सोशलिस्ट, कांग्रेस में गुटबंदी के नहीं, एकता के पक्षधर रहे

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— प्रोफेसर राजकुमार जैन —

(चौथी किस्त)

क विशेष ध्‍यान देने की बात यह है कि त्रिपुरी में प्रस्‍तुत पंत प्रस्‍ताव के बारे में गाँधीजी को कुछ भी पता नहीं था, इसकी रूपरेखा राजगोपालाचारी ने बनायी थी। प्रस्‍ताव पास होने के बावजूद कार्यसमिति नहीं बन पायी थी। 12मार्च 1938 को कांग्रेस अधिवेशन समाप्‍त हो गया। 29 अप्रैल को कलकत्ता में ए.आई.सी.सी. की बैठक बुलायी गयी, लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका। कांग्रेस महासमिति की बैठक से पहले सुभाष बोस ने गाँधीजी को पत्र लिखकर आग्रहपूर्वक अनुरोध किया कि वह बैठक में ज़रूर रहें। गाँधीजी बैठक से कुछ दिन पूर्व ही कलकत्ता पहुँच गये। महासमिति की बैठक से पंद्रह दिन पूर्व बोस को गाँधीजी ने पत्र लिखकर बताया था कि पंत के प्रस्‍ताव की व्‍याख्‍या मैं नहीं कर सकता। इसे मैं जितनी बार पढ़ता हूँ उतना ही इसे नापसंद करता हूँ। इस मध्‍य सुभाष और नेहरू के बीच तीखा पत्र-व्‍यवहार हुआ। आखिरकार दोनों आपस में मिले तथा घटनाओं पर बातचीत की।

इससे पहले जवाहरलाल सोचते थे कि सुभाष का रुख आशा के विपरीत ही होगा। परंतु अब उन्‍होंने गाँधी को पत्र लिखकर समझौते के लिए आग्रह किया कि सुभाष में बहुत सारी कमियाँ हो सकती है परंतु मित्रतापूर्वक व्‍यवहार से वह जल्‍दी ही प्रभावित हो जाता है, मुझे पूर्ण विश्‍वास है कि आप ज़रूर कोई रास्‍ता निकाल लेंगे।

कलकत्ता की कांग्रेस महासमिति की बैठक में जवाहरलाल नेहरू तथा सो‍शलिस्‍टों ने प्रस्‍ताव किया कि बोस से अपना इस्‍तीफा वापिस लेने का अनुरोध किया जाए, और वे वही पुरानी कार्यसमिति फिर से नामजद कर दें जो मार्च 1938 तक काम कर रही थी।

नेहरू और सोशलिस्‍टों ने बोस से अपील की कि अंतरराष्‍ट्रीय और राष्‍ट्रीय परिस्थितियों को देखते हुए कांग्रेस की एकता कायम रखते हुए काम करना चाहिए।

नेहरू ने यह भी कहा कि कार्यसमिति में शीघ्र ही दो स्‍थान रिक्‍त होंगे और उस समय बोस उन स्‍थानों पर अपनी पसंद के आदमी रख सकेंगे।

बोस ने रिक्‍त हुए स्‍थानों पर दो नये नामों का सुझाव दिया, परंतु उनके सुझाव को दक्षिणपंथी नेताओं ने अस्‍वीकृत कर दिया।

29 अप्रैल को कलकत्ता में कांग्रेस महासमिति में सुभाष बोस ने एक वक्‍तव्‍य दिया कि, उन्‍होंने गाँधीजी से समझौता करने के लिए प्रयत्‍न किये थे, और उनके साथ कई पत्रों का आदान-प्रदान किया था। इसके अलावा कलकत्ता में उनके साथ व्‍यक्तिगत रूप से चर्चा भी की, किंतु कोई समझौता नहीं हो सका। बोस ने गाँधीजी से कहा था कि वह कांग्रेस कार्यसमिति के नये सदस्‍यों के नाम दे दें जिनमें उनको विश्‍वास हो, किंतु गाँधीजी ने वैसा करने से इनकार कर दिया। उन्‍होंने बोस को अपनी कार्यसमिति स्‍वयं नामजद करने को कहा। उन्‍होंने आगे कहा, अब यदि वह नामों की सूची देंगे तो यह एक प्रकार से कार्यसमिति को आप (सुभाष) के ऊपर थोपने जैसा होगा, आप अपनी कार्यसमिति चुनने के लिए स्‍वतंत्र है। गाँधीजी ने सुभाष को सलाह दी वह पिछली कार्यसमिति की सलाह लेकर नयी कार्यसमिति गठित करें।

अ.भा.क्रा.क. ने 1939-40 के लिए डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद को अध्‍यक्ष चुन लिया। उन्‍होंने उन पुराने 12 सदस्‍यों, जिन्‍होंने बोस के अध्‍यक्ष चुने जाने पर इस्‍तीफा दिया था, को वापिस कार्यसमिति का सदस्‍य बना दिया। इसके साथ ही डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने सोशलिस्‍टों, जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाषचंद बोस  के भाई शरतचंद बोस को भी नयी बनी कार्यसमिति की सदस्‍यता के लिए आमंत्रित किया, परंतु इन सबने उसको अस्‍वीकार कर दिया।

यह सब महासमिति की बैठक में बताने के बाद सुभाष ने अध्‍यक्ष पद से इस्‍तीफा दे दिया।

बोस आखिर तक सुलह के पक्षधर थे इस बात की ताईद करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कृष्‍ण मेनन को सूचित किया गया कि जहाँ तक कलकत्ता अधिवेशन की कार्यवाही की बात है, सुभाष बोस सबको साथ लेकर चलने के लिए तालमेल बैठाने के बहुत उत्‍सुक जान पड़ते हैं।

बंगाल की कार्यसमिति में सुभाष बोस के समर्थकों ने बहुत शोर-शराबा मचाया। कार्यसमिति की बैठक समाप्‍त होने के लगभग तुरंत बाद 29 अप्रैल 1939 को सुभाष बोस ने फारवर्ड ब्‍लाक नामक संगठन की स्‍थापना कर दी।

अब सवाल उठता है कि कांग्रेस, सुभाष में समझौता क्‍यों नहीं हो पाया? क्‍या गाँधीजी अथवा पुराने रूढ़िवादी कांग्रेसी इसके लिए दोषी थे? जहाँ तक गाँधीजी की बात है अध्‍यक्ष के चुनाव के वक्‍़त सुभाष की जीत के बाद गाँधीजी के दिये वक्‍तव्‍य को सभी ने नापसंद किया था परंतु इससे यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि गाँधीजी सुभाष को पसंद नहीं करते थे या कम आँकते थे। हक़ीक़त में गांधीजी अहिंसा के प्रश्‍न पर किसी भी प्रकार का समझौता नहीं कर सकते थे। सुभाष बाबू आज़ादी को प्राप्‍त करने के लिए हिंसा के भी पक्षधर थे। इसका दूसरा एक जटिल पहलू, वामपंथी बनाम दक्षिणपंथी भी था। सुभाष बाबू घोषित रूप से वामपक्ष को लामबंद करने के लिए तत्‍पर रहते थे। झगड़े का एक बड़ा कारण यह भी था। कांग्रेस महासमिति से पुराने कांग्रेसियों ने इस्‍तीफा देते हुए कहा था कि देश में स्‍पष्‍ट रूप से एक नीति होनी चाहिए कि विपरीत विचारों वाले, बेमेल ग्रुप से कोई समझौता नहीं हो सकता। उधर सुभाष बाबू अपनी कार्यसमिति में किसी दक्षिणपंथी को रखने के हक में नहीं थे।

गाँधीजी लेफ्ट और राइट की शब्‍दावली को पसंद नहीं करते थे। गाँधीजी ने मजाकिया लहजे में सुभाष बाबू को सुझाव दिया कि वो किसी स्‍वदेशी नामावली को चुनें। गाँधीजी ने सुभाष बाबू को एक पत्र लिखा कि तुम्‍हारे और पुरानी कार्यसमिति के सदस्‍यों में एक बुनयादी अंतर है जो कि मेरे लिए एक बेहद दुखदायी पहलू है कि आपस में समझौता नहीं हो सका। उन्‍होंने सुभाष को कहा कि तुम्‍हारा यह सोचना ग़लत है कि कुछ लोगों ने मुझे तुम्‍हारे विरुद्ध खड़ा कर दिया है। उन्‍होंने सुभाष को विश्‍वास दिलाया कि पुराने लोगों में एक भी आदमी तुम्‍हारा दुश्‍मन नहीं है।

गाँधीजी ने सुभाष से कहा कि यह ग़लत है कि हम दोनों में आपसी आदर तथा विश्‍वास नहीं है। हमारे निजी संबंधों में कभी खटास नहीं होगी। आखिर में गाँधीजी ने सुभाष से कहा कि तुम्‍हारा मार्ग मेरा मार्ग नहीं है। कुछ समय के लिए तुम मेरी खोयी हुई भेड़ हो, किसी दिन मैं देखूँगा कि तुम लौटकर अपने स्‍थान पर आ जाओगे, अगर मैं सही हूँ तथा मेरा प्रेम सच्‍चा है।

जून 1939 में कांग्रेस महासमिति ने दो प्रस्‍ताव पास कर दिये। एक तो यह कि कांग्रेस कार्यसमिति की अनुमति के बिना कोई कांग्रेसी सत्‍याग्रह  आरंभ नहीं करेगा, दूसरे प्रस्‍ताव के जरिये प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों को आदेश दिया गया कि कांग्रेस कार्यसमिति के निरीक्षण और नियंत्रण में काम कर रहे कांग्रेसी मंत्रिमंण्डलों के कामकाज में प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों को हस्‍तक्षेप नहीं करना चाहिए। बोस तथा कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टी के सदस्‍यों ने इन दोनों प्रस्‍ताव का कड़ा विरोध किया, लेकिन ये प्रस्‍ताव भारी बहुमत से पास कर दिये गये।

कांग्रेस की कार्यसमिति ने 9-12 अगस्‍त 1939 तक चलनेवाली बैठक में बोस के आचरण पर विचार किया तथा निर्णय लिया कि सुभाष बोस को अगस्‍त 1939 से तीन साल के लिए बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की अध्‍यक्षता से अयोग्‍य घोषित कर दिया गया। कार्यसमिति ने साथ ही यह अपेक्षा प्रकट की कि वह उसके निर्णय को स्‍वीकार करेंगे और अनुशासन की कार्यवाही को निष्‍ठापूर्वक मान लेंगे।

कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टी के महासचिव जयप्रकाश नारायण ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हुए कहा कि यह घोर भयावह तथा कठोर निर्णय है तथा उन्‍होंने आशंका व्‍यक्‍त की कि इससे संगठन में एकता के बजाय और खाई उत्‍पन्‍न होंगी।

जवाहरलाल नेहरू ने 24 मई को लिखा कलकत्‍ता में सुभाष बाबू ने जो सुझाव रखे थे, सबसे मैं सहमत नहीं था, लेकिन मुझे अच्‍छी तरह पता है कि वे (सुभाष) कांग्रेस की एकता के लिए बड़ी शिद्दत के साथ कोशिश कर रहे थे। मैं हैरान हूँ कि आखिर ऐसी क्‍या वजह रही जिसके कारण उनको इस्‍तीफा देना पड़ा। इसका मुझे गहरा अफसोस है।  इससे कांग्रेस में गहरी दरार और गहरी हो गई है जिसके कारण, इंसानों तथा समूहों को और दूर कर दिया है।

कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टी ने अंत तक प्रयास किया कि सुभाष बोस तथा कांग्रेस में किसी तरह समझौता हो जाए जयप्रकाश नारायण ने गाँधीजी लीडरशिप एण्‍ड दी कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टीके अपने इस पैम्‍फलेट में जो कि रामगढ़ कांग्रेस सम्‍मेलन के वक्‍त लिखा था, में कहा– हमने सुभाष बाबू को सलाह दी कि अब तक जो कुछ भी हुआ है उसके बावजूद वे कांग्रेस के अध्‍यक्ष पद से इस्‍तीफा ना दें, अगर उन्‍होंने हमारी सलाह मानी होती तो पिछले दिनों जो घटनाक्रम हुआ है उससे बचा जा सकता है। बल्कि कांग्रेस  कार्य समिति में वामपंथियों की ज्‍यादा ताकत होती। सुभाष बाबू स्‍वयं अध्‍यक्ष होते, जवाहरलाल नेहरू महासचिव बन जाते, शरदचंद बोस तथा दो वामपंथी और कार्यसमिति में सदस्‍य बढ़ जाते।

यह ध्‍यान देने की बात है कि पुराने कांग्रेसी केवल इस फार्मूले पर ही रजामंद थे। परंतु दुर्भाग्‍यपूर्ण बात है कि उन्‍होंने (सुभाष बाबू) ने इस फार्मूले को न मानकर इस्‍तीफा देकर फारवर्ड ब्‍लाक की स्‍थापना कर दी, उनके इस इस्‍तीफे से मुल्‍क को क्‍या फायदा हुआ? यह केवल वे अथवा उनके समर्थक ही बता सकते हैं। मेरा विचार है कि अगर बिना पक्षपात किये इसकी विवेचना की जाए कि उनके इस्‍तीफे तथा उसके बाद की उनकी गतिविधियों से कांग्रेस के अंदर वामपंथियों को भयानक धक्‍का पहुँचा। इससे कौन इनकार कर सकता है?”

(जारी)

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