इस गणतंत्र दिवस पर आईए, इस कड़वी सच्चाई को गले उतारने की हिम्मत करें कि: भारत का पहला गणतंत्र मिट चुका है। वह गणतंत्र जिसकी उद्घोषणा 26 जनवरी 1950 को हुई और जिसके छाया-चिन्हों का आज हम जश्न मना रहे हैं, वह आज की तारीख में अपनी आखिरी सांस लेकर समाप्त हो चुका है। आज तो इस सच्चाई को गले उतारने का वक्त है कि बीते आठ सालों में हमने सिर्फ लोकतंत्र, संघवाद या फिर सेक्युलवाद को ही नहीं गंवाया बल्कि अपने समूचे गणतंत्र ही को गंवा दिया।
सियासी दिल्ली की एक पहचान बोट क्लब को सेंट्र्ल विस्टा बनाने के नाम पर मिसमार किया गया, अमर जवान ज्योति की निरंतर जलती लौ बुझा दी गई है और मशहूर बीटिंग रिट्रीट से अबाइड विथ मी की धुन हटा ली गई है— ये छोटे-छोटे संकेत हैं कि हमारे पैरों तले की धरती किस तेजी से खिसकायी गई है। जी हां, आपने सही पहचाना—आप एक नये भारत में हैं।
इस गणतंत्र दिवस पर आईए, इस सच्चाई को स्वीकार करें कि हमारे गणतंत्र को जन-गण ने ही मटियामेट कर दिया। आज इस ध्वंस का जो दृश्य हमारे सामने है वह सिर्फ इस देश को अपनी मुट्ठी में कब्जा लेने वाली एक निष्ठुर और अविवेकी राजनीतिक ताकत की देन नहीं। ऐसा ना हुआ कि अचानक हमारी सियासी जिन्दगी में कोई बड़ा भूचाल आया और हम उसके चपेटे में आ गये। किसी ने अगर लोकतंत्र को अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है तो इसलिए कि जन-गण जिन राजनीतिक मूल्यों पर चल रहा था और जो हमारे सांवैधानिक मूल्य हैं, उन दोनों के बीच का रिश्ता धीरे-धीरे छीजता गया और आज आखिर को एक वक्त ऐसा भी आया है जब हमारे राजनीतिक मूल्यों और संविधान-वर्णित मूल्यों के बीच कोई नाता ही नहीं बचा रह गया है।
गणतंत्र शासन के खास रुपाकार भर का नाम नहीं बल्कि रिपब्लिक सबसे अव्वल तो एक राजनीतिक समुदाय का नाम है, एक ऐसे समुदाय का जो अपने को साझे स्वप्न के धागों में गूंथकर खड़ा करता और आगे बढ़ता है। यह कहना तो खैर झूठ होगा कि 26 जनवरी 1950 के दिन हमारे बीच स्वप्नों का साझा था लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि 1950 की छब्बीस जनवरी को हमारे पास इस साझेपन के स्वप्न का एक वादा था। लेकिन आज वह वादा धूल-धूसरित हो चुका है। वह सोच जो हमें एक गणतांत्रिक राजनीतिक समुदाय में ढाल सकती थी, आज तार-तार हो चुकी है।
अगर आज हमारे लोकतंत्र ने चुनावी अधिनायकवाद का रुप ले लिया है, अगर आज सेक्युलरिज्म के लिए बनायी गई शाहराहों पर हिन्दू बहुसंख्यकवाद नग्न नृत्य करता दिखता है, अगर आज संघवाद को परे ढकेल कर केंद्रीकरण ने पैर जमा लिए हैं तो इसका दोष हम किसी को नहीं दे सकते सिवाय उस एक शय के जिसे हमने अपने संविधान में `हम भारत के लोग`का नाम दिया है। त्रासदी ये नहीं कि भारत का स्वधर्म क्या और कैसा हो, इसे लेकर हमने एक स्वप्न सजाया था और वह स्वप्न हमें प्यारा था लेकिन उस स्वप्न की जगह एक ऐसे सपने ने ले ली है जो हमें कत्तई ना पसंद है। दरअसल, त्रासदी तो यह है कि भारत के स्वधर्म को लेकर जिस एकमात्र सोच से हमारा गणतंत्र बचा और टिका रहे सकता था, वह अपनी साख गंवा चुकी है।
आईए, इस गणतंत्र दिवस को हम तलाशें कि साझेपन के जिस स्वप्न को हमने गंवा दिया उसके मूल कहां है। दरअसल, हमारे गणतंत्र को आकार देने वाले साझेपन के स्वप्न का बिरवा आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन-परंपरा के भीतर से पनपा था। भारतीय गणतंत्र के इस स्वप्न को 100 सालों की जीवंत भारतीय राजनीतिक चिन्तन-परंपरा से खाद-पानी मिल रहा था। इस चिन्तन परंपरा की शुरुआत बंगाल के मशहूर पुनर्जागरण से हुई और इसने औपनिवेशिक आधुनिकता से हमारे संघर्ष को रुपाकार दिया। इसी से हमारी ठेठ भारतीय आधुनिकता ने जन्म लिया और भारतीय राष्ट्रवाद को राह मिली।
हमारे संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद में भी यही आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन परंपरा थी। लेकिन चिन्तन की इस जीवन्त परंपरा की धारा अचानक 1960 के दशक में सूख गयी। बी.आर. आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरु और राममनोहर लोहिया के सियासी रंगमंच से विदा होने के साथ वह परंपरा समाप्त हो गई जिसमें हम चिन्तक और राजनेता को किसी एक ही व्यक्तित्व में समाहित हुआ पाते हैं।
सन् 1960 के दशक के बाद राजनीतिक सूत्रीकरण और सैद्धांतिकी तैयार करने का काम हमने विषय के विद्वानों और मीडिया के मार्फत जब-तब राजनीतिक टिप्पणी करने वालों के जिम्मे छोड़ दिया। ऐसा करना विध्वंसक साबित हुआ। आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन-धारा का अचानक सूख जाना भारत के स्वधर्म के विचार में आये बिगाड़ का जिम्मेवार है।
आईए, इस गणतंत्र दिवस पर हम अपने गणतंत्र का स्वप्न फिर से सजायें। हम अपने पहले गणतंत्र को पुनरुज्जीवित तो नहीं कर सकते लेकिन हम कम से कम आज के वक्त के लिए अपने उस गणतंत्र पर दावा जरुर ठोंक सकते हैं।
बीसवी सदी की विरासत
अपने इस स्तंभ में आगे पूरे एक साल तक हम विभिन्न विचाराधाई परंपराओं का जायजा लेंगे। एक-एक करके हम परखेंगे और ये देखने की कोशिश करेंगे कि कैसे अपने दूसरे गणतंत्र का स्वप्न सजाने के लिए हम इन विचारधाई परंपराओं का इस्तेमाल कर सकते हैं।
हमें बीसवीं सदी के दरम्यान चली दो समानान्तर विचार-परंपराओं से अपने दूसरे गणतंत्र के स्वप्न को बुनने के धागे निकालने होंगे। ये दोनों विचार-परंपरा एक अर्थ में मूलगामी थीं क्योंकि प्रभुत्व के विरोध में विकसित हुईं और वैकल्पिक सिद्धांतों पर भविष्य का ताना-बाना खड़ा करना चाहा। बीसवीं सदी के आखिर तक ये दोनों चिन्तन-धाराएं सूख चुकी थीं, इनके भीतर का बौद्धिक और सियासी तेज समाप्त हो चला था किन्तु रोजमर्रा की राजनीति की बोली-बानी पर इन दोनों ही चिन्तन-धाराओं की छपी बनी रही। इक्कीसवीं सदी में मूलगामी राजनीति का स्वप्न नये सिरे से सजाने के लिए हमें इन दोनों ही धाराओं के बीच जिनका पूरी बीसवीं सदी के दरम्यान एक-दूसरे से अबोला रहा, संगम और संश्लेष करना होगा।
परस्पर विरोध में जान पड़ती इन दो धाराओं में से एक का नाम हम समतावादी परंपरा रख सकते हैं। इसे पहचानना और इसे नाम देना आसान है। इस विचार-परंपरा ने अपने को समता और न्याय की धारणा के इर्द-गिर्द खड़ा किया। इस विचार-परंपरा की कई उपधाराएं थीं और समता के मूल्य के विभिन्न पहलुओं पर इन उपधाराओं का जोर अलग-अलग रहा। समाजवादी उपधारा, जिसमें साम्यवादी और नक्सलवादी शामिल हैं, वर्ग-आधारित आर्थिक गैर-बराबरी के विचार को प्रधान मानकर आगे बढ़ी।
सामाजिक न्याय की उपधारा ने जाति-आधारित गैर-बराबरी को प्रधान मानकर अपने कदम आगे बढ़ाये और स्त्रीवादियों ने लिंग-आधारित गैर-बराबरी को प्रधान मानकर पहल की। मूलगामिता की जो परंपरा पश्चिमी देशों में रही है, हमारी समतावादी विचार-परंपरा ने अपने ज्यादातर में उसी से प्रेरणा और तर्क हासिल किये और यह परंपरा भारत भूमि की बौद्धिक परंपरा को शंका की नजर से देखती थी। समतावादी विचार-परंपरा के चिन्तक किन्हीं अर्थों में पश्चिमी विचार-परंपरा के भारत-विषयक सोच के हामी थे और भारतीय समाज को रुढ़िपरस्त मानते थे।
हमारी विचार-परपंरा की दूसरी धारा स्वदेशी है, इसको पहचान माना जरा कठिन है क्योंकि इसने किसी ठोस `वाद` का रुप नहीं लिया और ना ही इसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति साफ-साफ पहचाने जा सकने वाले किसी एकहरे रंगो-आब में हुई। फिर भी, ये बात विश्वासपूर्वक कही जा सकती है कि बीसवीं सदी की शुरुआत बल्कि उसके भी पहले हम भूदेव मुखोपाध्याय जैसी शख्शियतों के सोच में औपनिवेशिक सत्ता के राजनीतिक विरोध के एक ऐसे विचार को जन्म लेता देखते हैं। जो सभ्यता, संस्कृति और ज्ञानमीमांसा के धरातल पर आधुनिक पश्चिम की आलोचना करने का साहस करता है। इस विचार की प्रेरणा भूमि और बीज-शब्द है- स्वराज या स्वशासन।
स्वराज और स्व-शासन की जमीन से उपजी यह विचार-परंपरा कभी तो संकीर्ण राष्ट्रवाद का रुप ले लेती है और उसका लक्ष्य सिमटकर भारत की सीमाओं की रक्षा या फिर इसी कड़ी में तत्कालीन हिन्दू-समाज व्यवस्था की हिफाजत का हो जाता है। वह भस्मासुर जो आज की राजनीति में हिन्दुत्व के नाम से जाना जाता है।
दरअसल, इसी विचार-परंपरा का कुत्सित संस्करण है। लेकिन, इस विचार-परंपरा का एक सिरा और भी है। इस सिरे पर है गांधीवादी ढर्रे की विचार-दृष्टि जो वैकल्पिक सार्वभौमिकता का प्रस्ताव करती हुई आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की आलोचना करती है। यह विचार-परंपरा संस्कृति को अपना अखाड़ा बनाती है, इसकी भाव-मुद्रा आपको अपने ज्यादातर में रक्षात्मक दिखायी देती है और इसी कारण भारतीय समाज में मौजूद सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी को टक्कर दे पाने में इस विचार-परंपरा के भीतर हमें एक हिचकिचाहट देखने को मिलती है।
ये दोनों ही आधुनिक भारतीय विचार-परंपराएं परस्पर विरोधी नहीं तो भी एक-दूसरे से तटस्थ जरुर बनी रहीं।
इक्कीसवीं सदी की जरुरत
हमारे सामने चुनौती एक-दूसरे के समानन्तर चलीं और आपस में अबोला रखने वाली इन दो विचार-परंपराओं के बीच संवाद कायम करने की है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दरम्यान जब-तब इन दो विचार-परंपराओं के बीच संश्लेष की हल्की सी झलक मिलती है। आप ऐसे संश्लेष की झलक विवेकानंद और बंकिम चटोपाध्याय में देख सकते हैं। गांधी की राजनीति अपने मर्मबोध में भारत की स्वदेशी राजनीतिक चिन्तन-परंपरा और समतावादी चिन्तन-परंपरा को एक में गूंथ देती है।
समाजवाद का एक खास भारतीय रुप रहा है जिसे हम राम मनोहर लोहिया और उसी के परवर्ती विस्तार के रुप में किशन पटनायक के चिन्तन में देखते हैं। इन दोनों ही विचारक-नेताओं के व्यक्तित्व और कृतित्व में हम दो आधुनिक भारतीय विचार-परंपरा के संश्लेष की झलक देखते हैं। आज जरुरत इस संश्लेष को विचारधाराई एकता में बदलने की जरुरत है।
लेकिन, इतना भर करके रुका नहीं जा सकता। हमें नये मुद्दों और विचार की नई धाराओं को भी एक में समेटना होगा। अगर कोई विचारधारा 21वीं सदी की चुनौती के मायने-मतलब की है तो उसमें जलवायु-परिवर्तन और पर्यावरणवाद के बौद्धिक-संपदा का भी समावेश होना चाहिए।
इक्कीसवीं सदी के प्रश्नों के समाधान के लिए उठ खड़ी होने वाली विचारधारा को वैश्वीकरण की चुनौतियों और नये तर्ज के वैश्विक पूंजीवाद की चुनौतियों को भी ध्यान में रखना होगा। इस विचारधारा को ध्यान रखना होगा कि आज का समय सत्याभास यानी पोस्ट-ट्रूथ का समय है, और ऐसे समय में जब ज्ञान खुद ही प्रश्नांकित हो रहा है, हमारी चुनौती ज्ञान-राशि को अक्षुण्ण रखने की है।
इतिहासकार बताते हैं कि राष्ट्र सपनों में बनते हैं और इस अर्थ में वे एक ऐसा समुदाय होते हैं जो कल्पना के ताने-बाने से तैयार होता है यानी राष्ट्र एक कल्पित समुदाय होते हैं। आईए, इस गणतंत्र दिवस पर हम भारत कहलाने वाले राजनीतिक समुदाय की पुनर्कल्पना करने का संकल्प लें।
(द प्रिंट से साभार)