— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
कोरोना वैश्विक महामारी की तीसरी लहर के बीच देश के पाँच राज्यों की विधानसभा के चुनाव की घोषणा हो गयी है। इन पाँच राज्यों में देश का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश भी है जहाँ चुनाव आयोग ने सात चरणों में चुनाव का कार्यक्रम घोषित किया है। पिछले चुनाव में अप्रत्याशित रूप से भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल करके भारी बहुमत की सरकार का गठन किया था और उतने ही अप्रत्याशित ढंग से गोरखरपुर के भाजपा सांसद गेरुआ वस्त्रधारी महंत योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गये थे, और अब पाँच वर्ष बाद फिर से इस चुनाव में दुबारा मुख्यमंत्री बनने की कवायद में जी-जान से लगे हैं। चुनाव का परिणाम तो मार्च की 10 तारीख को जनता के सामने आएगा पर भारतीय राजनीति में मंत्रियों और विधायकों का अपने दल को छोड़कर दूसरे दल में जाने का राजनीतिक नाटक शुरू हो गया है।
खबर आयी है कि योगी सरकार के एक कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य सरकार और भाजपा से त्यागपत्र देकर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गये हैं, और उनके साथ चार अन्य भाजपा विधायकों के दल छोड़कर समाजवादी पार्टी में जाने की खबर आ रही है। यूँ तो चुनाव के पहले भारत में मंत्रियों, विधायकों या नेताओं का अपने दल को छोड़कर दूसरे दल में बेहतर भविष्य की तलाश में जाने की कोशिश कोई नयी बात नहीं, और ये स्वामी प्रसाद मौर्य वही हैं जो कभी बहुजन समाज पार्टी में मायावती का दाहिना हाथ हुआ करते थे और लंबे समय तक उनके साथ सत्ता में भागीदार रह चुके थे। पर 2016 में बसपा का दामन छोड़कर उन्होंने भाजपा की डोर थाम ली थी।
प्रश्न यह नहीं है कि स्वामी प्रसाद मौर्य तथा अन्य विधायकों का चुनाव के ठीक पहले भाजपा मंत्रिमंडल और दल से त्यागपत्र देने का योगी और भाजपा के चुनावी भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा और न इसका विश्लेषण करना इस लेख का उदेश्य है क्योंकि इसके पूर्व पंजाब में कांग्रेस के नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह को जब पार्टी ने मुख्यमंत्री पद से हटाया तो उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ कर न सिर्फ नयी पार्टी ‘पंजाब लोक कांग्रेस’ का गठन कर लिया बल्कि कांग्रेस के परम्परागत राजनीतिक प्रतिद्वंदी भाजपा के साथ चुनावी तालमेल कर लिया। मजे की बात यह थी कि कांग्रेस में अमरिंदर सिंह को हटाने का जो राजनीतिक खेल प्रारंभ हुआ था उसके पीछे भी जिस नेता का हाथ था यानी नवजोत सिंह सिद्धू, वह खुद कांग्रेस में भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर आए थे।
ऐसी स्थिति में एक दल में दूसरे दल से आए हुए नेताओं का बढ़ता महत्त्व और उसकी दलबदल की प्रवृत्ति की स्वीकृति उनकी स्वार्थ-केंद्रित राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने में सहायक सिद्ध हो रही है। इतना ही नहीं, इसके पूर्व पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के पूर्व तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों और विधायकों में दल छोड़ कर भाजपा में जाने की होड़ लग गयी थी और जैसे ही चुनाव में भाजपा को बहुमत मिलने का सपना चूर हुआ तथा ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भारी बहुमत से सरकार बचाने में कामयाब रही तो दल छोड़कर भाजपा में गये नेताओं की तृणमूल में ‘घरवापसी’ शुरू हो गयी।
यहाँ भारतीय राजनीति में विचारहीन, स्वार्थ-प्रेरित, सत्तालोलुप नेताओं के दलबदल का भारतीय राजनीति और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर इसके दुष्प्रभाव को समझने के साथ-साथ इस भ्रष्ट राजनीति का एक राजनीतिक समाधान ढूँढने की कोशिश है।
भ्रष्ट राजनीति को बढ़ावा
भारतीय राजनीति में यह जो आयाराम गयाराम की दल-बदल की राजनीति है उसके कारण विचारहीन तथा भ्रष्ट राजनीति को बल मिला है और समाज के ऐसे भ्रष्ट, अपराधी, जातिवादी तथा धनबलियों को चुनावी राजनीति को अपने लिए लाभकारी व्यवसाय बनाने का अवसर मिला है जो राजनीतिक दलों में अपने स्वार्थ के कारण प्रवेश करने से लेकर दलबदल तथा अपने को दौलत के लिए बेचने तक क्या क्या नहीं करते रहे हैं।
यद्यपि देश की संसद और विधानसभाओं में दलबदल को रोकने के लिए तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में दलबदल विरोधी 52वाँ संवैधानिक संशोधन 1985 में लाया गया था। इस कानून का मकसद यह था कि भारतीय राजनीति में अपने स्वार्थ के लिए दल बदलने वाले सांसदों और विधायकों को संसद और विधानसभा की सदस्यता से वंचित किया जाए ताकि दलबदल की राजनीति को रोका जा सके और जनता के द्वारा दल-विशेष के टिकट पर चुने गये प्रतिनिधियों को जनमत के साथ विश्वासघात करने से भी रोका जा सके।
संवैधानिक अधिनियम में जो प्रावधान किये गये थे उसकी कमियों को फायदा उठा कर छोटे-छोटे दलों के विधायकों और सांसदों ने समय-समय पर दलबदल भी किया और अपनी विधायिका की सदस्यता बचाने में भी सफल रहे फिर भी बड़े दलों से संसद और विधानसभाओं में दलबदल को रोकने में कुछ हद तक कामयाबी मिली। किंतु मूल चिंता का विषय राजनीतिक दलों से नेताओं का दलबदल कर दूसरे दलों में जाना और दूसरे दलों के द्वारा ऐसे दलबदलू नेताओं को दल में स्वीकार कर उन्हें प्राथमिकता देना, उन्हें पद और महत्त्व देना आदि का कोई निवारण नहीं हुआ।
इसका परिणाम यह होता है कि क्रमशः ऐसे दलबदलू तथा अवसरवादी नेताओं के लिए सत्ता के द्वार खुले रहते हैं और जनता में वे अपनी जाति, धर्म तथा धनबल और बाहुबल के प्रभाव से चुनाव जीत जाते हैं। परिणाम यह होता है कि सरकारें तो बदल जाती है किंतु लोग नहीं बदलते, राजनीति नहीं बदलती और वही भ्रष्ट तथा जनता के हितों से खिलवाड़ करनेवाले नेता बार-बार जनप्रतिनिधि बन जाते हैं।
आज देश में कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं, चाहे वो राष्ट्रीय दल हो या क्षेत्रीय दल, जो दूसरे दलों से दलबदल कर आनेवाले नेताओं को महत्त्व न देता हो। इसके विपरीत सच्चाई तो यह है कि अपने नेताओं से भी अधिक महत्त्व दलबदलू नेताओं को देते हैं।
कांग्रेस के माधवराव सिंधिया का कांग्रेस को छोड़कर अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल होना और राज्यसभा की सदस्यता लेकर मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री पद पा जाना दलबदल और अवसरवादिता की राजनीति को बढ़ावा देना नहीं तो और क्या था? इतना ही नहीं, दलबदल की राजनीति का एक नया तरीका भी विगत वर्षो में विकसित हुआ है जहाँ यह देखा गया कि विधानसभाओं से विधायकों को इस्तीफा दिलाकर सरकारों को गिराना और फिर से उन्हीं पैसे और स्वार्थ के कारण दल बदलने वाले नेताओं को चुनाव में टिकट देकर विधानसभा में भेजने की कोशिश आम राजनीतिक घटना होती जा रही है जिससे धीरे-धीरे राजनीति में नैतिकता का भारी
लोप हुआ है। वैसे भी भारतीय राजनीति में विचारधारा का तो कोई महत्त्व रहा नहीं लेकिन अब सामान्य सामाजिक और राजनीतिक नैतिकता भी नहीं बची। इसका घातक परिणाम यह है कि चुनावी राजनीति राजनीतिक दलों के ऐसे नेताओं का एक घिनौना खेल बनकर रह गयी है जहाँ सत्ता, शक्ति, पैसा और पद के लिए सब कुछ दाँव पर लगाया जाता है।
चुनाव सुधार और राजनीतिक जनचेतना
सवाल यह उठता है कि ऐसी राजनीति से कैसे परिवर्तन होगा? इसलिए समय आ चुका है कि राजनीति में इस प्रकार की नीतिहीन तथा अनैतिक राजनीति को खत्म करने की कोशिश को लोक समर्थन मिले और राजनीति को शुचितापूर्ण तथा लोकसेवा का कार्य फिर से बनाया जाए।
सवाल यह है कि राजनीतिज्ञों में सत्ता-लोलुपता की ऐसी बढ़ती प्रवृत्ति को कैसे खत्म किया जा सकता है? इसके लिए जहाँ एक ओर ऐसे चुनाव सुधार की आवश्यकता है जिसमें जो नेता ठीक चुनाव के पहले अपना दल त्याग करके दूसरे दलों में जाते हैं और चुनाव लड़ना चाहते हैं, उन्हें दलबदल कर गये दल से एक निश्चित काल तक चुनाव का टिकट नहीं दिया जाना चाहिए।
ज्ञात रहे कि पहले स्वामी प्रसाद मौर्य पाँच वर्ष तक भाजपा में रहकर सत्ता का सुख भोगते रहे और अब दूसरे दल से अपने लिए सुरक्षित राजनीतिक भविष्य तलाश रहे हैं।
इतना ही नहीं, भारतीय राजनीति में दलबदल का तरीका भी बदलता रहा है और राजनीतिक पार्टियाँ अपनी सत्ता की राजनीति करने के लिए दलबदलुओं को अलग अलग तरीके से लुभाते रही हैं।
भाजपा ने दलबदल के क्षेत्र में काफी योगदान दिया है जहाँ दलबदलू भ्रष्ट नेता पार्टी में आते ही ईमानदार नेता हो जाते हैं। इस क्रम में किसी सरकार को गिराने के लिए उसके दल के सदस्यों से विधानसभा से इस्तीफा दिलाया जाता है और बाद में विधानसभा से उन्हीं उम्मीदवारों को उस दल के द्वारा टिकट दे दिया जाता है ताकि उनकी जीत के बाद सरकार का गठन किया जा सके या सत्तारूढ़ पार्टी का बहुमत समाप्त हो जाने के बाद दलबदल करानेवाली पार्टी सत्ता में आ जाए। कर्नाटक और मध्यप्रदेश इसका उदाहरण है।
कर्नाटक में भाजपा ने जनता दल (एस) तथा कांग्रेस की कुमारस्वामी की बहुमत की गठबंधन सरकार तथा मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को इस प्रकार से गिराने में कामयाबी हासिल की थी और बीएस येदियुरप्पा तथा शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की सरकारें बनी थीं। महाराष्ट्र में भाजपा ने इस प्रकार की कोशिश की थी किंतु वहाँ कामयाबी नहीं मिली। राजस्थान में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार को दलबदल द्वारा गिराने का षड्यंत्र भी अंतत: विफल हो गया था।
प्रश्न यह उठता है कि इस राजनीति से लोकतंत्र कैसे मजबूत हो सकता है और जनता के हित कैसे सिद्ध हो सकते हैं? यदि एक व्यक्ति या व्यक्तियों का कोई समूह जो एक दल से दूसरे दल में चला जाता है तो उससे उस व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के राजनीतिक आचरण में कैसे परिवर्तन हो जाएगा और यदि आचरण में परिवर्तन नहीं होता है तो वह राजनीति में जनता के हित को ध्यान में रखकर कोई निर्णय कैसे करेगा?
ऐसी स्थिति में जनतंत्र को मजबूत और राजनीति को जनहितकारी बनाने की तमाम कोशिशें नाकाम हो जाती हैं और राजनीति भ्रष्ट तथा सत्ता के भूखे राजनीतिकों का अखाड़ा बनकर रह जाती है। यह घिनौनी सच्चाई सबके सामने अभी और तेजी से आएगी क्योंकि अभी उत्तर प्रदेश तथा अन्य राज्यों में जैसे-जैसे दलों के द्वारा चुनाव के टिकट बाँटे जाएँगे वैसे-वैसे बहुत सारे नेताओं के द्वारा दलबदल के नाटक देखे जाएँगे।
सवाल यह उठता है कि ऐसी राजनीति से लोकतंत्र कैसे मजबूत हो पाएगा, राजनीति में नैतिकता और विचार की महत्ता कितनी हो पाएगी और जनता के प्रति चुने हुए प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी कैसे सुनिश्चित हो पाएगी यदि राजनीतिक दलों के बीच ऐसे दलबदलू नेताओं का महत्त्व बढ़ता रहेगा? किस प्रकार के चुनाव सुधार तथा राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली में सुधार किये जाएँ ताकि राजनीतिक दलों के बीच इस प्रकार के दलबदलू को टिकट नहीं दिया जाए। सामान्यतः राजनीतिक दलों में लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली के अभाव के कारण दल पर हाईकमान का नियंत्रण होता है और हाईकमान द्वारा अकसर दल में लगातार कार्य करनेवाले कार्यकर्ता का हक मारकर चुनावी गणित के कारण दलबदल कर पार्टी में आनेवाले नेताओं को टिकट दे दिया जाता है।
अभी पंजाब में अमरिंदर सिंह हटाये गये थे और उनकी जगह एक अन्य कांग्रेसी नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन साफ दिख रहा है कि भाजपा की राजनीति वर्षों करनेवाले और आम आदमी पार्टी में भी अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश करनेवाले नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्री पद का सपना सँजोये हुए हैं। ऐसे राजनीतिक दलों की कमी नहीं, जो दल के अंदर कार्य करनेवाले नेताओं को नजरअंदाज कर राज्यसभा में दलबदलू और धन्नासेठों को टिकट भी देते हैं और जिताकर भेजते हैं। इससे पार्टी के कार्यकर्ता या नेता की अपनी पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता में कमी आने लगती है और पार्टी के बजाय अपने निजी राजनीतिक हितों के प्रति लगाव बढ़ता है और समय आने पर दलबदल उन्हें अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने का माध्यम दिखाई देता है। और तो और, जनतंत्र में भी उनका विश्वास कम हो जाता है।
दलबदलुओं को टिकट मिलने से निश्चित रूप से जनता में भी भ्रम रहता है कि कौन सा नेता किस दल से चुनाव लड़ सकता है और तब जनता उम्मीदवारों की व्यक्तिगत छवि को ध्यान में रखकर मतदान भी नहीं करती है।
ऐसी स्थिति में कई बार ऐसे लोग जो पहले किसी और दल से चुनाव जीत कर आए होते हैं फिर दलबदल करके दूसरे दल में आ जाते हैं और फिर से चुनाव में मैदान में होते हैं और चुनाव भी जीत जाते हैं तो इसके चलते भारतीय लोकतंत्र एक मजाक बनकर रह गया है।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिरकार इस राजनीति का परिणाम क्या निकलेगा? दलबदल को प्राथमिकता देनेवाली राजनीति से राष्ट्रनिर्माण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? इन सवालों का उत्तर ढूँढ़ना भारतीय लोकतंत्र में आसान नहीं है क्योंकि जिस तेजी से राजनीति में गिरावट आयी है उससे ऐसी स्थिति में इस गिरावट को रोक पाने का एक तरीका महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सुधार हो सकता है। लेकिन सुधार कौन करेगा? चुनावी खेल और दलबदल की राजनीति में जनतंत्र का दम घुटने लगा है क्योंकि जनता के हितों के लिए बननेवाली सरकार और जनता के विकास और उत्थान के लिए कार्य करने की बात बेमानी लगती है जहाँ लोग अपने स्वार्थ के लिए दल बदलते हैं और राजनीति करते हैं।
75 साल देश की आजादी के हो गये और आजादी के बाद खास करके पिछली शताब्दी के 70 और 80 के दशक के बाद राजनीति में तेजी गिरावट आयी। इस गिरावट के कारण लोकतंत्र (जनता के हित के लिए कार्य करनेवाली प्रणाली) राजनीतिक दलों की भ्रष्ट राजनीति के कारण अपने आप में सवालों के घेरे में आ गया है।
ऐसी स्थिति में चाहे राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय दल, जब तक उन्हें दलबदलू नेताओं को टिकट देने से रोक नहीं दिया जाएगा तब तक इस राजनीतिक बीमारी को रोक पाना आसान नहीं। चुनाव आयोग के द्वारा इस प्रकार के सुधारों को किया जा सकता है किंतु इसके लिए आवश्यक संवैधानिक संशोधन तथा जन प्रतिनिधित्व कानून में परिवर्तन आवश्यक है।
यदि राजनीतिक दल लोकतंत्र की आवश्यकता हैं और वे चुनाव के माध्यम से जनसमर्थन प्राप्त कर सत्ता प्राप्त करें या विपक्ष में रहें किंतु अपने पार्टी के घोषणापत्र और नीतियों के अनुरूप सत्ता को पाना या सत्ता में बने रहने की कोशिश लोकतांत्रिक है और सत्ता, समाज या खासकर जनता के जीवन में परिवर्तन और उन्हें प्रगति और विकास के अवसर प्रदान करना है, अधिक रोजगार पैदा करना है या समाज के वंचितों को अधिकार देना है,आदिवासियों और अल्पसंख्यक के हितों की रक्षा करना है, स्त्रियों की समानता को आगे बढ़ाना है, शिक्षा और नौकरी में उनकी भागीदारी को बढ़ाना है तो निश्चित रूप से राजनीतिक दलों के अपने अंदर भी सुधार की आवश्यकता है। इस दिशा में जनता की राजनीतिक चेतना दलबदलुओं के लिए राजनीतिक दलों के आमंत्रण को नियंत्रित करने में कारगर सिद्ध हो सकती है। क्योंकि चुनाव में आयाराम गयाराम को जनता सबक सिखा कर राजनीतिक दलों को खुला संदेश दे सकती है।