संविधान से कौन डरता है?

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— आदित्य निगम —

भारतीय संविधान को नये भारत के सामाजिक स्वरूप को तय करनेवाले दस्तावेज के रूप में देखा जाता है। यह एकमात्र ऐसा दस्तावेज है, जिसे संविधान सभा के भीतर सभी राजनीतिक धाराओं के बीच व्यापक वाद-विवाद, बहस और विचार-विमर्श  के बाद तैयार किया गया है। इसमें हिंदू राष्ट्रवादी कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी से लेकर मुसलिम लीग तक के सदस्य थे। इसीलिए अंगीकार किये गये अंतिम दस्तावेज में लगभग सभी धाराओं के विचारों को कायम रखा गया।

यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्वतंत्रता आंदोलन में मुख्यधारा का राष्ट्रीय आंदोलन कई धाराओँ में से एक था। उसी समय अपनी मुक्ति के लिए कई समूह संघर्षरत थे- प्रायः स्थानीय दमनकर्ताओं से मुक्ति के लिए। जातिवादी दमन से मुक्ति के लिए दलित समुदाय संघर्षरत था,  आत्म अस्मिता के लिए आदिवासी समुदाय संघर्षरत था, बेहतर जीवन के लिए किसान और मजदूर संघर्षरत थे और वे एक-दूसरे के समानांतर चल रहे थे, कभी वे मुख्यधारा के राष्ट्रीय आंदोलन से मिलते थे लेकिन ज्यादातर उनका इससे टकराव ही था।

पहली बार संविधान सभा में वे एकसाथ आए। इस अर्थ में स्वतंत्रता संघर्ष की विभिन्न धाराओं के बीच संवाद का यह एक पड़ाव था। विचार की दृष्टि से केवल एक राजनीतिक संगठन का प्रतिनिधित्व इस सभा में नहीं था। इस संगठन ने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान सभी धाराओं से दूरी बना रखी थी। यह संगठन आज की राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ा है और भारतीय संविधान को अंगीकार करने के समय से ही उस पर निरंतर हमले कर रहा है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम के इस संगठन का एक तर्क तो यह है कि भारतीय संविधान में पश्चिम से आयातित विचारों के आधार पर प्रावधान किये गये हैं, इसकाहमारी भारतीयपरंपरा से कोई संबंध नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और नेता प्रायः मनुस्मृति कोहमारी अपनीस्वदेशी विधि संहिता के रूप में उद्धृत करते हैं।

इस आरोप का तीन स्तरों पर उत्तर देना जरूरी है।

पहली बात तो यह कि विचारों की दुनिया की कोई सीमा कभी नहीं रही है। उदाहरण के लिए, भारत में उपजा बुद्ध का विचार पूर्व व दक्षिण पूर्व एशिया में फैल गया। ईसाइयत एशिया से दुनिया के अन्य हिस्से में गया और आज यह यूरोप का मुख्य धर्म है। इस्लाम भी कई महाद्वीपों में फैला। युगों से मानव समाज अपनी जरूरत के अनुकूल विचारों को स्वीकार करता रहा है, चाहे उसका जन्म स्थान जो भी हो। इस बात को ऋग्वेद में भी स्वीकार किया गया है-आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः” (हमें सब ओर से कल्याणकारी विचार प्राप्त हों)। परंपरा में निश्चित रूप से विविध रंग हैं, जिसे अपने आपको परंपरावादी या परंपरापोषक कहनेवाले लोग नहीं समझते हैं।

दूसरी बात यह कि आखिर कौन सेविदेशीविचार हैं, जो संविधान विरोधियों के आक्रोश को उद्वेलित करते हैं। समय-समय पर इन लोगों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों से तीन ऐसी बातों को चिह्नित किया जा सकता है, जिस पर इन्हें सबसे ज्यादा एतराज है और जिसे येपश्चिमीमानते हैं। ये हैं- समानता का अधिकार, व्यक्ति की गरिमा व निजता को विधिक मान्यता, अभिव्यक्ति तथा आलोचना की स्वतंत्रता।
 आखिर किस सीमा तक ये विचारविदेशीहैं। वास्तव में इनमें से कुछ विचार तो हमारी परंपरा में मौजूद रहे हैं, खासतौर से बुद्ध के विचारों में। यह सच्चाई है कि बुद्ध ने जातिविभेद को जगह नहीं दी और अपने विहारों में स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति दी, जो वर्णाश्रम धर्म और मनुस्मृति में व्यक्त विचारों से एकदम अलग था। बुद्ध ने कहा-अप्प दीपो भवयानी अपना प्रकाश स्वयं बनो। इसका ध्येय यही है कि व्यक्ति अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं खोजे और अपनी राह चलते हुए दूसरों के संरक्षण से मुक्त हो।

इन्हीं बातों से बाबासाहब भीमराव आंबेडकर बुद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए और उन्होंने संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए भारतीय संविधान को बुद्ध से जोड़ा। जिन लोगों ने वी.डी. सावरकर और एम.एस. गोलवलकर को पढ़ा है और उनके हिंदू संबंधी विचारों से परिचित हैं, उन्हें बताने की जरूरत नहीं कि इन्हीं कारणों से वे बुद्ध धर्म को भी गाली देते हैं और उस पर हमला करते हैं।

 तीसरी बात यह कि समस्या विचारों के विदेशी मूल की नहीं, विचारों के साथ ही है। सवाल यह है कि इन विचारों से कौन डरता है? क्यों समानता, तर्कशीलता और स्वतंत्रता के विचार से कुछ लोगों को परेशानी होती है? बिलकुल सीधा सा उत्तर यह है कि ये विचार जाति और वर्ग के आधार पर शासन करनेवालों के साम्राज्य को हिला देते हैं। प्रभु वर्ग की सत्ता में कटौती किये बिना दमित वर्ग को न तो मुक्त किया जा सकता है, न उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। सत्ताधारी वर्ग के विशेषाधिकारों में कटौती करके ही समानता लायी जा सकती है।

यही कारण है कि गोलवलकर ने अपनी पुस्तकबंच ऑफ थाट्समें सर्वोच्च सत्ता ब्रह्म के स्तर पर ही समानता को स्वीकार किया है, जीव/आत्मा अथवा जीवन के विशेष रूप के लिएविविधता’ (गोलवलकर के लिए जिसका अर्थ वर्ण असमानता है) को ही नियम माना है। गोलवलकर लिखते हैं-

समानता केवल सर्वोच्च आत्मा के स्तर पर ही लागू है। लेकिन भौतिक भूमि पर यही आत्मा अपने आपको विविधता एवं विषमता के विस्मयकारी रूपों में व्यक्त करती है। (बंच ऑफ थाट्स,1966)

यह भी ध्यान देने की बात है कि संविधान प्रत्येक व्यक्ति को एक इकाई मानता है और इस आधुनिक सिद्धांत की स्थापना करता है कि व्यक्ति केवल अपने द्वारा किये गये कार्यों के लिए उत्तरदायी है। आपको अपने से संबंधित किसी व्यक्ति द्वारा किये गये किसी अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सकता, न ही समुदाय के नाम पर समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा किये गये अपराध पर दंडित किया जा सकता है। संविधान की यह दृष्टि नये भारत का प्रस्थान बिंदु है, यह इतिहास के कलह से छुटकारा दिला देती है। इसीलिए हमारा संविधान एक भविष्यदर्शी दस्तावेज है जो इतिहास के सभी हिंसक संघर्षों के अध्याय को बंद करता है, जबकि कुछ लोग वर्तमान में वर्षों पुराने भूत से निरंतर लड़ाई जारी रखना चाहते हैं।

वर्तमान सत्ता द्वारा संविधान पर हमला और उसे नष्ट करने की प्रक्रिया जारी है। यह प्रत्यक्ष रूप से बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्र की पक्षधर है और दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और महिलाओं पर हमला इसके चरित्र में है। ऐसी स्थिति में संविधान ही हमें प्रतिरोधी दिशा में चलने की ताकत देता है।

अँगरेजी से अनुवाद – संजय गौतम

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