ऐसे थे हमारे खडस भाई – अनिल सिन्हा : दूसरी किस्त

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गोदी कामगार से अनाज के व्यापार में आने का उनका (मुहम्मद खडस का) सफर भी राजनीति और विचारधारा के रास्ते ही तय हुआ था। अनाज के मशहूर व्यापारी लीलाधर भाई समाजवादी आंदोलन से जुड़े थे और मधु दंडवते जैसे समाजवादियों को बहुत चाहते थे। खडस भाई मधु दंडवते के खास सहयोगी थे। जहाज का काम छोड़ने के बाद वह लीलाधर भाई के यहाँ काम करने लगे। उनकी लगन और संवेदनशीलता ने उन्हें सिर्फ कहने के लिए नहीं, बल्कि वास्तव में उनके परिवार का हिस्सा बना दिया था। लीलाधर भाई उन्हें बेटे रायचंद भाई की तरह मानते थे। उन्होंने अपने फर्म में पार्टनर बना लिया। लेकिन इन सब उपलब्धियों को वह सहज भाव से लेते थे। इसे लेकर उन्हें कभी अति उत्साहित होते नहीं देखा। वह इसे बड़ी उपलब्धि की तरह नहीं देखते थे क्योंकि जीवन के सपने कुछ अलग ही थे।

वह कभी यह नहीं बताते थे कि उन्होंने जहाज का काम क्यों छोड़ा।

खातु (गजानन खातु) बताते हैं कि यह स्मलिंग का जरिया था। खडस भाई को यह सब मंजूर नहीं था। लिहाजा उन्होंने यह काम छोड़ दिया। वह किशोर वय में ही राष्ट्र सेवा दल के संपर्क में आ गये थे और उनके संस्कार अलग थे। यह कितना दिलचस्प है कि डॉक में समुद्री जहाज और डॉक में पलनेवाली जिस संस्कृति को खारिज कर वह बाहर आ गये थे उसी संस्कृति का सरगना हाजी मस्तान नयी पीढ़ी के महानायक अमिताभ बच्चन के किरदार की प्रेरणा बना। आजाद भारत में मूल्यों की गिरावट का यह एक अच्छा उदाहरण है।

सोशलिस्ट पार्टी की छ़त्रछाया में उन्होंने न केवल अपने को व्यावहारिक ज्ञान से लैस किया बल्कि स्वाध्याय के जरिये विचारधारा की बारीकियों को भी समझा। मिडिल स्कूल की शिक्षा पाये खडस भाई की मुंबई के बौद्धिकों के बीच ऐसी पैठ थी कि उनके करीबी मित्रों में प्रसिद्ध अर्थशास़्त्री डा भालचंद्र मुणगेकर, इतिहासकार वाईडी फड़के, लेखक नमोदव ढसाल, लक्ष्मण माने, लक्ष्मण गायकवाड़, साजिद रशीद, पत्रकार प्रकाश बाल, प्रताप आसबे, ज्योति पुनवानी आदि थे।

ऐसे अनेक लोग थे जो खडस भाई को अपना दोस्त और अभिभावक मानते थे। इन रिश्तों में उन्होंने कभी किसी को निराश नहीं किया। तीखे राजनीतिक मतभेदों के बीच भी रिश्ते की गर्मी बनाये रखते थे। रिश्तों को मुहब्बत से सहेज कर रखने का जबर्दस्त हुनर उनके पास था। गजानन खातु, राम तांबे, गोपाल कदम जैसे किशोर वय से ही उनके साथी रहे लोग ताउम्र उनसे जुड़े रहे। उनके राजनीतिक मतभेदों को आसानी से पहचाना जा सकता था लेकिन अपने साथियों की ईमानदारी और निष्ठा में उनका पूरा भरोसा था। खातु उनके साथ समता आंदोलन में भी थे और पड़ोसी भी। इन सभी लोगों में एक चीज कॉमन थी- अपने को छिपाना। ये लोग कभी नहीं बताते थे कि उन्होंने दूसरों के जीवन में उजाला लाने की कितनी कोशिशें की हैं।

वह अपने मित्रों की तरक्की की लगातार चिंता किया करते थे। उनकी हर तरक्की से इतना खुश होते थे कि जैसे खुद कुछ मिल गया हो। साथियों को लेकर उनकी चिंता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनके लिए डॉ मुणगेकर का मुंबई यूनिवर्सिटी का वाइसचांसलर बनना उतना ही महत्त्वपूर्ण था जितना दिल्ली के साथी अटलबिहारी शर्मा की आर्थिक स्थिरता का सवाल। उन्होंने अपने साथ जुड़े आंदोलनकारियों को परिवार से अलग नहीं जाना। कितने युवाओं को उन्होंने और फाफा ने संरक्षण दिया।
उनका राजनीतिक और निजी जीवन इतना घुला-मिला था कि एक दूसरे को अलग करके देखना संभव नहीं है। परिवार का दायरा इतना बड़ा हो गया था कि यह अंदाजा करना मुश्किल था कि उनके अपने रिश्तेदार कौन हैं और कौन सामाजिक रूप से जुड़े हैं। अगर हुसैन दलवाई उनकी पत्नी फातिमा खडस का सगा भाई, और शमा, दलवाई हुसैन की पत्नी होने की वजह से उनके रिश्तेदार थे तो डा भालचंद्र मुणगेकर, संजीव साने, संजय मंगो, जवाहर नागौरी, अरुण ठाकूर, निशा शिवूरकर, सुभाष लोमटे, जगदीश खैरालिया और दत्ता इस्वलकर जैसे उनके राजनीतिक सहयात्री भी उनके परिवार के ही हिस्सा थे। यह सूची बहुत लंबी है।

सफाई कामगारों पर अरुण ठाकूर के साथ लिखी उनकी किताब ‘नरक सफाई की कहानी खडस भाई की रचनात्मक प्रतिभा का दर्शन कराती है। गहन शोध और फील्डवर्क के बाद लिखी गयी इस किताब से उनकी सामाजिक अंतर्दृष्टि का पता चलता है। भारतीय समाज में जाति की सच्चाई और समाज के निचले तबके के शोषण को समझने के लिए इससे बेहतर किताब नहीं है।

खडस भाई इस समाज के लोगों के जीवन की गहराई में उतर गये थे। मैला ढोने तथा सफाई के काम ने इस समाज के लोगों पर आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक रूप से ही नहीं असर डाला था, उनके मनोविज्ञान पर भी इसका असर पड़ा था। वह अकसर इसकी चर्चा करते थे और बताते थे कि किस तरह इस समाज के नौजवान चटक रंग के कपड़े पहन कर अपनी गली से बाहर खड़े रहते हैं। आमलोग इसे गलत ढंग से लेते हैं जबकि अंदर की हीन भावना पर काबू पाने के लिए यह एक मनोवैज्ञानिक रिस्पांस है।

खडस भाई ऐसे समय में मुंबई के समाजवादी आंदोलन में थे जब इसका स्वर्णिम काल था। पार्टी जमीन पर एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में मौजूद थी। मुंबई की ट्रेड यनियन में जॉर्ज फर्नांडिस का जादू चल रहा था। खडस भाई प्रजा सोशलस्ट पार्टी में थे और मधु दंडवते के खास सहयोगी थे। उनकी पार्टी लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी की प्रतिस्पर्धी पार्टी थी। लेकिन खडस भाई का जुड़ाव समाजवादी आंदोलन की सभी धाराओं से तो था ही, आंबेडकरवादियों और कम्युनिस्टों से भी उनके अच्छे रिश्ते थे।

मैंने घंटों उनसे मुंबई के उन तूफानी दिनों के रोमांचक किस्से सुने हैं कि किस तरह जॉर्ज फर्नांडिस घंटे-भर से ज्यादा सो नहीं पाते थे। रात 12 बजे कपड़ा मिल की गेट मीटिंग होती थी और रात्रि दो बजे के बाद सफाई कामगारों को संगठित करने निकल जाना पड़ता था। जब मुंबई सोयी होती थी, जॉर्ज सड़कों पर होते थे। उन्होंने ही बताया कि किस तरह अशोक मेहता ने सहकारी बाजार की शुरुआत मजदूरों की खून-पसीने की कमाई को बनियों की लूट से बचाने के लिए की थी और अपना बाजार का प्रयोग सामने आया। खडस भाई अपना बाजार से जुड़े थे और खातु ने इसे आधुनिक ढंग से विकसित करने में योगदान किया। देश और समाज को बदलने की इन तेज गतिविधियों पर रोशनी डालेंगे तो आपको खडस भाई जैसे उस समय के नौजवानों को मिलनेवाली ऊर्जा के स्रोत का पता चलता है।

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