— आनंद कुमार —
भारत के ताजा इतिहास में 19वीं सदी के उत्तरार्ध को तीन कारणों से विशेष महत्त्व दिया जाता है – 1857-’60 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम; 1860 में ईस्ट इंडिया कम्पनी से ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया द्वारा भारत के शासन को अपने हाथों में ले लेना; और नये भारत की त्रिमूर्ति स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी और गुरुदेव टैगोर का सार्वजनिक जीवन में प्रकाशमान होना। लेकिन यह बहुत बड़ी विडंबना है कि इनमें से भारतीय राष्ट्रीयता और समाजवाद के प्रथम पथ-प्रदर्शक स्वामी विवेकानंद के बारे में आज सबसे जादा भ्रांतियाँ और अज्ञान है। जबकि यदि विवेकानंद के योगदान को इतिहास की पुस्तकों से मिटा दिया जाए तो बीसवीं सदी का भारतीय इतिहास उस बुनियाद के बिना भरभरा कर गिर जाएगा। क्योंकि विवेकानंद अपने देश और समय के मेरुदंड थे (देखें : कनक तिवारी (2022) विवेकानंद – धर्म में मनुष्य या मनुष्य में धर्म (नयी दिल्ली, समाजवादी समागम प्रकाशन विभाग, पृष्ठ 6)।
ऐसा क्यों हुआ है? क्योंकि स्वामी विवेकानंद के साधुवेश के कारण जहाँ अधिकांश वामपंथी, लोकतांत्रिक समाजवादी व आधुनिक उदारपंथी उदासीन रहे और अपनी स्वाभाविक ज्ञान-जिज्ञासा के विपरीत स्वामीजी के विचारों पर अध्ययनशील नहीं रहे वहीं कट्टरपंथी साम्प्रदायिक तत्त्वों ने संदर्भहीन बातों को काट-छाँट कर अपने रंग-ढंग के अनुकूल बनाकर एकांगी प्रस्तुतियों से अपना उल्लू सीधा किया…(जबकि) विभिन्न धर्मों यथा इस्लाम व वेदांत के सद्गुणों के सम्मिश्रण का शोषणविहीन, अनूठा, शक्तिशाली, संपन्न भारत स्वामीजी का सपना था…(रमाशंकर सिंह – वही, पृष्ठ 7)।
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में युवकों के आदर्श और भारतीय अस्मिता को राष्ट्रीय और वैश्विक पहचान दिलानेवाले स्वामी विवेकानंद के बारे में विश्वविद्यालयों और शोध प्रतिष्ठानों में एक चुप्पी रही है। जबकि लोकमान्य तिलक और महर्षि अरविन्द से लेकर गांधी और नेहरू तक उनसे प्रभावित हुए थे। नेताजी सुभाष के शब्दों में वह पूर्व और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान के बीच सेतु थे। उन्होंने भारत के आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास और आत्माभिव्यक्ति को प्रतिबिंबित किया। गुरुदेव टैगोर का मानना था कि विवेकानंद को समझना मतलब भारत को जानना है। राजगोपालाचारी की दृष्टि में स्वामी विवेकानंद भारत की आध्यात्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता के जनक थे। इसलिए उनके 159वें जन्मदिवस पर समाजवादी समागम की ओर से वरिष्ठ विचारक और विधिवेत्ता श्री कनक तिवारी की पुस्तक की प्रस्तुति इस कमी को दूर करने का एक महत्त्वपूर्ण कदम है। 120 पृष्ठों की इस आकर्षक किताब में विवेकानंद के विचार और कृतित्व के साथ ही कुछ असुविधाजनक सवालों और इक्कीसवीं सदी के सरोकारों को भी महत्त्व दिया गया है। इसमें अँग्रेजी में बीस पृष्ठों में फैले 46 विचारणीय बिन्दुओं को अँग्रेजी आलेख के रूप में जगह देकर इसे द्वीभाषी पाठकों के लिए जादा उपयोगी कर दिया गया है।
विवेकानंद की प्रचलित छबि हिन्दू स्वामी की है लेकिन यह किताब इससे अलग हटकर उनको भारत के पुनर्निर्माण के लिए प्रतिबद्ध एक धर्म वैज्ञानिक के रूप में परिचित कराती है। उन्होने ‘मानव धर्म’ की दिशा में बढ़ने के लिए भारतीय परम्पराओं में युग-अनुकूल परिवर्तन करने पर बल दिया। स्वयं समुद्र-यात्रा की। पुरोहितवर्ग के विरोध का मुकाबला किया। गरीबों की सेवा को देशभक्ति की पहली कसौटी बनाया। सर्वहारा वर्ग और युवकों को भारत का भाग्यविधाता बताते हुए ब्रिटिश राज के प्रति समर्पित वर्गों को चुनौती दी।‘म्लेच्छ के हाथों’ भोजन ग्रहण किया। ‘अस्पृश्य जातियों’ के उत्थान का बीड़ा उठाया। दुनिया में भारत की ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा प्रचारित ‘ रूधि-पीड़ित अंधकारग्रस्त समाज’ के मुकाबले ‘समावेशी सनातन संस्कृति’ का विकल्प प्रस्तुत किया। अद्वैत दर्शन की आध्यात्मिकता और समाजवाद की अर्थव्यवस्था के समन्वय पर आधारित ‘वेदांती समाजवाद’ का प्रतिपादन किया। छुआछूत को ‘शैतानी आचरण’ और इससे संचालित समाज को नरक तुल्य बताने का साहस दिखाया। धार्मिक सद्भाव का प्रतिपादन करते हुए हिन्दुओं को आध्यात्मिक एकता और सामाजिक भेदभाव के अन्तर्विरोध को समाप्त करने के लिए वेदांती चिन्तन और इस्लामी समाज-व्यवस्था को सांस्कृतिक नव-निर्माण का आधार बनाने की सीख दी।
इसीलिए यह स्वीकारा गया है कि विवेकानंद ने उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में कोलम्बो से अल्मोड़ा तक पूरे भारत का उद्बोधन करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की नींव रखी और ‘वेदांती समाजवाद’ का प्रतिपादन किया। इससे बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में राजनीतिक राष्ट्रीयता का विकास, समाजवाद का प्रचार और पूर्ण स्वराज का संकल्प संभव हुआ। इसके लिए देश-काल की सीमाओं के कारण राजनीतिक उपायों के बजाय शिक्षा को सर्व-सुलभ बनाने पर जोर दिया और आध्यात्मिक चेतना निर्माण और समाज सेवा के मार्ग को अपनाया।
भारतीय नव-जागरण के सूर्य के रूप में उदित विवेकानंद के लिए आदि शंकराचार्य शिक्षा-गुरु और रामकृष्ण परमहंस दीक्षा-गुरु थे। उनकी दृष्टि में उन्नीसवीं सदी का भारत भिखारी, अकर्मण्य उच्चवर्ग, और लाचार स्त्रियों से पहचनान जाता है और यह स्थिति बदलनी चाहिए। क्योंकि भारतीय समाज का सर्जक सुविधाभोगी उच्चवर्ग और बुद्धिजीवी की बजाय अनगिनत श्रमजीवी स्त्री-पुरुष हैं। दरिद्रनारायण की सेवा और छुआछूत से मुक्ति को धर्म की जिम्मेदारी बनानी चाहिए। इन्हें धर्म से पहले रोटी की जरूरत है। इसके लिए धर्म को संकीर्णताओं जैसे खान-पान के बंधनों से छुड़ाना चाहिए। आध्यात्मिक लोकतंत्र स्थापित करना चाहिए।
विवेकानंद का समग्र परिचय कराने के लिए प्रस्तुत कनक तिवारी की इस नयी किताब का मूल पाठ निम्नलिखित 9 हिस्सों में संगठित किया गया है – 1. शिकागो में विश्व धर्म संसद (1893), 2. जातिप्रथा के प्रति दृष्टि, 3. मार्क्सवाद और समाजवाद, 4. ‘मत-छूओ वाद’ और शूद्र राज्य, 5. इस्लाम के लिए उदारता, 6. शिक्षा की प्राथमिकता, 7. राजनीतिक तेजस्विता और क्रांतिकारिता, 8. विवेकानंद और गांधी, और 9. इतिहास-दृष्टि। भूपेन्द्रनाथ दत्त, जवाहरलाल नेहरू, देउस्कर, एम.एन. रॉय, एल. बाशम, राधाकृष्णन, तपनराय चौधरी, के. दामोदरन, रामधारीसिंह दिनकर, हिरेन मुखर्जी, राजा रमन्ना आदि के उद्धरणों से सुसज्जित इस हिस्से में विवेकानंद के चिंतन का गहरा परिचय मिलता है।
इसके बाद 31 बिन्दुओं वाला एक रोचक अध्याय है – ‘कुछ असुविधाजनक सवाल’। इसे पढ़ना विवेकानंद के चिंतन और सपनों के साथ की गयी बौद्धिक छेड़-छाड़ के बारे में आँखें खोल देता है। प्रभा दीक्षित (‘गैर-हिन्दुओं की उपेक्षा’ और ‘गोलवलकर के ‘विचार नवनीत’ से निकटता’ ), कंवल भारती (‘हिन्दू सहिष्णुता का असत्य’), ब्रजरंजन मणि (‘ब्राह्मनाइज़िन्ग हिस्ट्री’), जावेद आलम (‘इस्लाम का अवमूल्यन’) और अरुण शौरी (इस्लाम विरोधी) के लेखन का सारांश प्रस्तुत करके इन विद्वानों द्वारा विवेकानंद के चिन्तन के दोषपूर्ण उद्धरणों और उदाहरणों के आधार पर मनमानी बातें आरोपित करने की बीमारी को पेश किया गया है। इस हिस्से में यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विदेशी राज के खिलाफ क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत को आजादी के बाद वामपंथियों की उदासीनता के कारण सर्वसमावेशी संस्कृति के प्रतीक का साम्प्रदायिकता की राजनीति द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है।
किताब का तीसरा हिस्सा ‘विवेकानंद की इक्कीसवीं सदी’ आज के 18 प्रसंगों को आठ पृष्ठों में रेखांकित करता है। यह इस किताब का सबसे छोटा और कमजोर अंश है। फिर भी यह महत्त्वपूर्ण है कि इस विचारोत्तेजक हिस्से के अंतिम पैराग्राफ में स्पष्ट अनुरोध है कि विवेकानंद को केवल श्रद्धा का विषय नहीं बनाना चाहिए। श्रद्धा श्राद्ध में तब्दील हो जाती है। उनकी बातों की तफसील में जाने की जरूरत है। विवेकानंद की याद में शर्मसार होने का भी यह वक्त है क्योंकि देश के नेता केवल भाषण देते हैं और खुद आडंबर में घूमते रहते हैं। देश विवेकानंद के रास्ते पर नहीं चल सका है। इस किताब की मूल स्थापना में यह बात प्रमुख है कि देश के समाज-वैज्ञानिकों ने विवेकानंद के बारे में अपने को अज्ञानी बनाये रखने का और वामपंथियों ने उदासीन रखने का अपराध किया है।