विवेकानंद अपने समय के अनूठे व्यक्ति थे और साधुवेश में होने के कारण उनकी क्रांतिकारिता और सामाजिक परिवर्तन की उग्र दृष्टि नयी पीढ़ियों को कुछ कुछ ओझल ही हुई थी। कम ही लोगों ने उन्हें समग्र रूप से जाना समझा !
किसी बड़े व्यक्तित्व के नाम पर मठ, मंदिर, मूर्ति, आश्रम, पंथ, संप्रदाय जब बनने लगते हैं तो उसके सांस्थानिक रूप में कई तरह के स्वार्थ उभरने लगते हैं और विचार सदैव ही गौण हो जाया करता है।
यही स्वामी विवेकानंद के साथ भी हुआ लगता है। खैर इसपर लंबी चर्चा आज नहीं लेकिन यह तथ्य रेखांकित करना जरूरी है कि एक दीर्घकालिक रणनीति के तहत स्वामी जी के बारे में समाजवादियों, वामपंथियों, उदारपंथियों और हमेशा की तरह कांग्रेसियों की उदासीनता और नासमझी के कारण घोर सांप्रदायिक शक्तियों के पाले में स्वामी विवेकानंद रख दिये गये, मान लिये गये और उन संगठनों व ताकतों ने दोहन भी खूब किया पर एकांगी रूप व संदर्भविरत विचारों को प्रचारित कर!
श्रेष्ठ लेखक, विचारक, संविधान विशेषज्ञ श्री कनक तिवारी ने यह छोटी पुस्तकाकार पांडुलिपि मुझे भेजी तो तत्काल मैंने अनुरोध किया कि यह पुस्तक समाजवादी समागम के प्रकाशन विभाग द्वारा छापने की अनुमति दी जाए क्योंकि राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच भी स्वामी जी का समग्र विचार पुनर्उदघाटित होना चाहिए। कनक जी की उदार सहमति से इस तरह मैं इस पुस्तक का प्रकाशक बना।
छपते ही पहली कुछ प्रतियों को मैंने कुछ जाने-माने सोशलिस्टों को पढ़ने हेतु भेजा और कुछ ही घंटों में प्रो आनंद कुमार ने इसकी समीक्षा भी लिख दी। कल 12 जनवरी को पुस्तक का आभासीय लोकार्पण तय था पर कनक जी के स्वास्थ्य के कारण संभवतया दो चार दिनों बाद ही हो सकेगा।
नीरज पाठक को धन्यवाद कि कवर व पुस्तक का डिजायन निःशुल्क बनाया और जयंत तोमर को भी प्रूफ रीडिंग के लिए। इसी माह के अंत में पुस्तक कुछ बुकस्टोर्स पर उपलब्ध हो जाएगी जहॉं से इच्छुक लोग मंगा सकेंगे और इसी माध्यम से आप सबको सूचना भी।
– रमाशंकर सिंह
(उपर्युक्त सूचना फेसबुक वॉल से)