— मदन मोहन वर्मा —
गांधीजी को लेकर आज कुछ लोगों में अजीब तरह के दर्द व्याप्त है! किसी को लगता है कि गांधीजी ने भगतसिंह को फाँसी से नहीं बचाया। कोई कहता है कि गांधीजी ने देश का बँटवारा कर दिया, कोई कहता है कि गाँधीजी ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया, हिन्दू कहता है कि गांधीजी मुसलमानों का पक्ष लेते थे, मुसलमान कहता है कि गांधीजी हिन्दुओं का पक्ष लेते थे, दलित कहता है कि गांधीजी सवर्णों का पक्ष लेते थे, सवर्ण कहता है कि गांधीजी दलितों का पक्ष लेते थे। कोई कहता है, गांधी का मतलब कांग्रेसी है तो कोई कहता है, मजबूरी का नाम गांधी है।
आप इतिहास उठाकर देखिए, बांग्लादेश और बंगाल की सीमा पर उस वक्त गांधी अकेले थे, जब नोआखाली में दंगा हुआ। इसी तरह जब दिल्ली में दंगे हुए तो वहाँ भी गांधी ने ही दंगा शांत कराया। आखिर इन दंगों में कौन बचा? हिन्दू और मुसलमान दोनों ही तो बचे! और चमत्कार देखिए, गांधीजी की हत्या होते ही सारे दंगे शांत हो गये। अपनी जान देकर उन्होंने जीवन भर पाली अपनी अहिंसा की तपस्या का मोल चुकाया, लेकिन उन्होंने जिनका जीवन बचाया, वे कौन लोग थे? क्या वे सारे इंसान नहीं थे? क्या सभी इसी देश के नागरिक नहीं थे?
राष्ट्रवाद के नशे में पागल हो रही पीढ़ियाँ इस सत्य को स्वीकार करने का साहस कब जुटाएँगी कि केवल क्रांति के बलबूते अगर इस देश को आजादी मिलती तो यह देश खंड-खंड बँटा होता। एक गांधी ही थे, जिन्होंने पूरे देश को एक सूत्र में, एक आंदोलन में बाँधा। गांधी के अलावा देश के लिए आखिर लड़ कौन रहा था? रजवाड़े अँग्रेजों से अपनी रियासतें माँग रहे थे, नवाब अँग्रेजों से अपनी सल्तनतें माँग रहे थे। सारे तो देश का विभाजन ही माँग रहे थे, केवल गांधी ही तो थे, जो एक देश और देश की एका की बात कर रहे थे।
एक बात और समझने की जरूरत है, जब देश में किसी को तोपों से लैस फिरंगियों से लड़ने का तरीका नहीं मालूम था, तब पूरा देश गांधी के पीछे खड़ा था। लेकिन ज्यों ही आजादी की सुगंध महसूस हुई, गांधी को सुननेवाला कोई नहीं बचा, गांधी पीछे छूट गये। विभाजन की बात असहयोग आंदोलन से शुरू होती है, देश के बँटवारे की नींव उसी समय पड़ी। मुसलमान अपने आपको थोड़ा उपेक्षित महसूस करने लगे थे। नोआखाली में दंगा हुआ, तो कलकत्ता के हिन्दुओं को लगा कि पूरा कलकत्ता बांग्लादेश में चला जाएगा, वहाँ से बंगाल को बाँटने की आवाजें उठीं, यही हाल पंजाब में हुआ, वहाँ सिख बाँटने की बातें करने लगे। जहाँ तक देश की एकता की बात है, वह तो केवल गांधी कर रहे थे और अकेले कर रहे थे।
बहुतों को दर्द है कि गांधीजी ने मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं जाने दिया। उन्हें यह जानना चाहिए कि देश के बँटवारे की शर्तों में ऐसा कोई क्लाज (प्रावधान) नहीं था कि भारत के मुसलमान पाकिस्तान चले जाएंगे और पाकिस्तान के हिन्दू भारत आ जाएंगे। लोगों को विस्थापन केवल इसलिए झेलना पड़ा कि हालात बहुत खराब थे। जहाँ उपद्रव होता है, वहाँ कौन रहना चाहता है आखिर! शांति की खोज सबको होती है। वह ऐतिहासिक विस्थापन भी इसी शांति की खोज में हुआ, यह इतिहास है। गांधी ने कहा था कि भारत से पाकिस्तान जानेवाले और पाकिस्तान से भारत आनेवाले सभी को मैं उनके मूल स्थान पर वापस भेजूँगा। यह उनकी महानता थी। लेकिन हमने क्या किया? हमने उन्हें आजाद भारत में छह महीने भी नहीं जीने दिया।
दलित कहते हैं कि गांधीजी सवर्णों का पक्ष लेते थे। वे यह क्यों भूल जाते हैं कि अगर गांधी जी न होते तो बाबासाहब को संविधान सभा में कौन ले जाता? उन्होंने दलित समाज के उत्थान के लिए जो और जितना किया, उतना करनेवाला दूसरा कौन था? यह गांधीजी ही कर सकते थे कि एकसाथ वे दलितों से भी प्रेम कर रहे थे और सवर्णों से भी प्रेम कर रहे थे।
आज इस देश में लगभग 26 करोड़ दलित हैं। इन्हीं दलितों में से कुछ सिख बन गये, कुछ ईसाई बन गये। सब अलग होते जा रहे हैं। आप अपने ही समाज को उपेक्षित रखेंगे तो कैसा समाज बनाएंगे? यह भ्रम है कि गांधीजी हिन्दू या मुसलमान का पक्ष लेते थे, दलित या सवर्ण का पक्ष लेते थे। वे तो सभी के थे। मानवता का जो प्रकाश पुंज है, गांधीजी उसके उपासक थे।
कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने सरदार पटेल का पक्ष नहीं लिया, जवाहरलाल प्रधानमंत्री बन गये। वे तो शुरू से कह रहे थे कि मेरे न रहने पर मेरी भाषा जवाहर ही बोलेगा। वे अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते थे और वैसा ही व्यवहार करते थे।
भगतसिंह ने असेम्बली में बम फेंका। इतिहास में उन लोगों के नाम दर्ज हैं, जो बाद में सरकारी गवाह बन गये, पर असली गद्दारों का नाम लेने में गांधी विरोधियों की जुबान काँपती है। गांधी तो कहते थे कि मैं किसी को भी फाँसी देने के खिलाफ हूँ। भगतसिंह तो बड़े क्रांतिकारी और देशभक्त हैं, उनकी फाँसी का सपोर्ट मैं कैसे कर सकता हूँ। उन्होंने वाइसराय को पत्र लिखकर कहा कि अगर भगतसिंह की फाँसी आजीवन कारावास में भी बदल जाय तो देश में सद्भावना फैलाने में सहूलियत होगी। लेकिन अँग्रेज नहीं माने, भगतसिंह खुद भी अपना बचाव किये जाने के खिलाफ थे। क्या गांधी से ही सब कुछ की उम्मीद की जाएगी?
कुछ लोग तो गांधी को राष्ट्रपिता कहे जाने से ही परेशान हैं। उस समय सुभाष चंद्र बोस आदि सभी गांधी को अपना नायक मानते थे। यह बात तो उन लोगों से ही पूछी जानी चाहिए थी कि उन्होंने क्यों उन्हें राष्ट्रपिता बना दिया। सुभाष चंद्र बोस और गांधीजी में पिता-पुत्र का संबंध था। जब सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज बनाया, तो उसकी पहली ब्रिगेड का नाम ही गांधी ब्रिगेड रखा। उन्होंने पहले गांधीजी के चित्र पर फूल-माला चढ़ायी, फिर राष्ट्र के नाम संबोधन किया। हर देश अपने नायक को राष्ट्रपिता की उपाधि देता है। गांधीजी ने तो बार-बार कहा कि हमें राष्ट्रपिता मत कहो, हमें महात्मा भी मत कहो। लेकिन लोगों का उनके प्रति प्रेम था, स्नेह था,श्रद्धा थी, इसलिए यह उपाधि उन्हें दी गयी। जिन्हें राष्ट्रपिता शब्द से दर्द होता है क्या वे बताएंगे कि राष्ट्रपति, राजमाता, सभापति, कुलपति, उपकुलपति आदि शब्दों से उन्हें दर्द क्यों नहीं होता?
विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ अपने राष्ट्रपिता के विरोध में भी बोला जाता है। यह शर्म की बात है कि गांधी की आलोचना करने में लोग बौद्धिकता समझते हैं। गांधी गर्व के विषय हैं, शर्म के विषय नहीं हैं। गांधी के बारे में जो भ्रांतियाँ फैलायी गयी हैं, वास्तव में वे इन भ्रांतियों से बहुत दूर थे। हमने गांधी का पक्ष ही नहीं जाना। कुछ लोग गांधीजी के उज्ज्वल पक्ष को हमेशा काला बनाने में लगे रहते हैं। निश्चित रूप से यह निन्दनीय है। इस तरह समाज फिर सौ साल पीछे चला जाएगा।
चंपारण आंदोलन, खेड़ा आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक आंदोलन, गोलमेज सम्मेलन, भारत छोड़ो आंदोलन, आजाद हिन्द फौज, संविधान सभा, गांधी विरोधियों को ये शब्द रटने चाहिए और अपनी भूमिका को भी परखना चाहिए। स्वर्ग और नर्क का अंतर दिखेगा। स्वर्ग और नर्क शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि गांधी की भूमिका सकारात्मक थी और उनके विरोधियों की भूमिका तब भी नकारात्मक थी, आज भी नकारात्मक है।
गांधी के सपनों का भारत ही असली भारत है, उसी में भारत का उज्ज्वल भविष्य है। इसी के लिए हमें प्रयास करना है। इसलिए हर भले आदमी से, बल्कि बुरे आदमी से और ज्यादा निवेदन है कि गांधी के दर्द को पहचानिए, गांधी को समझिए। धर्म का दर्द लिये कुछ लोग ऐसे घूम रहे हैं कि क्या कहा जा सकता है! लगता है जैसे वे लोग किसी अपराध-बोध से ग्रस्त हैं। गांधी किसी धर्म के नहीं थे, वे तो पूर्णतः निष्कपट होकर जिये। पूरे विश्व के इतिहास में ऐसा निष्कपट कोई दूसरा व्यक्ति नहीं होगा। हमें गांधी के बारे में फैलाये जा रहे भ्रमजाल से बाहर निकलना पड़ेगा। गांधी को पढ़िए, उन्हें समझिए, भ्रम मिटेंगे और दर्द से मुक्ति मिलेगी। दर्द में रहने से दर्द में ही मिट जाना पड़ेगा। अपने अंदर अच्छे विचार लाना होगा, यही गांधी का रामराज्य होगा।