भीलों के गांधी मामा बालेश्वर दयाल : पहली किस्त

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मामा बालेश्वर दयाल (10 मार्च 1905 - 26 दिसंबर 1998)


— रामस्वरूप मंत्री —

ज के इस दौर में जहाँ आम आदमी के नाम पर बहुत कुछ कहा सुना जा रहा, बालेश्वर दयाल की याद रह रह के आती है। मामा जी को भीलों का गांधी कहा जाए तो कुछ गलत न होगा। जिस तरह गांधी, स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए जाने गये उसी तरह भीलों के लिए राजाओं और कर्मचारियों की तानाशाही से आजादी मामाजी के आंदोलन से ही आयी। मामा बालेश्वर दयाल शायद देश के एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्हें भीलाचंल के लाखों आदिवासी ना केवल भगवान की तरह पूजते हैं बल्कि पूरे  भील अंचल में उनकी सैकड़ों मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं।

हिल अंचल का मतलब है मध्यप्रदेश का झाबुआ, अलीराजपुर, धार, गुजरात का पंचमहाल  और राजस्थान का बांसवाड़ा जिला और उससे लगा हुआ इलाका। पश्चिम भारत के आदिवासी बहुल, झाबुआ, धार, रतलाम, दाहोद, बाँसवाड़ा, डूंगरपुर जि़लों के  लाखों आदिवासियों की आजादी मामा जी की मुहिम से आयी। उन्हें राजाओं के शोषण, वेठ बेगार, नशाखोरी, पुलिस, पटवारी और वन विभाग की तानाशाही और दमन जैसी सैकड़ों दैनिक समस्याओं से लड़ने का साहस दिया मामा जी ने। इज्जत से जीने का ढंग दिया और इस पूरे क्षेत्र को एक अलग राजनीतिक पहचान दी। इस आंदोलन का लाल झण्डा पुलिस, पटवारी और फ़ारेस्ट गार्ड को आदिवासियों के घरों से दूर रखता था।

1931 में चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु के बाद उनकी माँ से मिलने झाबुआ के भाबरा गाँव, पहुँचे मामा बालेश्वर दयाल की मुलाकात आजाद के एक बचपन के साथी भीमा से हुई। भीमा के साथ भाबरा में रहकर काम करने का निर्णय ले लिया। 1932 में झाबुआ जि़ले के थांदला के एक स्कूल में हेडमास्टर की नौकरी पाकर वहाँ आ गये। धीरे-धीरे जिले के भीलों के बीच इतने रम गये कि यहीं अपना घर बना लिया और पूरा जीवन बिता दिया।

1939 में मामा जी पास के, इंदौर रियासत के गाँव, बामनिया आ गये- जो अंत तक उनका निवास स्थान और आंदोलनों का केन्द्र रहा। बामनिया में इन्होंने डूंगर विद्यापीठ नामक एक स्कूल शुरू किया जिसमें आदिवासी बच्चों को अपने साथ रखकर पढ़ाना शुरू कर दिया। स्कूल में पन्द्रह बच्चे चुन-चुन कर रखे थे- जिनकी दाढ़ी-मूँछ अभी नहीं निकली थी, कुछ लड़कियों को भी रखा। इन्हें पढ़ने-लिखने के साथ-साथ राजनीति के क, ख की शिक्षा दी। अर्जियाँ लिखना सिखाया और सरकारी नियम-कानूनों की जानकारी दी। लोगों से सम्पर्क कर उनकी समस्याओं को समझना सिखाया। जब ये पन्द्रह प्यारे कुछ बड़े हो गये तो इन्हें पूरे आदिवासी क्षेत्र में स्कूल खोल कर वहाँ भेज दिया।

झाबुआ, धार, रतलाम, बांसवाड़ा, डूंगरपुर आदि जि़लों में स्कूल खोले गये। इन्हीं पन्द्रह शिक्षकों ने अपने छात्रों को साथ लेकर मामा जी के संदेश का पूरे इलाके में प्रचार किया। मामाजी ने इस काम को लंबे समय तक चलाने की दृष्टि से संगठनात्मक ढाँचा तैयार किया। इन पन्द्रह प्यारों में से अधिकांश, आगे चलकर विधायक और सांसद बने। आगे चलकर इन्होंने ही मामा जी की जन-जागृति की रोशनी को सात-आठ जि़लों में फैला दिया।

इस इलाके के भील स्थानीय राजाओं की वेठ बेगार से बहुत त्रस्त थे। राजा का नियम था कि चोखियार- उच्च जाति के लोग- को बेगार माफ थी। मामा जी ने तजवीज निकाली और पुरी के शंकराचार्य से मिलकर  आदिवासियों को जनेऊ पहनाने की अनुमति ले ली। शंकराचार्य का आदेश आया कि दारू-मांस छोड़ो और जनेऊ पहनो। बस मामा जी ने इंदौर के कृष्णकांत व्यास से कहकर इस बात के तीन लाख परचे छपवाये। गाँव गाँव में खबर पहुँचायी। इस प्रचार का जबरदस्त असर हुआ और हजारों की संख्या में आदिवासी दूर दूर से बामनिया आने लगे। जनेऊ पहनकर आदिवासियों को  राजा की बेगार नहीं करनी पड़ती थी हालांकि इसके लिए लोगों को गांव गांव में कड़ा संघर्ष करना पड़ा। बेगार विराधी आंदोलन इस भील क्षेत्र की बारह रियासतों में फैल गया। बेगार के साथ-साथ अकाल के समय में जबरन कर वसूली के विरोध में भी आंदोलन छेड़ा।

राजाओं व कर्मचारियों की दमनकारी नीतियों का विरोध करने के साथ मामा जी ने सामाजिक मुद्दों पर भी काम किया। भीलों में नशाबंदी का लंबा आंदोलन चला। शराब पीने में आयी कमी के चलते राजा की शराब के ठेकों से आमदनी बहुत कम हो गयी। मामा जी की इन गतिवधियों के  कारण राजाओं और पादरियों नें मिलकर मामा जी की शिकायतें कीं, जिसके फलस्वरूप 1942 में महू के रेसीडेन्ट ने उन्हें इस क्षेत्र की नौ रियासतों से देश-निकाला करने का आदेश दे दिया।

कुछ दिन मामाजी को इंदौर की छावनी जेल में रखा गया। बाद में अहमदाबाद के एक होटल में पुलिस पहरे में रखा गया। मामा जी को जब पता चला कि सरकारी खर्च पर उन्हें होटल में रखा गया है तो उन्होंने बामनिया, बांसवाड़ा और कुशलगढ़ के लोगों को मिलने के लिए बुला लिया। बड़ी संख्या में लोग उनसे मिलने आने लगे। होटल का खर्च इतना बढ़ गया कि सरकार ने उन्हें छोड़ दिया। छूटने के बाद वे दाहोद में रहने लगे।

यहाँ से इन्होंने जागीरी प्रथा और राजाओं की वेठ बेगार के खि़लाफ जोरदार आंदोलन छेड़ दिया। कश्मीर में हुई देशी राज्य परिषद बैठक में नेहरू ने इन्हें बुलाया। वहाँ मामाजी ने जागीरी प्रथा के कारण आदिवासियों की बर्बादी की कहानी नेहरू को सुनायी। उनकी बातें सुनकर नेहरू ने कहा- ‘‘स्वतंत्रता की पहली किरण के साथ ही जागीरें ख़त्म की जाएंगी।’’ इस पर मामाजी ने सारे इलाके में पर्चे छपवाकर बँटवा दिये। पर देश आजाद होने के बाद सारे जागीरदार कांग्रेस में शामिल हो गये, और जागीरें खत्म करने की बात को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।

नेहरू को याद दिलाने पर भी, कुछ न होता देख मामाजी ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया और जागीरदारों को लगान न देने का आंदोलन छेड़ दिया। इस आंदोलन में आदिवासी भारी संख्या में शामिल हुए। छह महीनों तक यह सिलसिला चलता रहा। 1949 में इसी संबंध में एक मीटिंग करके उदयपुर से लौटते समय मामाजी को रेल रोक कर गिरफ्तार कर लिया गया। साढ़े आठ महीने उन्हे टोंक जेल में रखा गया। बाहर लोगों का आंदोलन जोरों पर था। आंदोलन की खबरें अखबारों में छप रही थीं। यह अनूठा उदाहरण है जहाँ एक स्वतंत्रता सेनानी आजादी के बाद भी जेल में था।

खबर पढ़कर समाजवादी पार्टी के जयप्रकाश नारायण ने बामनिया आकर मीटिंग की। उनकी मीटिंग से इस क्षेत्र में इस पार्टी का प्रचार हो गया और लोगों ने इसकी निशानी स्वरूप लाल टोपी पहननी शुरू कर दी। धीरे-धीरे यह लाल टोपी मामा जी के आंदोलन की पहचान बन गयी। सरकारी कर्मचारी व शहरवासी, मामा जी से जुड़े लोगों को लाल टूपिया कहने लगे और इन्हें अब कांग्रेस की सफेद टोपी के विरोधी के रूप में देखा जाने लगा।

खैर, इस तरह मामा जी की बात भारत के प्रथम गवर्नर जनरल राजागोपालाचारी तक पहुँची और उन्होंने इस क्षेत्र की रियासतों को खारिज करने का एक आदेश जारी कर दिया और मामा जी को भी रिहा करवा दिया।

( जारी )

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