— आनन्द कुमार —
( मंजू मेरी सहपाठी, जीवनसंगिनी और धर्मपत्नी थीं। वह हमारी आलोचक, सहयोगी और प्रतिद्वंद्वी भी रहीं। हमने साथ-साथ 1971 में समाजशास्त्र की शुरुआती पढ़ाई की। हम दोनों एक ही समय में 1979-80 में समाजशास्त्र के शिक्षक भी बने। फिर हमारा विवाह होने के तत्काल बाद हम अध्यापन के समांतर पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक बेहद समस्याग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र में 15 बरस तक स्त्री-केन्द्रित ग्रामीण नव-निर्माण के लिए एकसाथ जुट गये। हम दोनों को देश-विदेश में संवादों में हिस्सेदारी के मौके मिले। लेकिन मेरी कहानी बहुतों को मालूम हुई और मंजू को सिर्फ मेरे बौद्धिक और सार्वजनिक जीवन की सहयोगिनी के रूप में जाना गया। यह आधा सच था। पूरा सच यह है कि मंजू मूलत: आजीवन सगुण समाजवाद की मौन साधना में जुटी रहीं। अब मंजू का महाप्रस्थान हो चुका है। आज गोवा में समुद्र में उनका अस्थि-विसर्जन हो गया। अगले सप्ताह काशी में गंगा में अस्थि-प्रवाह किया जाएगा। उनके जीवनसाथी के नाते मेरे लिए यह उनकी अनकही कहानी को बताने का क्षण है।)
फतेहगढ़ के एक सुशिक्षित परिवार में 27 दिसंबर, ‘52 को जनमीं मंजू और हम बनारस के विश्वविद्यालय की एम.ए. (समाजशास्त्र) की कक्षा में 1971 में मिले। छात्रसंघ चुनाव में एक सहपाठी के नाते मुझे उनका समर्थन मिला। लेकिन इतनी घनिष्ठता नहीं थी कि वह मेरे आग्रह पर समाजवादी युवजन सभा की सदस्य भी बन जातीं। 1972 में शिक्षा सुधार आन्दोलन के कारण मैं छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के नाते लगभग 30 छात्रनेताओं के साथ निष्कासित कर दिया गया। बनारस से लेकर दिल्ली तक, कुलपति आवास से लेकर राष्ट्रपति भवन के सामने प्रदर्शन-गिरफ्तारी का सिलसिला बना। श्री राजनारायण, प्रो. राजाराम शास्त्री, श्री चन्द्रशेखर जैसे वरिष्ठ सांसदों और काशी के बुद्धिजीवियों के हस्तक्षेप से समझौता हुआ और मुझे और सभी निष्कासित छात्रों को परीक्षा देने की अनुमति मिली। लेकिन मेरा विश्वविद्यालय या पुस्तकालय में प्रवेश निषिद्ध था। अनेकों परिचितों ने मुँह फेर लिया क्योंकि नेहरू सरकार में मंत्री रह चुके कुलपति ने हमलोगों को सबक सिखाने की ठान रखी थी।
ऐसी कठिन घडी में मंजू ने खतरा मोल लिया और अपने सभी क्लास नोट्स मुझे देकर बहुत मदद की। मुझे मंजू से मिली अमूल्य मदद और अन्य सहपाठियों के साथ अध्ययन के बल पर एम.ए. (समाजशास्त्र) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। लेकिन मंजू को मेरी मदद का साहस दिखाने का नुकसान उठाना पडा। उनको मौखिक परीक्षा में बहुत कम अंक दिया गया। जिससे वह प्रथम श्रेणी तक से वंचित हो गयीं। लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी मुझे दोषी नहीं ठहराया। मैं भी आजीवन उनका मुरीद हो गया। यह बात पाँच दशक की अनूठी मैत्री की बुनियाद बन गयी।
काल के थपेड़ों ने मुझे 1972 के उत्तरार्ध में बनारस से बाहर फेंक दिया। मैं 1972 और 1978 के बीच दिल्ली, शिकागो, बिंघमटन और लन्दन में पढ़कर 1979 में अध्यापक के रूप में बी.एच.यू. वापस लौटा। मंजू का शोधकार्य अपने अंतिम चरण में था। तभी 1980 के विधानसभा चुनाव में एक समाजवादी साथी के प्रचार कार्य के दौरान मैं भीषण दुर्घटना में आहत होकर सर सुन्दरलाल अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूलने लगा। 1972 में मंजू ने पढ़ाई में मदद करने का खतरा उठाया था लेकिन इस बार तो मृत्यु से जूझने में मेरे साथ खड़ी हो गयीं। इस करुणामय आचरण ने मेरे परिवार के बुजुर्गों का मन मोह लिया।
इस 18 अप्रैल को हमने गोवा में अपनी शादी की 40वीं वर्षगाँठ मनायी और याद किया कि कैसे हम एक दूसरे के पूरक बने। वह 1981 में काशी के एक समाजवादी परिवार की बड़ी बहू और हमारे पाँच भाई-बहनों और उनके मित्रों की भाभी बन गयीं। 1983 में अमिताभ के जन्म के बाद उनकी पहचान में‘अमी की माँ’ का पद भी जुड़ गया। अपने स्नेहिल और सात्विक व्यक्तित्व के कारण उन्होंने अपनी इन्हीं पहचानों को आगे रखा। अपने को आत्म-प्रदर्शन और प्रचार से अलग रखा। यह उनकी जीने की अपनी शैली थी। वैसे हमारे आग्रह पर उन्होंने अपने मूल नाम को बनाये रखा। इससे आगे कई बार असुविधा हुई। गोवा के दफ्तर में अंतिम संस्कार के लिए पर्ची लेते समय तक….
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मंजू की जिंदगी में परिवार के बाहर के संसार में कई महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ रहीं – स्वाभिमानी भारतीय। सरोकारी नागरिक। समाजशास्त्री शोधकर्ता। लोकप्रिय शिक्षिका। ग्रामीण विकास विशेषज्ञ। स्त्रीविमर्श में हिस्सेदार। रचनात्मक कार्य संयोजिका। उनका गांधी और लोहिया से अपना अनूठा मौन संबंध था – देखो, जानो, समझो और सुलझाओ। पहले आचरण सँभालो,फिर दूसरों की आलोचना के लिए निकलो! करो ज्यादा, बोलो कम! चर्चा करना कम करो और चर्चा के नतीजों को लागू करने की जिम्मेदारी उठाओ। लोगों के आगे नहीं साथ चलो।
शिक्षा, विवाह और नौकरी के प्रसंग में वाराणसी की कामकाजी महिलाओं के अध्ययन पर 1982 में पी-एच. डी. की उपाधि से उनकी शोध क्षमता की पहचान बनी। डा. मारिया मीस और प्रो. करुणा चानना उनकी परीक्षक थीं। दूसरे छोर पर अध्यापन से अवकाश लेने के बाद 2013 में भारतीय समाजविज्ञान परिषद ने सीनियर फेलोशिप देकर उनकी प्रामाणिकता का सम्मान किया। एक शोधकर्ता के रूप में उनकी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (इंग्लैंड), सोरबान विश्वविद्यालय (फ़्रांस), नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी (अमरीका), आई.आई.टी.(दिल्ली), और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) से संबद्धता रही।
उन्होंने डा. एनी बेसेंट द्वारा स्थापित वसंत कन्या महाविद्यालय (वाराणसी) में 1980 से 2004 तक समाजशास्त्र का अध्यापन किया। व्याख्याता से रीडर तक आगे बढ़ीं। ग्रामीण विकास विशेषज्ञ के रूप में उन्होंने 1981 और 1996 के बीच 15 बरस तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर, मिर्जापुर और वाराणसी के गाँवों में स्त्री जागरण और स्वावलंबन निर्माण के कार्यों का निर्देशन किया। स्त्री विमर्श में हिस्सेदार के रूप में मंजुला ने अमरीका, आस्ट्रिया, जर्मनी,फ्रांस, नेपाल, बांग्लादेश, फिलीपीन्स, ग्रीस, थाईलैण्ड, सेनेगल, ताईवान और भारत में संवादों में योगदान किया। सेंटर फॉर सोशल रिसर्च, विस्कांसिन विश्वविद्यालय भारत अध्ययन कार्यक्रम, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, ‘परिवर्तन’और तिब्बत मुक्ति समर्थक महिला मंच को भी सहयोग दिया। ‘मैरिज, करियर एंड विमेन’ , ‘ट्रेडिशनल टेक्नोलॉजी एंड विमेन’, ‘वाराणसी एंड ग्लोबलाइजेशन’ और ‘डाटर मेंनटेन्ड फैमिलीज’ उनकी उल्लेखनीय रचनाएँ रही हैं।
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माता राजेश्वरी और पिता चंदनसिंह राठौर ने अपनी दोनों बेटियों को पाँच बेटों से ज्यादा स्नेह और संरक्षण दिया था। जिससे दोनों बहनें मंजुला (समाजशास्त्र) और सुषमा (रसायन शास्त्र) ने पी-एच. डी. की। दोनों ने विश्वविद्यालयी अध्यापन के जरिए उच्च शिक्षा विस्तार और देश की प्रगति में योगदान किया। मंजू ने कई विदेश यात्राएँ कीं और शिकागो, पेरिस, फ्राईबुर्ग, बर्लिन, बोस्टन और वाशिंगटन में लंबा प्रवास किया। दोनों ने फर्रुखाबाद-कन्नौज के परिवारों के लिए स्त्री-शिक्षा के बारे में दृष्टिकोण सुधार की प्रेरणा जगायी।
मंजुला एक धर्मनिष्ठ और संवेदनशील व्यक्ति थीं। लेकिन किसी बाबा या गुरु के प्रति भक्तिभाव नहीं जागा। रूढ़िवादिता, और अन्य धर्मों के प्रति दुर्भावना की प्रवृत्ति की विरोधी रहीं। वह अपनी एक विधवा सहेली के अंतरजातीय विवाह में अदालत में जाकर साक्षी बनीं। उन्होंने एक ईसाई लड़की को अपनी मुँहबोली बेटी बनाया था। एक पड़ोसी कामकाजी दलित दंपति की बच्चियाँ उनके घर में बड़ी हुईं। घरेलू कामों में हाथ बँटानेवाली गरीब महिलाओं के बच्चे–बच्चियों को पढ़ने में हर तरह से प्रोत्साहित करना उनका सबसे बड़ा शौक था। वह हमारे जैसे लोगों से जानना चाहती थीं कि‘जाति तोड़ो’ और ‘सर्वधर्म समभाव’ का बैनर लगाकर मंच बनाने से समाज में शुभ को बढ़ावा मिलता है या अशुभ की शक्तियों की महत्ता बढ़ती है? जातिवाद की आग को बुझाने के लिए स्त्री को सक्षम बनाने और अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने को कब प्राथमिकता मिलेगी?
श्री गणेश वंदना, मधुराष्टकम्, श्री आदित्यहृदय स्तोत्र और सुन्दरकाण्ड उनकी दैनिक प्रार्थना में पिता के आचरण से प्रेरित होकर विद्यार्थी जीवन से ही शामिल थे। वह शिरडी के साईं का मंदिर, अजमेर शरीफ, श्रीअरविन्द आश्रम, स्वर्णमंदिर, नोत्रदाम चर्च, दक्षिणेश्वर धाम, कामाख्यादेवी मंदिर, रामेश्वरम्, महालक्ष्मी मंदिर, तिरुपति जी और विवेकानंद शिला के दर्शन के लिए भी उत्साह और श्रद्धा से गयीं। उनकी जीवन कथा में बनारस के चार दशक (1967-2004) की अवधि का विशेष महत्त्व था। सुबह की पूजा और प्रार्थना पाठ से शुरू दिनचर्या का शाम को दिया जलाने से समापन करती थीं। यह संस्कार उन्हें माँ-पिता से मिला और उसका संवर्धन काशी में पढ़ने-पढाने के लम्बे दशकों में हुआ।
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उन्होंने अपने संपर्क में आनेवाले हर व्यक्ति से सहानुभूति का संबंध रखा। मेरी तुलना में उनके मित्र ज्यादा टिकाऊ निकले। अमरीका-यूरोप से गहरा परिचय होने के बावजूद उनमें भारतीय होने का आत्मगौरव था। शैक्षणिक कामकाज में अंग्रेजी के वर्चस्व और जीवनशैली में पश्चिमीकरण की प्रबलता से असहमत थीं। लेकिन अन्य संस्कृतियों के गुणों के प्रति सहज सम्मान भी था। जर्मनी में बार-बार जाना शुरू होने पर जर्मन भाषा सीखने के लिए अपने बेटे के साथ विद्यार्थी बनीं। आजकल कुछ महीनों से कोंकणी सीखने में जुटी थीं। इसलिए जौनपुर की अल्पशिक्षित महिलाओं से लेकर बनारस और दिल्ली के विद्वत समाज तक से उनकी आत्मीयता थी। अपने भाई-बहनों और ननदो-देवरों के बेटे-बेटियों से लेकर शिकागो, फ्राईबुर्ग और बर्लिन तक में संपर्क में आए विद्यार्थियों को उनसे मातृत्व तुल्य स्नेह मिला। आज यह सभी उनके महाप्रस्थान से शोकसंतप्त हैं।
मंजुला की अत्यंत सक्रिय जिंदगी में पचास की आयु के बाद से स्वास्थ्य समस्याओं की चुनौती आ गयी। दो बरस तक डायलिसिस की मदद से प्राणरक्षा के बाद 2012 में डा. आतिशरंजन नंदी के मार्गदर्शन में कलकत्ता में सफल किडनी प्रत्यारोपण हुआ। एक तरह से नवजीवन मिला। लेकिन जीवन कई परहेजों के बीच बँध गया। फिर भी संयम और अनुशासन के साथ अपने निजी और सार्वजनिक कर्तव्यों के निर्वाह की निरंतरता बनाये रखने से विरत नहीं हुईं। परिवार में माँ चंद्रा और चाचा कृष्णनाथ की गंभीर अस्वस्थता। बेटे अमिताभ-अर्णिका का शुभविवाह। मेरी पार्किंसंस की शुरूआती समस्याएँ। यह मेरे बौद्धिक और नागरिक जीवन में भी तूफानी दौर का समय था – जेएनयू में समाजशास्त्र विभाग का नेतृत्व, बिडला-अंबानी शिक्षा सुधार रिपोर्ट के विरुद्ध आंदोलन, केंद्रीय विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की अध्यक्षता, लोकशक्ति अभियान, भारत-तिब्बत मैत्री संघ से लेकर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, आम आदमीं पार्टी का बनना, 2014 में लोकसभा चुनाव में हिस्सेदारी, स्वराज अभियान, स्वराज इंडिया पार्टी। समाजशास्त्र परिषद का महामंत्री और फिर अध्यक्ष बनना। जर्मनी, आस्ट्रिया, अमरीका और भारत के विश्वविद्यालयों में अध्यापन प्रवास। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (शिमला) में दो बरस। फिर नवम्बर, ’20 से गोवा में एक नयी शुरुआत।
यह खुला सच है कि मंजू ने मेरे मूल्यों के प्रति आदर रखने के बावजूद मेरे हर फ़ैसले को सही नहीं माना। वह निर्गुण अभियानों को निरर्थक मानती थीं। ठोस नतीजों की कसौटी को जरूरी समझती थीं – “ज्यादातर गोष्ठी और व्याख्यान कराते हो। इससे किसका भला होता है? किताबें और पत्रिकाएँ इकठ्ठा करते हो लेकिन किसी एक सवाल पर गहराई से सोचने की आदत नहीं बनायी! किसी की मदद करो तो कम से कम एक शुरुआत होगी।” उन्होंने मेरी हर मैत्री और कई मित्रों का अनुमोदन नहीं किया। कथनी–करनी की कसौटी पर खरा नहीं उतरने वालों से दूरी बनाने की सलाह देती थीं। ईर्ष्या और चापलूसी दोनों से बचने का दबाव बनाती थीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी सार्वजनिक प्रतिष्ठा को आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली से बनारस तक दाँव पर लगाने से असहमति थी। यह विचित्र तथ्य भी रहा कि अधिकांश मामलों में वह सही और मैं ग़लत साबित हुआ। फिर भी हमारा रिश्ता दो सहयात्रियों जैसा था। उन्होंने मोदी समर्थक एक भोजपुरी सिनेमा कलाकार से चुनाव में हारने या आम आदमी पार्टी से अनायास निष्कासित किये जाने पर कभी मेरी नादानी का मजाक नहीं उड़ाया।
मंजू मेरी सबसे बड़ी समीक्षक रहीं। उनकी दृष्टि में मुझे पारिवारिक परिवेश के कारण अति आदर्शवादी जननायकों का मार्गदर्शन जरूर मिला लेकिन मैंने उसका सदुपयोग नहीं किया! मेरा कर्मक्षेत्र ज्ञान साधना का रहना चाहिए था। इसलिए मेरे हर बौद्धिक कामों में – शिकागो जाकर अधूरी पी-एच. डी. पूरी कराने से लेकर शिलांग में अध्यापन और शिमला में शोध कार्य तक में परछाईं की तरह साथ रहीं। लेकिन अकसर मेरी असंतुलित कोशिशों पर टोकती रहीं – यही गांधीजी की सिखावन थी? क्या समाजवादी होने का यही मतलब है?
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इधर उनका आग्रह अपने काम को समेटने और सीमित करने पर बढ़ गया था। वह शरीर की सीमा और समय की रफ्तार का ध्यान दिलाती थीं। अपने को तो समेट ही लिया था। सदैव यश और संपत्ति संचय से कोसों दूर रहीं और 2020 की गंभीर अस्वस्थता से प्राणरक्षा के बाद अनासक्ति का पूरा अभ्यास शुरू कर दिया था। सिर्फ अपने स्नेह संबंधों तक सीमित रह गयी थीं। हमारी भविष्य चर्चा के प्रसंगों में मंजू यह दुहराने लगी थीं कि अब सबकुछ हो गया है। जो नहीँ कर पाये उसको अगले जन्म में करेंगे : ‘एक जीवन में करने लायक सबकुछ तो कर लिया। माँ-पिता के आशीर्वाद से अच्छी पढ़ाई और सम्मानजनक नौकरी की। मनपसंद विवाह किया। संतान को स्वावलंबी बनते देख लिया। जितना हो सका उतना संबंध निर्वाह किया। देश-दुनिया देख लिया। देश की हर दिशा के बड़े तीर्थ की यात्रा हो गयी। अब मेरी कोई इच्छा बाक़ी नहीं है…..!’.
मंजू के महाप्रस्थान के अंतिम 24 घंटे अपार वेदना के थे। पीड़ा से राहत के लिए गोवा मेडिकल कालेज अस्पताल के डाक्टरों ने पहले मार्फिन लगायी। कुछ राहत मिली। दो घंटे सोयीं। फिर साँस में अनियमितता हुई तो वेंटिलेटर पर रखा गया। इसके बाद भोर होने तक चेहरे पर शांति का भाव आ गया। दर्द के दलदल से निकल कर शरीर हमेशा के लिए शांत हो गया। पिछले कुछ दिनों में हुए सुधारों से आशान्वित डाक्टर टीम और परिवारजन हतप्रभ थे। फतेहगढ़ में गंगाजी के किनारे शुरू जीवनयात्रा का गोवा में महासागर के तट पर समापन हुआ। बेटे अमिताभ ने सम्बन्धियों और शुभचिंतकों की उपस्थिति में मुखाग्नि दी। अब मंजू की इच्छा अनुसार काशी में गंगाजी में अस्थिप्रवाह किया जाएगा। गोवा के समुद्र जल में दाह-संस्कार के तीसरे दिन हो चुका है। सारनाथ के पारिवारिक निवासस्थान पर परिवार द्वारा श्राद्ध संपन्न होगा। दिल्ली के शुभचिंतक प्रार्थना सभा करेंगे।
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अब मंजू सशरीर नहीं हैं। इससे पिछले 48 घंटे में ही हमारा पचास साल का सम्बन्ध संसार छिन्न-भिन्न हो गया है। निकट और दूर से शोक और समवेदना के अनेक आत्मीय सन्देश इस अबूझ दुख में मलहम का काम कर रहे हैं। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि मृत्यु के इस सनातन सच का देश-काल-पात्र से परे का क्या सारांश है?
श्रीकृष्ण के अनुसार जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। और मृत्यु के बाद जन्म होता है। यह अपरिवर्तनीय व्यवस्था है। इसलिए मृत्यु का शोक करना उचित नहीं है –
जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु,
ध्रुवम् जन्म मृतस्य च,
तस्माद् अपरिहार्येर्थे,
न त्वम् शोचितुममर्हसि।
(गीता : 2-27)
मृत्यु के सच की एक व्याख्या यह भी है कि जिन्हें हम प्रेम करते हैं वे हमसे दूर नहीं जाते। वह हमारे साथ ही हर दिन नि:शब्द और अदृश्य बने रहते हैं।
बौद्ध विमर्श में यह सीख दी गयी है कि हमारा अस्तित्व तीन परतों वाला होता है – शरीर-काय, कर्म-काय, और विचार-काय। मृत्यु से किसी के भी सिर्फ शरीर-काय का समापन होता है। कर्म-काय और विचार-काय का नहीं। इसी के समांतर इस्लामी चिंतन में बताया गया है कि हम सब एक ही सफर और एक ही राह के मुसाफिर हैं। कुछ आगे जरूर चले गये लेकिन बाकी हम सब भी उधर ही बढ़ रहे हैं…
आसक्ति–अनासक्ति और संयोग-वियोग के बीच जी रहे हम सबके लिए मृत्यु के बारे में एक बड़ी बात काशी के कबीर की भी है :
भोला मन जाने, अमर मोरी काया!
आनंद कुमार जी, थोड़े दिन के वियोग और हमेशा के लिए बिछोह के सिलसिले में एक उक्ति यह भी है: ज्यों ज्यों दूर गया मानस में धंसता चला गया वह—
Aanand Bhai
Kayi prayason ke baawujood bhi baat na ho saki, aap ne saari vyasttaon ke baawajood phone kiya par mein us samay phone na le saka, maafi chahta hoon. Manju bhabhi se yunhi kabhi kabhar mulaqaat ho jaati thi. Parichay to aaj hua aur dukh badh gaya ke kyon unhen achchhi tarah na jaana,sada khed rahega.
Yeh kehna ke main aapke saath is dukh ki ghadi mein shareek hoon, nitant nirarthak sa lagta hai, majboor hoon, mrityu ke saamne shabd, saare shabd, arth kho dete hain.