हमें फ़ख्र है कि हमने उस महामानव से बात की है

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ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान (6 फरवरी 1890 - 20 जनवरी 1988)

— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —

हात्‍मा गांधी के हमसफ़र-अनुयायी, आज़ादी की जंग के महान योद्धा ख़ान अब्‍दुल ग़फ्फार ख़ान, जिन्‍हें ‘बादशाह ख़ान’, ‘सरहदी गांधी’ तथा ‘बच्‍चा खां’ के नाम से भी जाना जाता है, महात्‍मा गांधी की जन्‍मशताब्‍दी के अवसर पर 1969 में भारत सरकार ने उन्‍हें पेशावर (पाकिस्‍तान) से हिंदुस्‍तान बुलवाया हुआ था। उनकी अगवानी करने के लिए हवाई अड्डे पर जयप्रकाश नारायण तथा इन्दिरा गांधी गये थे। दिल्‍ली के शहरियों की ओर से दिल्‍ली नगर निगम ने उनका सार्वजनिक अभिनंदन आयोजित किया था। जलसे में ज़बरदस्‍त हाजि़री थी, मैं भी उसमें शामिल था। दिल्‍ली के मेयर लाला हंसराज गुप्‍ता ने  उनका स्‍वागत करते हुए 80 लाख रुपये की थैली उनको भेंट की थी, मगर उन्‍होंने यह कहकर वापिस लौटा दी कि इसे किसी नेक काम में इस्‍तेमाल कर लिया जाए।

बादशाह ख़ान और जयप्रकाश नारायण चर्चा करते हुए

अगले दिन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. सरूपसिंह जो एक वक्‍त दिल्‍ली की सोशलिस्‍ट पार्टी के सेक्रेटरी रह चुके थे तथा जयप्रकाश नारायण, डॉ.राममनोहर लोहिया के बहुत नज़दीकी थे, ने मुझे बुलाकर इत्तला दी कि बादशाह ख़ान कुछ घंटों के लिए दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में आए हुए हैं तथा वाइसचांसलर के स्‍थायी बँगले में टिके हुए हैं, तुम लोग जाओ और उनके दर्शन करके आओ। मैं, रमाशंकर सिंह (भूतपूर्व मंत्री, मध्‍यप्रदेश सरकार) तथा एक-दो अन्‍य साथी हम कुलपति के बँगले पर पहुँच गए। हमने देखा कि भीमकाय, कृशकाया, मलेशिया के सादे कपड़े की पठानी पोशाक, लंबी कमीज और सलवार पहने सफे़द दाढ़ी का इंसान फर्श पर सिर के नीचे पोटली रखकर लेटा हुआ है।

पहले तो कुछ सूझा नहीं, समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या सचमुच में ये वही इंसान है जो आज़ादी की लड़ाई में गांधी के साथ हर फ़ोटो में फौलाद की तरह खड़ा देखने को मिलता है। पहुँचते ही बिना पल गँवाए अपने दोनों हाथ उनके चरणों में स्‍पर्श करने के लिए बढ़ा दिए। लेटे हुए बादशाह खान उठ बैठे और हाथ से इशारा करके हमें मना किया। मेरी ज़बान पर लगभग ताला सा लग गया था। क्‍योंकि मॉडर्न इण्डियन हिस्‍ट्री का विद्यार्थी होने के नाते मैंने उस महानायक का इतिहास पढ़ा था। 15 साल अँग्रेज़ी सल्‍तनत तथा 15 साल पाकिस्‍तान की फौजी हुकूमत ने उन्‍हें जेल के सींखचों में जकड़कर रखा था, वो इंसान फर्श पर लेटा हुआ सफर के अपने सारे साजो-सामान की एक पोटली बनाकर सिर के नीचे तकिये की तरह इस्‍तेमाल कर रहा था, तो मैं कैसे बात करने की हिम्‍मत जुटा पाता। डबडबायी आँखों से उस महामानव को केवल देखने भर का साहस ही जुटा पाया।

किसी तरह हिम्‍मत जुटाकर मैंने कहा, बाबा, हम यहीं दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं, हम सोशलिस्‍ट हैं, डॉ. राममनोहर लोहिया को माननेवाले। आशीर्वाद की मुद्रा में उन्‍होंने हमारी तरफ़ देखा। बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा कि डॉ लोहिया आपको गांधीजी के बाद हिंदुस्‍तान की जंगे-आज़ादी का सबसे बहादुर नेता मानते थे। तो सरहदी गांधी ने धीमी आवाज़ में कहा कि कुछ साल पहले लोहिया मुझसे काबुल में मिलने आया था, तीन-चार रोज़ वो मेरे पास रहा। इस पर मैंने उनसे कहा कि इस बारे में डॉ. लोहिया ने सोशलिस्‍टों को एक बेहद दिलचस्‍प बात बताई थी कि पहले दिन जब आपके ख़ानसामा ने आलू और गोश्‍त की बनी सब्‍जी उनको खाने को दी तो  वो झिझके, क्‍योंकि वो वैजेटेरियन थे, आसपास में ही बैठे थे, आप समझ गए, आपने खानसामा को कहा कि खालिस आलू की सब्‍जी बना दो। डॉ लोहिया ने कहा कि नहीं, इसमें से आलू निकालकर खा लूँगा। मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए पूछा कि बाबा, गांधीजी और आपके होते हुए हिंदुस्‍तान-पाकिस्‍तान का बँटवारा कैसे हो गया? तब उन्‍होंने कहा कि ‘हिंदुस्‍तान के लीडरान से पूछो’।

महात्मा गांधी और बादशाह ख़ान खुदाई खिदमतगारों के साथ

उन्‍होंने हमसे पूछा कि क्‍या तुम्‍हारी यूनिवर्सिटी में गांधीजी की तालीम की पढ़ाई होती है, रमाशंकर ने कहा, जी हाँ, होती है, परंतु बड़ी क्‍लास में, इतनी देर में यूनिवर्सिटी के कई और प्रोफ़ेसर, कर्मचारी उनसे मिलने के लिए वहाँ आ गए थे।

गांधीजी के इस फक़ीर सिपाही का जीवन त्रासदियों से भरा हुआ था। राजमोहन गांधी ने “गफ़्फ़ार ख़ान नोन वाइलेंट बादशाह ऑफ पख्‍तून्स” में लिखा है कि 1969 में जब बादशाह ख़ान हिंदुस्‍तान आए थे तो मुल्‍क के कई हिस्‍सों में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे, गांधीजी के अहमदाबाद में भी। बादशाह ख़ान अहमदाबाद गए और अमन का पैगाम देने के लिए तीन दिन तक उपवास किया।

उनके स्‍वागत के लिए संसद के दोनों सदनों का संयुक्‍त आयोजन हुआ। बादशाह ख़ान ने अपने भाषण में बड़ी वेदना के साथ कहा कि आप गांधीजी को भूल गए हैं, जिस तरह बुद्ध को भूल गए थे।

ख़ान अब्‍दुल गफ़्फ़ार ख़ान का जन्‍म 1890 में पेशावर (अब पाकिस्‍तान) में उत्तमजई गाँव में मालदार जमींदार पठान खानदान में हुआ था।

पठानों में ‘खून के बदले खून’ के उसूल पर खानदानों में पुश्‍त-दर-पुश्‍त खून का बदला खून से लिया जाता था। इतनी खूंखार कौम के अपने समाजी कायदे-कानून की खूबियां भी कम न थीं। शरणागत को अपनी जान पर खेलकर भी उसकी हिफाजत करनाचाहे कितना भी कट्टर दुश्‍मन हो उसकी मेहमाननवाजी से न चूकना इनकी खासियत थी।

बादशाह ख़ान की सियासी जिंदगी उनके गाँव में रॉलेट ऐक्‍ट की मुखालफत से शुरू हुई, उसमें भाषण देने के कारण इन्‍हें छह महीने की सजा हो गई। 98 प्रतिशत पठान पढ़े-लिखे नहीं थे। बादशाह ख़ान ने सबसे पहले पख़्तून भाषा में एक पत्रिका की शुरुआत की। गाँव-गाँव पैदल घूमकर अनपढ़ पठानों में जागृति पैदा करने तथा समाज सेवा और सियासी सरगर्मियों के कारण पठान उनको अपना रहबर मानने लगे तथा उन्‍होंने उनको बादशाह ख़ान कहना शुरू कर दिया।

गांधीजी के अहिंसा और सच्‍चाई के उसूलों में उनका यकीन बढ़ता गया। 1929 में उन्‍होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक संगठन की स्‍थापना कर दी। ‘खुदाई खिदमतगार बनने से पहले हर इंसान को अनिवार्य रूप से यह कसम लेनी होती थी कि

“खुदा को किसी प्रकार की खिदमत की ज़रूरत नहीं है। इसलिए मैं हर इंसान की खिदमत बगैर किसी भेदभाव के करूँगा। मैं किसी प्रकार की हिंसा नहीं करूँगा और न ही बदला लेने के इरादे से कोई कार्य करूँगा। मैं हर उस इंसान को माफ करूँगाजो मेरे खिलाफ़ द्वेष-भावना से कोई काम करेगा। मैं किसी भी ऐसे काम में शिरकत नहीं करूँगा जिसका मकसदआपसी या खानदानी दुश्‍मनी होगा। मैं हर पख्तून को अपना भाई व साथी समझूँगा। मैं हर प्रकार की समाजी बुराइयों से परहेज करूँगा। सादगी भरी जिंदगी जीने की कोशिश करूँगा और हर प्रकार की कुर्बानी करने के लिए हमेशा तैयार रहूँगा।”

(पहली किस्त )

(यह लेख इससे पहले 20 जुलाई 2021 को भी समता मार्ग में प्रकाशित हुआ था)

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