धर्मनिरपेक्षता का घोषणा-पत्र – किशन पटनायक

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

(अयोध्या आंदोलन के बहाने संघ परिवार की सांप्रदायिकता के उभार के दिनों में स्व किशन जी ने यह लेख लिखा था, जो कि उनके सबसे प्रसिद्ध लेखों में से एक है। आज जब संघ परिवार की सांप्रदायिकता और उसका फासीवादी एजेंडा भारत की रजनीति और लोकतंत्र तथा भारत की सभ्यता व संस्कृति को पहले से ज्यादा भयाक्रांत किये हुए है तब किशन जी के उपर्युक्त लेख को फिर से पढ़ा जाना उपयोगी होगा। इसे दो किस्तों में छापा जा रहा है।)

र्मनिरपेक्षता का शब्दार्थ जो भी हो, भारतीय राजनीति में यह शब्द साम्प्रदायिकता का विलोम या विरुद्धार्थ है। इसलिए इसका मुख्य गुण धार्मिक सहिष्णुता है। साम्प्रदायिकता भारतीय राष्ट्र की एक मुख्य कमजोरी है। इस राष्ट्र को एकताबद्ध और सशक्त बनाये रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता का निर्णायक महत्त्व है। संविधान में इसे एक राष्ट्रीय प्रतिज्ञा के बतौर माना गया है तो वह उचित ही है।

साम्प्रदायिकता के विरोध के अलावा धर्मनिरपेक्षता के दो अन्य पहलू हैं। धर्मशासित राज्य (या थियोक्रेसी) तथा धर्म का विरोध। धर्मनिरपेक्षता के सर्वाधिक मुखर समूहों ने जिस ढंग से सेक्युलरिज्म का प्रचार करना चाहा, उसमें धर्म विरोधी और भौतिकवादी व्यंजना अधिक थी। इस कारण सामान्य जन के स्तर पर धर्मनिरपेक्षता की एक स्पष्ट अवधारणा अभी तक नहीं बन पायी है।

यूरोपीय इतिहास में धर्मनिरपेक्षता का सन्दर्भ थियोक्रेसी या धर्मशासित राज्य रहा है। राज्यों के प्रशासन में धर्मयाजकों के बार-बार हस्तक्षेप से कई तरह की समस्याएँ पैदा हुईं। जनसाधारण तथा राजाओं की ओर से इस हस्तक्षेप का जो विरोध हुआ, वह यूरोप के विकास का एक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन था, जिसके चलते राष्ट्रीयता तथा धर्मनिरपेक्षता दोनों अवधारणाएँ यूरोप में मजबूत हुईं।

यूरोपीय इतिहास में साम्प्रदायिकता की समस्याओं को देखना है तो यहूदी द्वेष और वर्तमान यूगोस्लाविया की घटनाओं पर ध्यान देना होगा। धर्मनिरपेक्षता को पूरी समझदारी के साथ अपनाने के बाद भी यूरोप के यहूदियों पर अत्याचार हुए हैं, और जर्मन फासीवाद का मुख्य आधार यहूदी द्वेष था। इसलिए संघ परिवार पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि हिटलर के यहूदी द्वेष की राजनीति से ही उसे मुस्लिम द्वेष की राजनीति चलाने की प्रेरणा मिली।

धर्मशासित राज्य का विचार सम्भवत: भाजपा की मुख्य धारा नहीं है। लेकिन संघ परिवार का एक गुट अवश्य है जो धर्मशासित राज्य को अपना लक्ष्य मानता है। भारतीय समाज में हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति का एक तार्किक परिणाम ऊँची जातियों का शासन और शूद्र दमन होगा। इसी अर्थ में धर्मशासित राज्य का एक तत्त्व साम्प्रदायिकता की राजनीति में निहित है।

जिस अर्थ में यूरोप में धर्मशासित राज्य था, उस अर्थ में भारतीय इतिहास के किसी भी काल में धर्मशासित राज्य मुख्य धारा के रूप में विकसित नहीं हुआ। हिन्दुओं के धर्म की यह विशेषता है कि किसी एक किताब में उसके धर्म तत्त्व आधिकारिक रूप में समाविष्ट नहीं हैं। कुछ किताबें अगर मूल ग्रन्थ के तौर पर अपनायी गयी हैं तो उनका कोई आधिकारिक भाष्य नहीं है। कोई अधिकृत धर्मयाजक नहीं है जिसके भाष्य को जनसाधारण माने। कुछ लोग अगर ईसाइयत या इस्लाम की नकल में हिन्दू धर्म के ढाँचे को भी एक केन्द्रित संगठित ढाँचा बनाने में सफल हो जाते हैं, तब जाकर एक धर्मशासित राज्य बन सकता है। इस तरह की कोशिश को सफलता मिलना असम्भव है—क्योंकि यह हिन्दू धर्म के मूल स्वभाव के विरुद्ध होगा। इस प्रकार की अस्वाभाविक कोशिशों से हिन्दू समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा।

धर्मनिरपेक्षता का पहला सूत्र अगर यह है कि राजा का विषय और ईश्वर का विषय अलग-अलग है तो हिन्दू मानस के लिए यह कोई समस्या नहीं है। जिन पुस्तकों को हिन्दू लोग अपना मूल ग्रन्थ मानते हैं उनमें विवाह, सम्पत्ति, अपराध आदि के बारे में कोई कानूनी निर्देश नहीं है। हिन्दू मूल ग्रन्थों के अनुसार ईश्वर ब्रह्माण्ड का राजा नहीं है, वह सिर्फ मूल तत्त्व है। हिन्दुओं के कुछ मूल ग्रन्थों में जातिभेद (वर्णभेद) का जि़क्र अवश्य है लेकिन जातियों या वर्गों के बीच सामाजिक सम्बन्ध क्या होंगे—इसका निर्देश न उपनिषदों में है न गीता में है।

वैसे तो हिन्दू होने के लिए गीता, उपनिषद को मानना भी जरूरी नहीं है। बौद्ध, शैव और सिखों के अलावा कई तरह के देवी पूजक, योनि पूजक, शून्य पूजक, पत्थर पूजक समूह हैं जो हिन्दू हैं। अँग्रेज़ों के आगमन के पहले तक भारत में सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से दो तरह के इलाके थे। कुछ इलाकों में ब्राह्मणवादी व्यवस्था थी, और कुछ बड़े भू-भागों में गैर-ब्राह्मणवादी व्यवस्था बनी हुई थी।

ब्राह्मणवादी’ शब्द को परिभाषित करना जरूरी हो गया है क्योंकि इसका काफी प्रचलन होने लगा है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था वह है जहाँ ब्राह्मण तथा कुछ ऊँची जातियाँ सर्वश्रेष्ठ सामाजिक समूह हैं, और ऊँचे और नीचे का एक क्रम भी बना हुआ है। नीचे के लोगों को बौद्धिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक मामलों में ऊँची जातियों का अनुसरण करना पड़ता है। अँग्रेज़ी राज के पहले तक भारत का अधिकांश इलाका ब्राह्मणवाद से मुक्त था। इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने भारतीय सामाजिक विकास के इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया है। फिर भी इसका अनुमान इतनी आसानी से लगाया जा सकता है कि विशेषज्ञों की मदद के बगैर इस तथ्य को हम समझ सकते हैं।

बंगाल-बिहार-ओड़िशा, मध्यप्रदेश का एक विशाल हिस्सा ‘झारखण्ड’ भू-भाग है। इस तरह के कई अन्य भू-भाग हैं। इन भू-भागों की वर्तमान आबादी को देखने के बाद अगर हम कल्पना करें कि अँग्रेज़ों के औपनिवेशिक शासन के पहले वहाँ का सामाजिक भूगोल कैसा रहा होगा, तो आधे भारत में ब्राह्मणों की उपस्थिति नहीं दिखाई देगी; और इन इलाकों में एक प्रकार की सामाजिक-आर्थिक समानता की व्यवस्था भी दिखाई देगी। इन इलाकों की सामाजिक व्यवस्था को हिन्दू नहीं मानना मूर्खता होगी। संघ परिवार अगर नहीं मानेगा तो मुश्किल में पड़ेगा।

ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी सुरक्षा के लिए भारत में एक अतिकेन्द्रित प्रशासन कायम किया, और देश के हर इलाके में जहाँ जिला, सब-डिवीजन या तहसील की इकाई बनायी गयी वहाँ ब्राह्मण तथा अन्य द्विज जातियों के लोगों को शासक के तौर पर भेजा गया।

इस प्रशासनिक प्रक्रिया के तहत हरेक जिला, सब-डिवीजन और तहसील में उच्च जातियों का एक विशिष्ट वर्ग स्थापित हो गया। स्थानीय समाज न सिर्फ प्रशासन के लिए बल्कि सामाजिक ढंग से भी इन द्विज समूहों के अधीन हो गया। इसी तरह समूचे देश में ब्राह्मणवादी व्यवस्था व्याप्त हो गयी, जो कभी नहीं थी। वहाँ शूद्रों-दलितों के ऊपर सामाजिक अत्याचार हुए, जो कभी नहीं हुए थे।

बसपा के कांशीराम अँग्रेजी शासन की स्तुति करते हैं और उनके चले जाने की घटना पर ग़म जाहिर करते हैं। वे जानते नहीं हैं कि पूरे विश्व में और खासकर भारत में यूरोपीय शासन के सामाजिक परिणाम क्या-क्या हुए हैं। कांशीराम की बेखबरी को हम दोषी नहीं ठहराएँगे, क्योंकि भारत के इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने अँग्रेज़ों के ही चरण चिह्नों पर चलकर अपने देश का इतिहास लिखा है। उसी को पढ़कर लोग सोचते हैं कि अँग्रेजों की गुलामी करने से हमारी सामाजिक प्रगति हुई है।

इसका मतलब यह भी नहीं है कि भारत का गैर-ब्राह्मणवादी इलाका बाकी समाज की तुलना में ज्यादा उन्नत था। अभी तक दुनिया में कहीं भी समृद्धि और उन्नति लगातार होती नहीं पायी गयी है। सम्भवत: गुप्तकाल के बाद से भारत के ब्राह्मणवादी इलाकों में ही बौद्धिक और राजनैतिक गतिशीलता अधिक रही। गैर ब्राह्मणवादी समूहों का विकास रुक गया; और समूचे भारत की दृष्टि से ब्राह्मणवादी नेतृत्व ही भारत का प्रतिनिधित्व करता रहा। जब मुगल या यूरोपीय शासन चला, तब भी द्विज जाति के लोग दूसरी पंक्ति के शासक बने। नीतियाँ दिल्ली दरबार में बनती थीं, लेकिन प्रशासन द्विजों के हाथ रहा।

इस तथ्य के कई तार्किक परिणाम निकल सकते हैं, लेकिन यहाँ इसका जि़क्र करने का तात्पर्य यह है कि न सिर्फ भारत बल्कि हिन्दू समाज भी एक पंचमेल है। इसकी विविधता कई स्तरों पर और कई आयामों में है। भारत की विविधता ‘मोजाइक’ की तरह है। इसको न विभाजित किया जा सकता है और न इसको एकरूपता के सूत्र में बाँधा जा सकता है। विभाजन से इसकी आत्मा नष्ट होगी, केन्द्रीकृत और एकरूप करने से विभाजन की प्रवृत्तियाँ बढ़ेंगी। धर्मशासित राज्य यहाँ के लिए अनुकूल नहीं है। धर्मनिरपेक्षता यहाँ का स्वाभाविक गुण है। इस तरह के समाज में साम्प्रदायिकता का प्रभाव भी बहुत सीमित रहेगा।

साम्प्रदायिकता का एक आधार भारतीय समाज में अवश्य है। ऐतिहासिक कारणों से तथा इतिहास की गलत समझ के चलते हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव है। हिन्दुओं के अवचेतन में एक मुसलमान द्वेष है। यह द्वेष इतना नहीं है कि अपने आप हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति को जन्म दें। लेकिन इतना जरूर है कि कुछ खास प्रचार से यह उबल पड़ता है। जब राजनैतिक और आर्थिक स्थितियाँ लोगों में हताशा पैदा करती हैं, सुषुप्त सामूहिक द्वेषों को हवा देकर साम्प्रदायिक राजनीति करना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है।

(जारी)

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