— गोपेश्वर सिंह —
जिन राजनेताओं के व्याख्यान सुनकर उनकी भाषा-सजगता और शुद्धता से मैं प्रभावित हुआ, उनमें जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर और अटल बिहारी वाजपेयी का नाम मुझे अभी याद आ रहा है।
जेपी को मैं छोटी और विशाल दर्जनों जनसभाओं में सुन चुका हूँ। वे बिना किसी नाटकीयता के एक अच्छे अध्यापक की तरह बोलते थे। शुद्ध-संयमित भाषा में गंभीर राजनीतिक भाषण देते हुए उन्हें जब याद करता हूँ तो लगता ही नहीं कि इस देश में हमारे ही समय में ऐसे राजपुरुष थे! वे जब ग़लत, ख़बर, अख़बार आदि उर्दू शब्दों का प्रयोग करते तो नुक्ता लगाना न भूलते थे। एक बार पटना के गांधी मैदान में एक विशाल जनसभा को संबोधित कर रहे थे। बोलते हुए उनके मुँह से निकला कि ‘… वे रेड हैंडेड पकड़े गये।’ बोलने के बाद उन्हें लगा होगा कि रेड हैंडेड की हिंदी आनी चाहिए। उन्होंने सामने बैठे एक पत्रकार या श्रोता से पूछा कि रेड हैंडेड को हिंदी में क्या कहते हैं? उस सज्जन को शायद पता नहीं था। उन्होंने कहा- लाल हाथ। जेपी ने सभा को संबोधित किया- ‘ …और वे लाल हाथ पकड़े गये।‘
सभा में बैठे लोग हँस पड़े। जेपी ने पूछा कि क्या यह ग़लत है? तब सामने बैठे कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि ‘लाल हाथ नहीं, रँगे हाथ होता है।’
जेपी ने सभा में ही तुरंत उस सज्जन को डाँटते हुए कहा कि नहीं जानते हैं तो ग़लत क्यों बताया!
एक बार जेपी ने कहा था कि भाषा के प्रयोग में एक नेता को एक लेखक से अधिक सावधान होना चाहिए।
कर्पूरी ठाकुर शुद्ध देसी हिंदी बोलते थे। प्लेट फार्म को लाट फारम, स्टेशन को टिसन आदि कहते थे। उन पर राममनोहर लोहिया की भाषा का प्रभाव था। लेकिन जो बोलते शुद्ध और विचारपूर्ण होता था।
अटल बिहारी वाजपेयी तत्सम प्रधान शुद्ध हिंदी बोलते थे। उनके भाषण में वैचारिक गहराई कम होती थी, लेकिन उसमें हास्य-व्यंग्य का गहरा पुट होता था।
इन तीनों नेताओं को मैंने ध्यान से अनेक बार सुना है। मुझे कभी भी कोई भाषाई दोष उनमें नहीं मिला।
तीनों राजनीतिक मर्यादा का भी पालन करते थे। यद्यपि राजनीतिक दिशा अलग-अलग थी। क्या भाषा की मर्यादा आचरण की मर्यादा को भी नियंत्रित करती है?
भाषा की दृष्टि से आज की राजनीति पर नज़र डालता हूँ तो किसी भी नेता को निर्दोष कहने में मुझे संकोच है। आज के बड़े नेताओं में राहुल गांधी अपेक्षाकृत ठीक हिंदी बोलते हैं।
राजनीति में भाषा सजगता की कमी क्या आपको भी लगती है?