भुलाए जा चुके राष्ट्र निर्माता : ठक्कर बापा

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हरिजन सेवक संघ में स्थापित ठक्कर बापा की प्रतिमा


— आनंद कुमार —

स्वतंत्रता की हीरक जयन्ती के उत्सव में भुलाए जा चुके राष्ट्र निर्माताओं की जीवन-साधना का स्मरण करना एक जरूरी जिम्मेदारी है. इस क्रम में पहला नाम ठक्कर बापा का ध्यान में आना चाहिए. कौन थे ठक्कर बापा? इनका क्या योगदान था?

देश की राजधानी दिल्ली में गांधीजी द्वारा 1932 में स्थापित हरिजन सेवक संघ के परिसर में उनकी एक आकर्षक प्रतिमा स्थापित है. वह गांधीजी के समवयस्क थे. गांधीजी ने पूना में दलितों के प्रश्न पर अंग्रेजों के ‘बाँटो और राज करो’ की कूटनीति के विरुद्ध ऐतिहासिक उपवास के बाद अपने को दलित सेवा के लिए पूर्णतः समर्पित किया और इसमें ठक्कर बापा 1932 से 1948 तक 16 बरस उनके दाहिने हाथ की भूमिका में रहे. गांधीजी ने उन्हें हरिजन सेवक संघ का संस्थापक सचिव नियुक्त किया किया था.

बापा ने ही गांधीजी द्वारा प्रस्तावित ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ (1946) में आदिवासियों का प्रश्न जुड़वाया था.
29 जनवरी 1869 को जन्मे इस देश निर्माता का पूरा नाम अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर था. गांधीजी के अनुसार, ‘बापा का जन्म ही दलितों की सेवा के लिए है. बापा की कदर करने में हम दलितों की कुछ न कुछ सेवा करते हैं. बापा की सेवा ने हिन्दोस्तान को बढ़ाया है.’.

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद भी ठक्कर बापा के योगदान के प्रबल प्रशंसक थे. उनकी दृष्टि में, “हरिजनों और आदिवासियों की सेवा को बापा ने अपना मुख्य काम बना लिया है. उनके जीवन का शायद ही कोई क्षण ऐसा होता है जिसमें वे उनके लिए कुछ-न-कुछ सोचते या करते न हों. जब कभी नि:स्वार्थ सेवा का ध्यान आता है तो ठक्कर बापा का चित्र आँखों के सामने आ जाता है.”

ऐसे अतुलनीय राष्ट्र निर्माता ठक्कर बापा की विरासत से स्वाधीनोत्तर भारत में दलित विमर्श के बारे में क्या मार्गदर्शन लिया जा सकता है? ठक्कर बापा ने कहा था कि “मैं निश्चयपूर्वक मानने लगा हूँ कि भारत को समग्र जीवन अर्पण कर देने वाले सेवकों की जरूरत है; फ़ुरसत या सुविधा से काम करने वालों की नहीं. जब तक आजीवन कार्य करनेवाले सेवक भारत को नहीं मिलेंगे, हमारी कोई प्रगति नहीं हो सकती….हरिजन को हम पूरी तरह अपनाएँ और दुनिया में ऊँचा सिर करके और छाती तानकर चल सकें, इतनी मुराद ईश्वर हमारी पूरी करें…

हमारे शिक्षित वर्ग के लोग जब तक भंगियों के मोहल्ले में जाकर नहीं बसते, चौबीसो घंटे उनके दुख-सुख में भाग नहीं लेते, दिन-रात उनकी सेवा नहीं करते, तब तक उस नरक-वास से उन्हें मुक्ति नहीं मिलेगी.…”

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