शुरू हुआ अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान

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31 जनवरी। प्रख्यात लेखक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने कहा है कि आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में हर दिन गांधी का अपमान किया जा रहा है।

वाजपेयी ने ‘हम देखेंगे’ के बैनर तले गाँधीजी की शहादत के 74 साल पूरे होने के अवसर पर ‘अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान’ कार्यक्रम के उदघाटन के मौके पर यह बात कही।

चर्चा की शुरुआत करते हुए कुमार प्रशांत ने कहा कि हम उन चुनौतियों पर विचार-विमर्श के लिए एकत्र हुए हैं जो आज हर स्वतंत्रचेता व्यक्ति के सम्मुख खड़ी हुई हैं। इसको हमने प्रतिरोध का नाम दिया है।

वाजपयी ने 30 जनवरी के दिन गाँधीजी के साथ जयशंकर प्रसाद (जन्मदिन) और माखनलाल चतुर्वेदी (पुण्यतिथि) का स्मरण करते हुए कहा इन तीनों पुरखों ने स्वतंत्रता को जीवन में, राजनीति में और अपने रचनाकर्म में रूपायित किया, संभव किया।

उन्होंने कहा कि आजादी के अमृत महोत्सव में हर दिन गाँधीजी का अपमान हो रहा है, उनकी दुर्व्याख्या हो रही है। लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों- स्वतंत्रता, समानता, न्याय में हर दिन कटौती हो रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कानूनी, सामाजिक बंदिशें लग रही हैं। असहमति को अपराध तक करार दिया जा रहा है।

उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी अंचल अपराधों के मामले में, गरीबी और बेरोजगारी के मामले में, शिक्षा व्यवस्था के पतन, स्वास्थ्य सेवाओं की बर्बादी और पुलिस अत्याचार में देश में सबसे आगे है। वर्तमान निजाम में संवैधानिक संस्थाओं, शैक्षिक संस्थाओं का भयानक अवमूल्यन हुआ है। अल्पसंख्यकों, मुख्यतः मुसलमानों के नरसंहार का धार्मिक आह्वान किया जा रहा है। स्त्रियों, दलितों पर हिंसा और अत्याचार भयानक रूप से बढ़ रहा है। भाषा को झूठ, नफरत और गालीगलौज से भर दिया गया है।

वाजपेयी ने शाहीन बाग आंदोलन, किसान आंदोलन और बेरोजगारी के विरुद्ध नौजवानों के आंदोलन को गाँधी के सत्याग्रह के पुनराविष्कार की सार्थक पहल के रूप में देखा। उन्होंने कहा कि हम लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी लोकतंत्र और बहुवचनात्मकता को अपदस्थ नहीं होने दे सकते।

जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असग़र वजाहत ने कहा कि पिछले सात-आठ साल से ऐसा हो रहा है कि गाँधी सबको याद आ रहे हैं; विरोधियों को भी और समर्थकों को भी। उन्हें भी जो पहले गाँधी को याद नहीं करते थे। गाँधी पर फिर से गोलियाँ चलाई जा रही हैं। गाँधी फिर से जीवित हो जा रहे हैं। गाँधी तब ब्रिटिश साम्राज्यवाद से जूझे थे। अब वे फासीवाद से लड़ रहे हैं।

उन्होंने कहा कि अपने युवावस्था में वे गाँधी की प्रासंगिकता को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थे। बाद में गाँधी होने का मर्म समझा। गाँधी की आध्यात्मिकता समाज, राजनीति और जनजीवन से गहरे जुड़ाव में थी। अपनी हत्या से पूर्व गाँधीजी ने दो महत्त्वपूर्ण बातें कही थीं- वे कांग्रेस का विलय चाहते हैं और पकिस्तान जाना चाहते हैं। असग़र जी ने बताया, मैंने अपने नाटक ‘गाँधी @ गोडसे डॉट कॉम’ में इसी की खोजबीन की है। उस नाटक में गोडसे की तीनों गोलियाँ लगने के बाद गाँधी मरते नहीं। उन्हें बचा लिया जाता है। वे गोडसे से संवाद करते हैं। एक आदिवासी इलाके में जाकर सेवाकार्य करते हैं।

उन्होंने कहा कि गाँधी जी चाहते हैं कि परिवर्तन और विकास ऊपर से न आए। वह लोगों से बीच से हो। जनता के सशक्तीकरण की बात सत्ता को सहन नहीं होती। गाँधी की सच्चाई गोडसे को स्वीकार नहीं हो सकती। आज हमें संवाद को जारी रखने और जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दों को उठाने की ज़रूरत है।

प्रसिद्ध मराठी लेखक और विचारवंत समाजकर्मी रावसाहेब कसबे ने भारत की वर्तमान सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक दशा या दुर्दशा का संदर्भ देते हुए कहा कि संविधान और आजादी की लड़ाई के दौरान अर्जित मूल्यों को जनता तक ले ही नहीं जाया गया। देश ने स्वतंत्रता, समता और बंधुता को स्वीकार किया लेकिन उसी के साथ राजस्थान हाईकोर्ट के सामने मनु की मूर्ति भी खड़ी की। हमने उसका विरोध किया था। वह मूर्ति आज भी है। मार्क्स ने कहा था कि सभी समीक्षा की शुरुआत धर्म समीक्षा से होती है लेकिन हमने यह काम गंभीरता और ईमानदारी से नहीं किया। गाँधी, आंबेडकर और प्रगति के विचारों को समाज तक ले जाने में चूक हुई। दूसरी तरफ वे लोग लगे रहे। उन्होंने पूजा-भाव को और मजबूत किया। जनता की अभिरुचि वैसे भी विचारों में कम, पूजा में ज्यादा होती है।

हिंदी और मराठी के बीच के सेतु वरिष्ठ लेखक डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे स्वयं उपस्थित नहीं हो सके। उनका लिखित वक्तव्य दलित लेखक संघ की अध्यक्ष डॉ. राजकुमारी ने पढ़ा। रणसुभे जी के अनुसार गाँधी जड़ व्यक्ति नहीं थे। उनका समाज पर बड़ा गहरा असर था। उन्होंने स्त्रियों को घर की चारदीवारी से बाहर निकाला और अपने को दलितों से जोड़ा। उनके सरोकारों का डॉ. आंबेडकर की चिंताओं से साम्य है।

गांधीजी का विश्वास इस देश के आम आदमी के विवेक पर था। जरूरत इस बात की है कि उसके इस विवेक को स्पर्श किया जाए। इस प्रकार के प्रयास प्रतिरोध की संस्कृति के सदस्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से कर रहे हैं। इस बात का पूरा विश्वास है कि यहां का आम आदमी समय आने पर ठीक से अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग करेगा और इसलिए वह सुबह कभी तो आएगी| ऐसा दृढ़ विश्वास है।

कार्यक्रम के अंत में अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान की तरफ से तैयार प्रस्ताव पढ़ा गया। प्रस्ताव में मांग की गयी कि भीमा-कोरेगाँव और दिल्ली दंगों के मामले में गिरफ्तार किए गए बुद्धिजीवियों, मानवाधिकारकर्मियों और समाजकर्मियों की अविलंब रिहाई हो और पूरे मामले की निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित की जाए। इस प्रतिरोध अभियान में शामिल संगठनों के नाम हैं- जलेस, दलेस, प्रलेस, जसम, एनएसआई, अभादलम, इप्टा, संगवारी, प्रतिरोध का सिनेमा, आईसीएफ, लिखावट और साथी लेखक कलाकार। पहली कड़ी का आयोजन तीन संयोजकों- प्रेम तिवारी, हीरालाल राजस्थानी और अनुपम सिंह के जिम्मे थी। प्रतिरोध अभियान की अगली कड़ियाँ देश के अन्य प्रांतों में आयोजित की जाएंगी।

– बजरंग बिहारी तिवारी

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