सरकार को भी इसका इल्म नहीं था कि किसान इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर देंगे। उसे छिटपुट आंदोलनों की उम्मीद थी और उससे निपटने के अनुरूप उसके पास पुलसिया और मीडियाई तैयारियाँ भी पहले से थीं।
शाहीन बाग के आंदोलन को झेला-झेलाकर उखाड़ चुकी सरकार को पक्का विश्वास था कि साम-दाम-दंड-भेद से वह किसी भी आंदोलन को उखाड़ देगी। उसे अंदाजा नहीं था कि किसान दिल्ली घेर लेंगे और सीमाओं पर डेरे डालकर धरने पर बैठ जाएँगे। सरकार यह भी सोच रही थी कि जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, धरने पर बैठे किसान मौसम की मार से, सरकार की ललकार से और मीडिया के दुष्प्रचार से घबराकर भाग खड़े होंगे। ऐसा नहीं हुआ। महात्मा गांधी की लाइन पर पूरे एक साल तक चले इस विराट अहिंसक आंदोलन में किसानों ने बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेलीं, अवरोध झेले, प्रतिरोध झेले। करीब सात सौ किसानों की जान भी गयी लेकिन अंतत: जीत उनकी ही हुई। अपने को मजबूत समझने वाली सरकार को मजबूर होकर पीछे हटना पड़ा और कृषि कानूनों को रद्द करना पड़ा।
ऐन देव दीपावली के दिन गुरु नानक जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी तपस्या में कोई क byमी रह गयी थी जिससे वे किसानों को कृषि कानूनों का लाभ समझा नहीं पाये। इस वायवीय और भावुक बयान के माध्यम से उन्होंने किसानों पर फिर आक्षेप ही किया। इस बयान पर सवाल भी खड़े हुए कि तपस्या आपने की या किसानों ने? भारतीय संस्कृति और हिन्दू गौरव का नारा गुंजाने वाली इस सरकार के नुमाइंदे इसी भाषा में प्रभावपूर्ण प्रवंचनाएँ करते हैं या अपनी शर्म ढँकते हैं। नहीं तो, सरकार की वह बेशर्मी भी हमने देखी है जब अड़तालीस दिन और आठ दौर की वार्ता के बाद उसने किसानों से कह दिया था कि हमारा कोई फैसला पसंद नहीं तो सुप्रीम कोर्ट में चले जाओ! यही सुप्रीम कोर्ट था जिससे इस सरकार के पहले की हर सरकार डरा करती थी और चाहा करती थी कि उसके विरुद्ध कोई मामला सुप्रीम कोर्ट में न जा पाये। अन्यथा सुप्रीम कोर्ट से लताड़, मुआवजा के साथ मुकदमा हारने का कलंक उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा।
यह सरकार किस आराम से कह रही थी कि उसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में चले जाओ! इससे जाहिर है कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट का कोई भय नहीं था। भय से बड़ा विश्वास कि सुप्रीम कोर्ट सरकार को सही ठहराएगा और किसानों को गलत। यह विश्वास सरकार के पास कहाँ से आया था? सुप्रीम कोर्ट भी हतप्रभ हुआ होगा कि सरकार ने यह कैसे कह दिया?
सुप्रीम कोर्ट क्या कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने का आदेश सरकार को दे सकता था ? सुप्रीम कोर्ट अगर कहता कि किसानों का आंदोलन गलत या अनावश्यक है तो फिर किसान क्या करते? सरकार की तो बल्ले-बल्ले हो जाती। सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कार्रवाई करते हुए लोकतंत्र की रक्षक छवि के साथ किसानों को जबरदस्ती उनके घर भेजना शुरू कर देती। फिर किसान क्या करते? प्रश्न परेशान कर रहे थे।
प्रधानमंत्री की कृषि कानून की वापसी की घोषणा के बाद किसान बिल संसद में रद्द किए जा चुके हैं लेकिन ध्वनिमत से। संसदीय प्राविधानों के तहत विपक्ष इस पर चर्चा चाहता था। उस चर्चा में किसानों की अन्य समस्याओं और माँगों तथा उत्पीड़न की भी चर्चा होती लेकिन सरकार ने उसका मौका नहीं दिया। अल्पमत में रहते हुए भी राज्यसभा में ये बिल जबरन ध्वनिमत से पारित कराए गए थे। वस्तुत: संसदीय नियमों के अनुसार जिस तरह से पास होने चाहिए थे उस तरह से पास भी नहीं हुए थे और उन पर राष्ट्रपति की मोहर लग गयी थी। संसद में चर्चा होती तो सारी बातें फिर से उठतीं। लखीमपुर काण्ड भी उछलता और गृह राज्यमंत्री के इस्तीफे की माँग भी उठती। छह सौ से ऊपर ऊ किसानों की शहादत हुई, उसका मुआवजा, उन पर लगाए गए अभियोगों की वापसी, किसानों की एक और बड़ी माँग न्यूनतम समर्थन मूल्य की वैधानिक गारंटी और शहीद किसानों को श्रद्धांजलि ! सरकार सबसे बच गई।
लेकिन सरकार नहीं जानती कि जो बचेगा वो क्या रचेगा। एक रचनात्मक सरकार को जनता के साथ जनता की समस्याओं से जूझना चाहिए। सरकार इसीलिए होती है। विकास का ढोल पीटती सरकार को समझना चाहिए कि वह विकास किसका कर रही है और उस विकास की बलि कौन चढ़ रहा है। जुमलों में जो अन्नदाता है उसे कार्पोरेट का कृषि दास बनाना विकास कतई नहीं है। कार्पोरेट केवल अपनी कमाई के लिए है, देश और जनता की भलाई के लिए नहीं। यह भारत की कृषि ही रही जिसने मंदी के वक्तों में अर्थव्यवस्था को सँभाले रखा। ऐसी कोई उम्मीद हम कार्पोरेट से नहीं कर सकते जिसका कोई ठिकाना नहीं कब वह दिवालिया हो जाए और देश का पैसा विदेशी बैंकों के हवाले कर दे। विकास किसान का होना चाहिए। विकास कृषि का होना चाहिए। सरकार को कृषि बजट बढ़ाना चाहिए। उसे किसानों की आत्महत्याओं पर भी नजर दौड़ानी चाहिए। सरकार को कृषि मजदूरों पर भी ध्यान देना चाहिए। कृषि के साथ कृषि से जुड़े कुटीर उद्योगों को भी संरक्षित करना चाहिए।
पशुपालन को बढ़ावा देना चाहिए। आदिवासियों के जंगल बचाकर रखें। इतने से ही देश की पचहत्तर प्रतिशत आबादी की सेवा सरकार द्वारा हो जाती है। संसद में बिल रद्द होने के एक दिन पहले सेवा को ही प्रधानमंत्री अपना लक्ष्य बता रहे थे। वे कह रहे थे कि सत्ता उनका लक्ष्य नहीं है। किसानों की बाकी माँगें भी सहर्ष मानकर प्रधानमंत्री इसका प्रमाण दें। नहीं तो यह भी प्रधानमंत्री के जुमले में चला जाएगा।
प्रधानमंत्री क्या करेंगे, क्या नहीं करेंगे इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती लेकिन किसान आंदोलन की सफलता ने कुछ चीजें निश्चित कर दी हैं। जैसे, इस देश में महात्मा गाँधी के विचार अभी जिंदा हैं। जनता में जान है। आंदोलन मरे नहीं हैं। आंदोलन किस तरह सफल होते हैं उसकी राह फिर से स्पष्ट हुई है। संविधान सर्वोपरि है। जनता सरकार के लिए नहीं, सरकार जनता के लिए है।
कृषि से इस देश की सभ्यता, संस्कृति और समृद्धि संरक्षित है, कार्पोरेट से नहीं। और जनता जो नहीं चाहती उसे उस पर थोपा नहीं जा सकता। इसी क्रम में श्रमिकों पर भी थोपे हुए कानून हटने चाहिए।
फिलहाल, हम किसानों को इस सफल आंदोलन की बधाई देते हैं और इसकी शांतिपूर्ण सफलता में अपने प्राण निछावर करने वाले किसानों को श्रद्धांजलि !