एक योद्धा संत का अंत

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स्मृतिशेष डेसमंड टूटू (7 अक्टूबर 1931 - 26 दिसंबर 2021)


— कुमार प्रशांत —

ज के इस बौने दौर में डेसमंड टूटू जैसे किसी आदमकद का जाना बहुत कुछ वैसे ही सालता है जैसे तेज आँधी में उस आखिरी वृक्ष का उखड़ जाना जिससे अपनी झोंपड़ी पर साया हुआ करता था। जब तेज धूप में अट्टहास करती प्रेतछायाओं की चीख-पुकार ही सर्वत्र गूँजती हो तब वे लोग खासे अपने लगने लगते हैं जो संसार के किसी भी कोने में हों लेकिन मनुष्यता का मंदिर गढ़ने में लगे थे, लगे रहे और मंदिर गढ़ते-गढ़ते ही विदा हो गये। यह वह मंदिर है जो मन-मंदिर में अवस्थित होता है; और एक बार पैठ गया तो फिर आपको चैन नहीं लेने देता है। गांधी ने अपने हिंद स्वराज्य में लिखा ही है न : एक बार इस सत्य की प्रतीति हो जाए तो इसे दूसरों तक पहुँचाये बिना हम रह ही कैसे सकते हैं!”

डेसमंड टूटू एंगलिकन ईसाई पादरी थे लेकिन ईसाइयों की तमाम दुनिया में उन जैसा पादरी गिनती का भी नहीं है। डेसमंड टूटू अश्वेत थे लेकिन उन जैसा शुभ्र व्यक्तित्व खोजे भी न मिलेगा। डेसमंड टूटू शांतिवादी थे लेकिन उन जैसे योद्धा ऊँगलियों पर गिने जा सकते हैं। थे तो वे दक्षिण अफ्रीका जैसे सुदूर देश के लेकिन हमें वे बेहद अपने लगते थे क्योंकि गांधी के भारत से और भारत के गांधी से उनका गर्भ-नाल वैसे ही जुड़ा था जैसे उनके समकालीन साथी व सिपाही नेल्सन मंडेला का। इस गांधी का यह कमाल ही है कि उसके अपने रक्त-परिवार का हमें पता हो कि न हो, उसका तत्त्व-परिवार सारे संसार में इस कदर फैला है कि वह हमेशा जीवंत चर्चा के बीच जिंदा रहता है। गांधी के हत्यारों की यही तो परेशानी है कि लंबे षड्यंत्र और कई असफल कोशिशों के बाद, 30 जनवरी 1948 को जब वे उसे तीन गोलियों से मारने में सफल हुए तो पता चला कि यह आदमी उस रोज मरा ही नहीं। उस रोज हुआ इतना ही कि यह आदमी भारत की परिधि पार कर सारे संसार में फैल गया। डेसमंड टूटू संसार भर में फैले इसी गांधी-परिवार के अनमोल सदस्यों में एक थे। खास बात यह भी थी कि वे उसी दक्षिण अफ्रीका के थे जिसने बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को सत्याग्रही गांधी बनाकर संसार को लौटाया था। गांधी की यह विरासत मंडेला व टूटू दोनों ने जिस तरह निभायी उसे देखकर महात्मा होते तो निहाल ही होते।

श्वेत आधिपत्य से छुटकारा पाने की दक्षिण अफ्रीका की लंबी खूनी लड़ाई के अधिकांश सिपाही या तो मौत के घाट उतार दिये गये या देश-बदर कर दिये गये या जेलों में सदा के लिए दफ्न कर दिये गये। डेसमंड टूटू इन सभी के साक्षी भी रहे और सहभागी भी, फिर भी वे इन सब से बच सके तो शायद इसलिए कि उन पर चर्च का साया था। 1960 में वे पादरी बने और चर्च के धार्मिक संगठन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए 1985 में जोहानिसबर्ग के बिशप बने। अगले ही वर्ष वे केपटाउन के पहले अश्वेत आर्चबिशप बने। दबा-ढका यह विवाद तो चल ही रहा था कि डेसमंड टूटू समाज व राजनीति के संदर्भ में जो कर व कह रहे हैं क्या वह चर्च की मान्य भूमिका से मेल खाता है?सत्ता व धर्म का जैसा गठबंधन आज है उसमें ऐसे सवाल केवल सवाल नहीं रह जाते हैं बल्कि छिपी हुई धमकी में बदल जाते हैं। डेसमंड टूटू ऐसे सवाल सुन रहे थे और उस धमकी को पहचान रहे थे। इसलिए आर्चबिशप ने अपनी भूमिका स्पष्ट कर दी : “मैं जो कर रहा हूँ और जो कह रहा हूँ वह आर्चबिशप की शुद्ध धार्मिक भूमिका है। धर्म यदि अन्याय व दमन के खिलाफ नहीं बोलेगा तो धर्म ही नहीं रह जाएगा। वेटिकन के लिए भी आर्चबिशप की इस भूमिका में हस्तक्षेप करना मुश्किल हो गया।

रंगभेदी शासन के तमाम जुल्मों की उन्होंने मुखालफत की। वे नहीं होते तो उन जुल्मों का हमें पता भी नहीं चलता। वे उस चर्च से जुड़े संभवतः पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका की चुनी हुई श्वेत सरकार की तुलना जर्मनी के नाजियों से की और संसार की तमाम श्वेत सरकारों को लज्जित कर, लाचार किया कि वे दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार पर आर्थिक प्रतिबंध कड़ा भी करें तथा सच्चा भी करें। हम डेसमंड टूटू को पढ़ें या सुनें तो हम पाएंगे कि वे उग्रता से नहीं, दृढ़ता से अपनी बात रखते थे। उनकी मजाकिया शैली के पीछे एक मजबूत नैतिक मन था जिसे खुद पर भरोसा था। इसलिए सत्ता जानती थी कि उनकी बातों को काटना संभव नहीं है; कहनेवाले को झुकाना संभव नहीं है।

नैतिक शक्ति कितनी धारदार हो सकती है, इसे पहचानने में हम गांधी के संदर्भ में अक्सर विफल हो जाते हैं क्योंकि उसे पहचानने, सुनने व समझने के लिए भी किसी दर्जे के नैतिक साहस की जरूरत होती है। डेसमंड टूटू में यह साहस था। वे श्वेत सरकार के छद्म का पर्दाफाश करने में लगे रहे तो वे ही आंदोलनकारियों की शारीरिक देखभाल व आर्थिक मदद आदि में भी सक्रिय रहे।

नेल्सन मंडेला ने जब दक्षिण अफ्रीका की बागडोर सँभाली तो रंगभेद की मानसिकता बदलने का वह अद्भुत प्रयोग किया जिसमें पराजित श्वेत राष्ट्रपति दि क्लार्क उनके उपराष्ट्रपति बनकर साथ आए। फिर ट्रुथ एंड रिकांसिलिएशन कमीशन का गठन किया गया जिसके पीछे मूल भावना यह थी कि अत्याचार व अनाचार श्वेत-अश्वेत नहीं होता है। सभी अपनी गलतियों को पहचानें, कबूल करें, दंड भुगतें तथा साथ चलने का रास्ता खोजें। सामाजिक जीवन का यह अपूर्व प्रयोग था। अश्वेत-श्वेत मंडेला-क्लार्क की जोड़ी ने डेसमंड टूटू को इस अनोखे प्रयोग का अध्यक्ष मनोनीत किया। दोनों ने पहचाना कि देश में उनके अलावा कोई है नहीं कि जो उद्विग्नता से ऊपर उठकर, समत्व की भूमिका से हर मामले पर विचार कर सके।

सत्य के प्रयोग हमेशा ही दोधारी तलवार होते हैं। ऐसा ही इस कमीशन के साथ भी हुआ। सत्य के निशाने पर मंडेला की सत्ता भी आयी। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की आलोचना भी डेसमंड टूटू ने उसी साहस व बेबाकी से की, जो हमेशा उनकी पहचान रही थी। सत्ता व सत्य का नाता कितना सतही होता है, यह आजादी के बाद गांधी के संदर्भ में हमने देखा ही था; अब डेसमंड टूटू ने भी वही देखा। लेकिन कमाल यह हुआ कि टूटू इस अनुभव के बाद भी न कटु हुए न निराश! बिशप के अपने चोगे में लिपटे टूटू खिलखिलाहट के साथ अपनी बात कहते ही रहे।

अपने परम मित्र दलाई लामा के दक्षिण अफ्रीका आने के सवाल पर सत्ता से उनकी तनातनी बहुत तीखी हुई। सत्ता नहीं चाहती थी कि दलाई लामा वहाँ आएँ। टूटू किसी भी हाल में संसार के लिए आशा के इस सितारे को अपने देश में लाना चाहते थे। आखिरी सामना राष्ट्रीय पुलिस प्रमुख के दफ्तर पर हुआ जिसने बड़ी हिकारत से उनसे कहा : “मुँह बंद रखो और अपने घर बैठो!”

डेसमंड टूटू ने शांत मन से, संयत स्वर में कहा : “लेकिन मैं तुमको बता दूँ कि वे बनावटी क्राइस्ट नहीं हैं!”

डेसमंड टूटू ने अंतिम साँस तक संयम न छोड़ा, न सत्य! गांधी की तरह वे यह भी कह गये कि यह मेरे सपनों का दक्षिण अफ्रीका नहीं है।

भले डेसमंड टूटू का सपना पूरा नहीं हुआ लेकिन वे हमारे लिए बहुत सारे सपने छोड़ गये हैं जिन्हें पूरा कर हम उन्हें भी और खुद को भी परिपूर्ण बना सकते हैं।

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