— मस्तराम कपूर —
चौबीस सितंबर, 1997 रात साढ़े नौ बजे के आसपास लाडली मोहन निगम वेस्टर्न कोर्ट की पहली मंजिल पर टीवी में प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल का भाषण सुनने गये। वहीं वे हृदयाघात से गिर गये और अस्पताल पहुँचते-पहुँचते उनकी जीवन लीला समाप्त हो गयी। कुछ देर पहले ही उनके पास दो-तीन समाजवादी मित्र बैठे थे और उनका लंबा इंटरव्यू लेने की योजना बन रही थी। शारीरिक व्याधि ने उन्हें लिखने में असमर्थ बना दिया था। बाँह की हड्डी ऐसी टूटी कि जुड़ने में नहीं आयी। ऊपर से हृदयरोग। अस्पताल में भी कुछ दिन रहे लेकिन पता चला वे अस्पताल में जल्दी से जल्दी छूट भागने के लिए बेचैन रहे। डॉ. राममनोहर लोहिया अस्पताल के साथ उनकी कई स्मृतियाँ जुड़ी हुई थीं शायद इसलिए भी वे अस्पताल के माहौल में सहज नहीं हो पाते थे। अस्पताल के नर्सिंग होम के साथ डॉ. लोहिया के अंतिम समय की यादें थीं और फिर ढाई साल पुरानी मधु लिमये के अंत समय की यादें भी।
8 जनवरी, 1995 को जब मधु लिमये नर्सिंग होम के उसी कमरे में दाखिल थे जिसमें डॉ. लोहिया को रखा गया था, तो लाडली जी को असाधारण रूप से व्याकुल देखकर मैं घबरा गया था। मधु जी उस समय सामान्य ढंग से बातें कर रहे थे हालांकि साँस लेने में उन्हें तकलीफ हो रही थी। इस तरह की तकलीफ से वे हर बार दमे का दौरा पड़ने पर गुजरते थे इसलिए हमें विश्वास था कि वे जल्दी ही ठीक हो जाएँगे। लेकिन लाडली जी के चेहरे को देखकर मैं डर गया। जब मधु जी को दूसरे कक्ष में ले जाया गया तब लाडली जी का हृदय फूट पड़ा, बोले- “अब कोई उम्मीद नहीं है।” मैंने कहा, “आप बहुत भावुक हो गये हैं, मधु जी को कुछ नहीं होगा।” लेकिन उन्हें पूरा विश्वास हो चुका था। कुछ घंटे बाद मधु जी चल बसे।
संभवतः इसीलिए वे राममनोहर लोहिया अस्पताल के नर्सिंग होम से अधिक आरामदेह स्वास्थ्यवर्द्धक वेस्टर्न कोर्ट के कमरा न. 7 को मानते थे। सोचते थे कि जिस प्रकार बाँह की टूटी हड्डी से उन्होंने समझौता कर लिया उसी तरह हृदय-रोग से भी कर लेंगे।
पिछले दिनों उन्हें दो आघात लगे थे। एक तो आसाम के लोहियावादी लेखक डॉ. वीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य (ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता) का निधन और दूसरा डॉ. धर्मवीर भारती का निधन। भारती की मृत्यु ने उन्हें विशेष रूप से हिला दिया था। भारती के साथ उनकी पुरानी मित्रता थी जो लेखक-संपादक संबंध से बहुत आगे की चीज थी। दो-तीन दिन तक वे बिल्कुल सन्न से रहे। भारती जी के पड़ोसी और मित्र गणेश मंत्री से मिलने के बाद शायद उनका यह दर्द और गहरा हो गया था। चंपा लिमये से उनकी जो बात हुई उससे पता चलता था कि इस घटना का उन्हें कितना सदमा लगा है।
पिछले सप्ताह दिल्ली के एक अखबार में उनका एक लेख छपा। उस लेख में एक अजीब दर्द व्यक्त हुआ था। राजनीति के वर्तमान प्रदूषित वातावरण और मूल्यहीनता के घने अंधकार में तिरोहित होते गांधी और लोहिया के सपनों की टीस और उस स्थिति में कुछ न कर पाने की विवशता, यह उस लेख का विषय था। उस लेख को पढ़ कर मेरा माथा ठनका। मधु जी ने भी गांधी पर अपना अंतिम लेख बहुत भावुक होकर लिखा था। धर्मयुग के लिए लाडली जी ने जब भी लिखा बहुत अच्छा लिखा। लेकिन एक अर्से से वे कुछ नहीं लिख रहे थे। प्रकाशन विभाग के लिए डॉ. लोहिया पर एक पुस्तक लिखने के लिए उनपर हम (उनके कुछ मित्र) कितनी बार जोर डाल चुके थे। बाँह की हड्डी टूटने के बाद तो उनका लिखना बिल्कुल ही बंद हो गया था।
समाजवादी आंदोलन और डॉ. लोहिया के साथ बिताये अंतरंग क्षणों के संस्मरण हम उनके मुँह से ही कभी-कभी सुनते थे। मेरे जैसे लोगों के लिए जिन्होंने डॉ. लोहिया को सिर्फ दूर से एक अजूबे के रूप में ही देखा, लाडली जी के साथ घंटा–आधा घंटा बिताना रहस्य-रोमांच की दुनिया में भ्रमण करने जैसा होता था। डॉ. लोहिया जीवन में पूरी तरह लिप्त होते हुए भी नितांत अकेले थे। लाडली जी का जीवन भी वैसा ही था। इसलिए दोनों के बीच कभी-कभी ऐसी अंतरंग बातें होती थीं जिन्हें वे शायद दूसरों के साथ नहीं बाँट सकते थे।
लाडली जी ने एक दिन इस अंतरंग बातचीत की झलक दी थी। डॉ. लोहिया ने लाडली जी को रेड लाइट क्षेत्र में जाने के लिए कहा। लाडली जी हक्का-बक्का रह गये। उन्होंने आदेश की-सी मुद्रा में फिर कहा ‘जाओ’। लाडली जी को जाना पड़ा। उनका अभिप्राय था कि समाज में औरत की वास्तविक स्थिति का तीव्र बोध इस क्षेत्र में जाए बिना नहीं हो सकता।
हम चाहते थे कि लाडली जी डॉ. लोहिया से जुड़े ऐसे अंतरंग संस्मरणों को लिपिबद्ध करें। अपनी लालित्यपूर्ण भाषा में यदि वे इन्हें लिखें तो यह लोहिया के जीवनीकारों के लिए बहुमूल्य सामग्री ही नहीं होगी, हिंदी साहित्य की धरोहर भी होगी। लेकिन लाडली जी लिखने में उत्तरोत्तर अक्षम होते गये।
न जाने क्या शक्ति थी डॉ. लोहिया में कि जिसके कंधे पर एक बार हाथ रख देते थे वह उनका दीवाना बन जाता था। लोहिया के इन ‘मजनुओं’ की संख्या काफी बड़ी है। कुछ राजनीति में रहे, कुछ राजनीति से बाहर। लेकिन वे जहाँ भी रहे, दीवानगी बनी रही। लाडली जी तो उनके निकट संपर्क में रहे। उनकी दीवानगी का आलम यह था कि विचारगोष्ठियों में भाषण करते-करते अक्सर विषय से भटक कर लोहिया की यादों में खो जाते थे और श्रोताओं को भी अपने साथ ले जाते थे।
लाडली जी की अंत्येष्टि में सम्मिलित लोगों को देख कर मन में बड़ी शिद्दत के साथ यह अहसास हुआ कि समाजवाद का युग तेजी से खत्म हो रहा है। दिल्ली के पुराने भूमिगत आंदोलन के अस्सी वर्षीय समाजवादी रूपनारायण ने तो भर्राये हुए गले से घोषणा ही कर दी कि अब वह युग बीत गया। अब वे दीवाने और पगले लोग नहीं रहे जो समाजवाद के नाम पर घर-परिवार, जिंदगी की सारी सुविधाएँ बेहिचक छोड़ देते थे।
और वहाँ लाडली जी के सभी मित्र उपस्थित थे भले ही वे उनके जीते-जी उनसे झगड़ते रहे हों। लाडली जी किसी को बख्शते तो थे नहीं। जार्ज फर्नांडिस, राजकुमार जैन, मुलायम सिंह यादव, चंद्रशेखर, मोहन सिंह, बृजभूषण तिवारी, उर्मिलेश, बेनीप्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मनीराम बागड़ी, किस पर खफा नहीं थे वे? युद्ध के मोर्चे पर रहा ब्रिगेडियर जब सेवा- निवृत्ति के बाद अकेलेपन से घिर जाता है तो उसके पास दूसरों को देने के लिए सिर्फ झुँझलाहट ही बचती है।
जार्ज फर्नांडिस जबसे लालू प्रसाद यादव के अहंकार को कुचलने के इरादे से भाजपा की तरफ झुके थे तब से वे लाडली जी के लिए अस्पृश्य बन गये थे। जार्ज अन्य समाजवादी साथियों से भी कट गये थे और यह बोध जार्ज को जरूर कचोटता होगा। विद्युत शवदाह गृह के हॉल में कोने की एक कुर्सी पर वे चुपचाप सिर झुकाये बैठे रहे। चंद्रशेखर के साथ तो अर्से से बोलचाल नहीं थी। लेकिन चंद्रशेखर थोड़ी देर पहले ही काठमांडू से दिल्ली पहुँचे और सीधे विद्युत शवदाह गृह की ओर भागे।। मुलायम सिंह पर लाडली मधु लिमये की अंत्येष्टि के समय बरस पड़े थे क्योंकि मुलायम सिंह ने अपने मुख्यमंत्री पद का इस्तेमाल करते हुए मधु जी को ‘फौजी विदाई’ देने का प्रबंध किया था। लेकिन मुलायम सिंह वेस्टर्न कोर्ट में सबसे पहले पहुँचने वाले लोगों में थे। राजकुमार जैन और लाडली जी के बीच तो कई बार झगड़ा हुआ और राजकुमार यूनिवर्सिटी के अपने सभी साथियों के साथ वहाँ मौजूद थे।
इस सारे दृश्य पर नजर डालकर डॉ. हरिदेव शर्मा (जो अब हमारे बीच नहीं हैं) ने एक बड़ी सार्थक टिप्पणी की। डॉ. शर्मा समाजवादियों के आपसी मनमुटावो और झगड़ों से भलीभाँति परिचित रहे हैं। वे भावुक होकर बोले : “ये समाजवादी भी अजीब लोग हैं। और किसी पार्टी में यह बात देखने को नहीं मिलेगी। वे आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे, एक जगह मिल कर नहीं रहेंगे। लेकिन उनमें से कोई चला जाता है तो उन्हें लगता है कि सगा भाई चला गया।” उनका सवाल मेरे दिमाग में काफी समय तक गूँजता रहता है। मुझे लगता है कि वह गर्भनाल के संबंध का ही चमत्कार है। अपने निर्माणात्मक वर्षों में जिन्हें समाजवाद की घुट्टी मिली उनके बीच एक माँ की संतान होने के संस्कार, प्रसुप्त रूप से ही सही, बने रहते हैं। आगे चलकर उनके रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं लेकिन ये संस्कार उन्हें अपने मूल उद्देश्य की ओर खींचते रहते हैं। समाजवादियों की इस मानसिकता का बहुत खूबसूरत चित्र मधु लिमये की आत्मकथा में मिलता है। (यह मराठी में छप चुकी है और हिंदी में भी)।
व्यक्ति-स्वातंत्र्य और सामूहिक निष्ठा के द्वंद्व के बीच ही समाजवादी आंदोलन का विकास हुआ था। झगड़े, मतभेद और बेहद प्यार, यह भीषण द्वंद्व समाजवाद के बड़े नेताओं में भी रहा। किंतु इसके बावजूद समाजवादी आंदोलन ने भारतीय राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। समय-समय पर यथास्थितिवाद की चट्टानों को तोड़ने का काम इसी आंदोलन ने किया है। लेकिन अब लगता है कि वह युग खत्म हो रहा है। पुराने पत्ते झरते जा रहे हैं। नयी कोंपलें फूटने के आसार नहीं दीख रहे हैं। लेकिन जब तक ओ हेनरी की कहानी का ‘आखिरी पत्ता’ बचा है तब तक नयी कोंपलों के फूटने की उम्मीद की जा सकती है।