बढ़ती गैरबराबरी का न्यू इंडिया

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— राजू पाण्डेय —

विश्व विषमता रिपोर्ट-2022 के आँकड़े सामने आने के बाद भारत में बढ़ती आर्थिक असमानता फिर चर्चा में है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 प्रतिशत सर्वाधिक अमीर लोगों के पास 2021 में कुल राष्ट्रीय आय का 22 फीसद हिस्सा था, जबकि शीर्ष 10 फीसद लोग राष्ट्रीय आय के 57 प्रतिशत भाग पर काबिज थे। हमारे देश की आधी आबादी सिर्फ 13.1 फीसदी कमाती है। रिपोर्ट आने के बाद होनेवाली चर्चाएं प्रायः शीर्ष के 1 प्रतिशत धनकुबेरों पर केंद्रित हो जाती हैं और उनकी तेजी से बढ़ती दौलत को देश की तरक्की के तौर पर पेश किया जाता है। जबकि लेकिन अभाव और घोर गरीबी में जीवन गुजार रही आधी आबादी की दशा पर विमर्श कहीं अधिक आवश्यक है।

आर्थिक समानता हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की समानता की अवधारणा को साकार करने के लिए जरूरी है। हाशिये पर धकेले गये समुदायों को समान अवसर और अधिक प्रतिनिधित्व मिले बगैर यह संभव नहीं है। दूसरी तरफ आर्थिक असमानता अर्थव्यवस्था को अस्थिर बना सकती है। इसके कारण स्वास्थ्य, शिक्षा एवं अनुसंधान जैसे आवश्यक क्षेत्रों में निवेश में कमी आ सकती है। हाल में किये गये अध्ययनों ने यह दर्शाया है कि कोरोना काल में मजदूरी और आय में घटोतरी ने कुल माँग पर विपरीत प्रभाव डाला है क्योंकि आम लोगों के उपभोग में कमी आयी है।

जहाँ तक भारत का संबंध है यहाँ आर्थिक गैरबराबरी के लिए केवल वितरण की असमानता को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। जातिप्रथा और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियाँ तथा श्रम बाजार में जातिगत भेदभाव वे कारक हैं जो दलितों को भूमि और संपत्ति तथा उनके श्रम के उचित मूल्य से वंचित रखने में मुख्य भूमिका निभाते हैं।

सावित्री बाई फुले विश्वविद्यालय पुणे, जेएनयू तथा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज द्वारा 20 राज्यों के 110800 परिवारों को सम्मिलित करते हुए सन 2015 से 2017 के बीच किये गये अध्ययन के बाद संबंधित अध्ययनकर्ताओं  ने अपने निष्कर्ष में बताया कि 22.3 प्रतिशत उच्चतर जातियों के हिंदुओं के पास देश की 41 प्रतिशत संपत्ति है। जबकि 7.8 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की आबादी के पास 3.7 प्रतिशत संपत्ति ही है। हिन्दू अनुसूचित जाति के लोगों के पास केवल 7.6 प्रतिशत संपत्ति ही है। अनुसूचित जाति का कोई श्रमिक सामान्य जाति के अपने समकक्ष श्रमिक की आय का केवल 55 प्रतिशत ही प्राप्त कर पाता है।

स्त्री-पुरुष असमानता की स्थिति भी कम भयानक नहीं है। श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी के मामले में वैश्विक दृष्टि से भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी में भारी गिरावट देखने में आयी है। वर्ष 2011-19 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यस्थलों पर महिलाओं की भागीदारी 35.8 फीसद से घटकर 26.4 फीसद ही रह गयी। महिलाओं पर ऐसे घरेलू काम का बोझ बहुत ज्यादा है जिसके लिए किसी भुगतान का प्रावधान नहीं है। महिलाओं को मिलनेवाली मजदूरी पुरुषों की तुलना में बहुत कम होती है।

श्रम बाजार में स्त्री-पुरुष भेदभाव इतना अधिक है कि बहुत से कार्य व व्यवसाय पुरुषों के लिए आरक्षित हैं। तमाम कानूनी प्रावधानों तथा सामाजिक जागरूकता अभियानों के बावजूद संपत्ति और भूमि के अधिकार से महिलाओं को वंचित रखा जाता है। महिलाएँ शहरों और गाँवों को मिलाकर हमारी कुल पेड वर्क फ़ोर्स का 18 से 19 प्रतिशत हैं। कोई महिला अपने पुरुष समकक्ष को होनेवाली आय का केवल 62.5 प्रतिशत ही कमा पाती है।

आदिवासी समुदाय औद्योगिक विकास से सर्वाधिक प्रभावित होता है। यह विस्थापन की मार झेलता है और अपने पारंपरिक व्यवसाय को त्यागने के लिए विवश होता है। स्वाभाविक रूप से आदिवासी समूहों के आय व जीवन-स्तर में गिरावट देखी जाती है।

भारतीय समाज में अंतर्निहित विसंगतियों के कारण आर्थिक असमानता का विमर्श पहले ही अनेक जटिलताओं से युक्त था। इसी दौरान नवउदारवाद और वैश्वीकरण के उभार ने ऐसी आर्थिक नीतियों को जन्म दिया जिनमें असमानता विकास प्रक्रिया का एक अपरिहार्य बाय प्रोडक्ट थी। विश्व असमानता रिपोर्ट के पिछले कुछ वर्षों के आँकड़े यह दर्शाते हैं कि शीर्ष पर स्थित 1 प्रतिशत जनसंख्या की संपत्ति में असाधारण वृद्धि हो रही है। नवउदारवादी नीतियों के कारण शहरों में आर्थिक असमानता बढ़ी है। गाँवों और शहरों के बीच बीच आर्थिक असमानता की खाई गहरी हुई है जिसके परिणामस्वरूप अलग अलग क्षेत्रों में विकास की मात्रा एवं स्वरूप में गहरा अंतर पैदा हुआ है।

अनेक अर्थशास्त्रियों को यह आशा थी  कि नवउदारवाद और वैश्वीकरण जैसी आधुनिक अवधारणाएँ भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जातीय और लैंगिक गैरबराबरी को दूर करने में सहायक होंगी किंतु ऐसा हुआ नहीं।

औद्योगिक संस्थानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमेशा प्रशिक्षित, कार्यकुशल, दक्ष व सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करनेवाले कर्मचारियों तथा श्रमिकों की आवश्यकता होती है जिनसे अधिकतम कार्य लेकर सर्वाधिक मुनाफा कमाया जा सके। निजी क्षेत्र का तर्क यह है कि सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (दलित-आदिवासी-महिला) में इस तरह के सुयोग्य श्रमिकों का स्वाभाविक रूप से अभाव होता है, इस कारण उन्हें निजी क्षेत्र में अवसर नहीं मिल पाता।

सरकारी नौकरियों में तो आरक्षण की सशक्त व्यवस्था है किंतु निजी क्षेत्र में तो ऐसा नहीं है। यही कारण है कि अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट वर्चस्व के बाद जो नये रोजगार सृजित हुए हैं उनमें वंचित समुदायों की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है।

वर्ष 2006 में यूपीए सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति हेतु सकारात्मक कार्रवाई (एफर्मेटिव एक्शन) सुनिश्चित करने के लिए एक समिति का गठन किया था। इसका उद्देश्य निजी क्षेत्र में इन वर्गों को नौकरियों में प्रतिनिधित्व दिलाना था। लगभग एक दशक तक इस दिशा में कुछ खास नहीं हुआ। इन वर्गों में बढ़ते असंतोष के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विषय में सितंबर 2018 में एक बैठक ली। इसमें विभिन्न औद्योगिक एसोसिएशनों द्वारा दिये गये आँकड़े निराशाजनक परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। इन एसोसिएशनों से सम्बद्ध 17788 कंपनियों में से केवल 19 प्रतिशत ने ही सकारात्मक कार्रवाईकी स्वैच्छिक संहिता को स्वीकार किया है।

निजी क्षेत्र अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों को व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा छात्रवृत्ति देने के मामले में तो उदारता दर्शाता है लेकिन जब इन्हें रोजगार देने की बात आती है तो वह पीछे हटने लगता है।

फिक्की, सीआईआई और एसोचैम ने  इन समुदायों के क्रमशः 277421, 320188 तथा 36148 लोगों को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जबकि इन संस्थाओं से छात्रवृत्ति पानेवालों की संख्या क्रमशः  3118, 159748 तथा 3500 रही। लेकिन सीआईआई और फिक्की में रोजगार पानेवाले अनुसूचित जाति एवं जनजाति के व्यक्तियों की संख्या केवल एक लाख है। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट के अनुसार कम वेतन वाली नौकरियों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों का प्रतिनिधित्व आनुपातिक दृष्टि से बहुत अधिक है जबकि उच्च वेतन वाली नौकरियों में नगण्य के बराबर है।

महिलाओं के लिए भी निजी क्षेत्र ने बहुत अधिक अवसर उत्पन्न किये हों ऐसा नहीं है। यद्यपि संगठित निजी क्षेत्र में 24.3 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ महिलाओं का प्रतिनिधित्व संगठित सार्वजनिक क्षेत्र से अधिक है जहाँ उनकी मौजूदगी केवल 18.07 प्रतिशत है। नैसकॉम के अनुसार ई-कॉमर्स, रिटेल तथा आईटी कुछ ऐसे सेक्टर हैं जहाँ महिलाओं की हिस्सेदारी क्रमशः 67.7, 52 तथा 34 प्रतिशत के आँकड़े के साथ कुछ उम्मीद जगाती है। किंतु कोविड-19 के कारण निजी क्षेत्र के कर्मचारियों ने नौकरियाँ गँवायी हैं। इनके वेतन में भी कटौती की गयी है। निजी क्षेत्र में कार्यरत  महिलाएँ इससे सर्वाधिक प्रभावित हुई हैं। बहुत सी महिलाएँ पारिवारिक दबावों और कार्यस्थल की आवश्यकताओं के बीच तालमेल न बना पाने के कारण नौकरी छोड़ने को मजबूर हुई हैं।

अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के लाभ तभी हमारे श्रमिकों को मिल सकते हैं जब उनकी कुशलता में सुधार आए। किंतु अकुशल एवं अर्धकुशल श्रमिकों को कुशल बनाने की आशा कम से कम निजी क्षेत्र से तो नहीं की जा सकती। निजी क्षेत्र का उद्देश्य मुनाफा कमाना है, न कि हमारे विशाल अप्रशिक्षित श्रमिक वर्ग को स्किल डेवलपमेंट की प्रक्रिया द्वारा योग्य बनाकर उनकी आय बढ़ाना। उसकी पसंद तो पूर्व प्रशिक्षित, कुशल एवं अनुभवी श्रमिक ही होंगे। जाहिर है इसकी जिम्मेदारी सरकार को ही उठानी होगी।

ऐसा लगा कि मोदी सरकार इस विषय को गंभीरता से लेगी। पहली बार कौशल विकास एवं उद्य‍मिता मंत्रालय की स्थापना वर्ष 2014 में की गयी। जुलाई 2015 से प्रारंभ स्किल इंडिया मिशन के अंतर्गत 2022 तक 40 करोड़ लोगों को रोजगार पाने योग्य स्किल ट्रेनिंग देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। 2016 से शुरू हुई प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना में कंस्ट्रक्शन, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा हार्डवेयर, फूड प्रोसेसिंग,फर्नीचर एवं फिटिंग, हैंडीक्रॉफ्ट, जेम्स और ज्वेलरी तथा लेदर टेक्नोलॉजी जैसे करीब 40 तकनीकी क्षेत्र सम्मिलित किये गये हैं। इसके तहत 2016 से 2020 की अवधि में एक करोड़ युवाओं को कुशल बनाने का लक्ष्य था। किंतु इस अवधि में 50लाख युवाओं को ही कुशल बनाया जा सका है।

योजना के तहत देश भर में खोले गए 2500 केंद्रों में से अनेक बंद हो गये हैं। इन केंद्रों के संचालकों का आरोप है कि सरकार उन्हें काम न देकर केवल बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों को ही काम दे रही है। सरकार कौशल विकास विषयक नीतियों में बार-बार परिवर्तन कर रही है जिससे असमंजस की स्थिति बनी है। कौशल अर्जित करनेवाले युवाओं में से केवल 57 प्रतिशत का ही प्लेसमेंट हो पाया है।

कुल मिलाकर स्किल इंडिया मिशन मोदी सरकार की अनेक बहुप्रचारित योजनाओं की भांति ही सरकारी विज्ञापनों में ही सफल है। सरकार इसके लिए समुचित बजट तक नहीं देती।

ऑक्सफेम द्वारा जनवरी 2019 में प्रकाशित रिपोर्ट पब्लिक गुड ऑर प्राइवेट वेल्थ में असमानता खत्म करने हेतु अनेक महत्त्वपूर्ण सिफारिशें की गयी हैं। रिपोर्ट के अनुसार सरकारों को स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य सार्वजनिक सेवाओं की सार्वभौम उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए। इनका निजीकरण बंद हो।  सामाजिक सुरक्षा और पेंशन तथा शिशु कल्याण सरकारी नीतियों का अंग हों। सरकारों की सभी योजनाएँ महिलाओं के लिए समान रूप से लाभकारी हों। महिलाएँ अपने परिवार की देखरेख में बिना किसी भुगतान के लाखों घण्टे खपाती हैं, सरकारी योजनाएँ उन्हें इससे मुक्ति दिलाने पर ध्यान केंद्रित करें। कर प्रणाली की समीक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर सहमति बनायी जाए। इस हेतु वैश्विक स्तर पर नियमों और संस्थाओं का गठन होना चाहिए।

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इनमें विकासशील देशों की परिस्थितियों की उपेक्षा न हो। हमें कॉरपोरेट्स और सुपर रिच लोगों द्वारा किये जानेवाले कर अपवंचन पर रोक लगानी होगी। इन पर अधिक करारोपण करना होगा। करों का बोझ केवल आम आदमी पर न डाला जाए बल्कि यह न्यायसंगत होना चाहिए।

हाल ही में अमेरिका जैसे देश में एलेक्जेंड्रिया ओकेसिओ कॉर्टेज, एलिज़ाबेथ वारेन तथा बर्नी सैंडर्स जैसे राजनेताओं ने  धनपतियों पर भारी करारोपण का सुझाव देकर कर प्रणाली में सुधार के विषय को आम जनता के बीच बहस का मुद्दा बना दिया है। भारत में भी इस विषय पर खुली चर्चा होनी चाहिए।

हमने सतत विकास लक्ष्य क्रमांक दस हेतु अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है। इसकी भावना के अनुरूप हमें असमानता मिटाने के लिए ठोस व समयबद्ध नीतियों तथा कार्य योजना  का निर्माण करना ही होगा।

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