सलंगा नरसंहार के सौ साल बाद भी किसानों का साझा संघर्ष जारी है

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— डॉ सुनीलम —

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी के आंदोलन के दौरान सबसे बड़ा जनांदोलन असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन के नाम से चलाया गया था। इन आंदोलनों में बड़ी संख्या में किसानों, कारीगरों, व्यापारियों, मजदूरों ने भागीदारी की थी। असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन के दौरान दमन की तमाम घटनाएं घटी थीं।

रौलट एक्ट के खिलाफ अभियान चलाने के दौरान जब पंजाब में गांधी की को गिरफ्तार किया गया तब स्थिति तनावपूर्ण हो गयी। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में सभा के दौरान नरसंहार किया गया जिसमें 1200 से अधिक राष्ट्रभक्त मारे गए।

लेकिन 27 जनवरी 1922 को सालंगा में जो कुछ हुआ वह अकल्पनीय था। सालंगा इस समय बांग्लादेश के सिराजगंज जिले में स्थित है जहां अब्दुल राशिद तारकाबागीश नामक क्रांतिकारी युवा के नेतृत्व में स्थानीय जमींदारों तथा स्थानीय बाजारों पर कब्जा करनेवाले बड़े अंग्रेज व्यापारियों के खिलाफ संघर्ष हुआ। वहां व्यापारी स्थानीय बाजारों पर एकाधिकार पाने के लिए तमाम प्रकार के जुल्म और ज्यादतियां करते थे।

उस समय आंदोलन का एक कारण यह भी था कि जमींदारों ने जानवरों के व्यापार पर अत्यधिक टैक्स लगा दिया था। जो किसान टैक्स नहीं देता था उसे गांव से निकाल दिया जाता था तथा उसकी पिटाई की जाती थी। अंग्रेज अफसर स्थानीय ग्रामीणों को मजबूर करते थे कि वे अंग्रेजी कंपनी का कपड़ा खरीदें जबकि उस समय इलाके में बड़े पैमाने पर स्थानीय बुनकरों द्वारा कपड़ा बनाया जाता था। अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों के इलाके में शराब की दुकानें खोल दी गयी थीं।

आंदोलन के संबंध में मौलाना तारका बागीश से प्राप्त जानकारी के अनुसार कांग्रेस कार्यालय में जहां एक मीटिंग चल रही थी वहां कलेक्टर आरएम दास और एसडीओ सुनील कुमार सिन्हा पहुंचे। वहां उन्होंने मौलाना को खींचकर बाजार में ले जाकर पीटना शुरू किया तथा राइफल की बट से इतना पीटा कि वे बेहोश हो गए। बेहोशी की हालत में जब पुलिस उन्हें उठाकर ले जा रही थी तब लोगों ने सोचा कि उनके नेता की मौत हो गयी है, तब आक्रोशित भीड़ आगे बढ़ी।

अंग्रेजी हुक्मरानों के आदेश पर इन किसान आंदोलनकारियों को सबक सिखाने तथा उत्तर-पश्चिम बंगाल में आंदोलन को कुचलने के लिए नरसंहार किया गया।

पुलिस ने फायरिंग की जिसमें साढ़े चार हजार लोग मारे गए। लाशों को शनदी में बहा दिया गया तथा गड्ढे खोदकर एकसाथ मृतकों को गाड़ दिया गया।

इस घटना को सौ साल हो चुके हैं लेकिन बांग्लादेश और बंगाल के लोग इस घटना को भूले नहीं है।

आज भी यह याद किया जाता है कि 21 साल की उम्र में मौलाना तारकबागीश द्वारा सिराजगंज जिले के रायगंज उपजिला के सलंगा बाजार में स्वतंत्रता के लिए एक अहिंसक विरोध मार्च का नेतृत्व कर रहे थे तब अंग्रेजों द्वारा गोलियां चलायी गयीं, जिसमें हजारों आंदोलनकारी किसान मारे गए थे। 27 जनवरी 1922 की घटनाओं को अब बांग्लादेश में सलंगा नरसंहार के रूप में संदर्भित किया जाता है और प्रतिवर्ष “सलंगा दिवस” ​​के तौर पर स्मरण किया जाता है।

सलंगा आंदोलन के नेता मौलाना तारकबागीश का जन्म 27 नवंबर 1900 को सिराजगंज जिले के उल्लापारा स्थित तरुतिया गांव में हुआ था। वे 1936 में मुस्लिम लीग में शामिल हुए। 1937 और 1946 में बंगाल विधानसभा के सदस्य रहे। 21 फरवरी 1952 को पूर्वी बंगाल विधानसभा के बजट सत्र में मौलाना ने तारकाबागीश ने ढाका मेडिकल कॉलेज के पास कई प्रदर्शनकारियों की हत्या की कड़ी आलोचना की। उन्होंने अपनी मातृभाषा और भाषा आंदोलन के शहीदों का सम्मान करने के लिए बंगाली में अपना भाषण भी दिया। उन्हें 23 फरवरी को गिरफ्तार किया गया और 1 जून तक जेल में रखा गया।

मौलाना तारकाबगीश ने सदन के नेता नूरुल अमीन से जांच दल गठित करने के पहले घायल छात्रों से मिलने के लिए कहा। लेकिन जब नूरुल अमीन ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया, तो उन्होंने विधानसभा से वाकआउट कर दिया और बाद में 23 फरवरी, 1952 को मुस्लिम लीग संसदीय दल से अलग हो गए।

फिर वे अवामी मुस्लिम लीग (अब अवामी लीग) में शामिल हो गए और 1954 में संयुक्त मोर्चा से फिर से विधानसभा के सदस्य चुने गए। उन्हें 1956 में पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य के रूप में भी चुना गया था।

मौलाना तारकाबागीश 1957 में अवामी लीग के कार्यकारी अध्यक्ष बने फिर 1964 से 1967 तक अवामी लीग के अध्यक्ष रहे। बांग्लादेश की आजादी के बाद मौलाना तारकाबागीश ने 1972 में बांग्लादेश के जातीय संघ के पहले सत्र की अध्यक्षता की। 1973 में उन्हें फिर से अवामी लीग का सदस्य चुना गया। बांग्लादेश के संस्थापक पिता और तत्कालीन राष्ट्रपति बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद मौलाना तारकबागीश ने 1976 में गानो आज़ादी लीग नाम की एक पार्टी बनाई। उन्होंने हुसैन मोहम्मद इरशाद के सैन्य शासन के खिलाफ आंदोलन में 15 पार्टी गठबंधन के नेताओं में से एक के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी । वह कट्टरवाद और सांप्रदायिकता के विरोध में अडिग थे। 20 अगस्त 1986 में उनका देहांत हुआ।

मौलाना अब्दुर रशीद तारकाबागीश को 2000 ई. में बांग्लादेश सरकार द्वारा स्वतंत्रता दिवस पुरस्कार (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया।

अब्दुल रशीद जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को 100 साल के बाद आज भी याद करना जरूरी है। विशेष तौर पर इसलिए ताकि यह सनद रहे कि आजादी की लड़ाई पूरे देश में (तब देश का बंटवारा नहीं हुआ था) हिंदुओं और मुसलमानों ने साथ-साथ लड़ी थी।

जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा 13 अप्रैल 1919 को जहां हजारों हिंदू और सिख मारे गए, शहीद हुए वहीं सालंगा में हजारों मुसलमानों ने आज़ादी के आंदोलन के दौरान शहादत दी। आजादी के आंदोलन की साझी विरासत को याद रखने के साथ-साथ यह भी याद रखना जरूरी है कि किसान आजादी के आंदोलन के दौरान भी जमीदारों और अंग्रेजों की कंपनी से लड़ रहा था तथा आज सौ साल बाद भी किसानों का संघर्ष जारी है। ब्रिटिश कंपनियों की जगह अब अडानी-अंबानी ने ले ली है।

किसान अमृतसर से लेकर सलंगा तक तब भी एकसाथ लड़ा था। आज भी साझा संघर्ष जारी है।

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