— उमेश प्रसाद सिंह —
वसंत आने से सरस्वती पूजा की समितियाँ पैदा हो जाती हैं। पैदा होते ही प्रौढ़ हो जाती हैं। हमारे देश में विकास के उपान्त इलाकों की सड़कों पर मोटी रस्सी के बैरियर खड़े हो जाते हैं। भक्ति का बढ़ता हुआ पाखंड फैल जाता है, गाँव-गाँव। दबंगई के बल पर, गुंडई के बल पर, आतंक के बल पर भक्ति का परिचय हमको राजनीति ने ही दिया है। भिखमंगई की भक्ति हमारी परंपरा की भक्ति नहीं है।
सरस्वती की दुर्दशा के विस्तार के बीच सरस्वती की भक्ति की बाढ़ का समीकरण बड़ा जटिल समीकरण है। इस जटिल समीकरण को अर्थशास्त्र के गणित के पाठ से बाहर निकाल दिया गया है। हम उन्हीं चीजों को पढ़ाते हैं जिन्हें पढ़ाने में हमें सहूलियत हो। फेल किसी को होना ही नहीं है। फिर भी इम्तिहान देना है। पता नहीं कैसा इम्तिहान है। इम्तिहान है या मजाक है। वैसे भी जिन्दगी में कौन-सी चीज मजाक बनने से बची रह गयी है?
इन दिनों हमारे समय में सरस्वती सबसे अधिक मजाक की चीज बन गयी हैं। सरस्वती की पूजा करो तो भी मजाक। पूजा न करो तो भी मजाक। सरस्वती के पुत्रों को अपनी माँ की सुधि नहीं है। वे बेसुध हैं। माँ की खोज-खबर लेने की उनके पास फुरसत नहीं है। काम का बड़ा भारी बोझ है। आगे बढ़ने के काम का बोझ है। इस भार में वे इतने दबे-कुचले हैं कि खुद को ही सँभाल लें तो बड़ी बात है। नहीं, नहीं, माँ को याद रखना बड़ा मुश्किल है। माँ की याद से ग्लानि होती है। अपने निकम्मे होने पर पीड़ा होती है। बड़ी व्रीड़ा होती है। नहीं, संभव नहीं है।
लेकिन सरस्वती के नकली भक्तों की भीड़ ने उन्हें कसकर पकड़ लिया है। उनका अभियान सरस्वती के लिए नहीं है, उनकी विरासत के लिए है। विरासत के वैभव के लिए है। उनके लिए माँ से बड़ी चीज माँ की मिल्कियत है। उनके लिए पूजा की चीज मिल्कियत को हथियाने के हथकंडे हैं।
हमारी परंपरा में सरस्वती की विरासत सार्वजनिकता की विरासत है। अपने उपार्जित को दूसरों की भलाई के लिए बाँट देने की उत्कंठा ही सरस्वती की आराधना है। सरस्वती की उपासना का यह स्थूल रूप इतना स्पष्ट है कि साफ समझ में आ जाता है। सरस्वती की साधना गुह्य साधना नहीं है। सहज साधना है। सरल साधना है। सामाजिक साधना है। यह केवल वैयक्तिक साधना नहीं है। यह वैयक्तिक उपलब्धि को सामूहिक उपलब्धि में बदलने की साधना है। यह साधना सामूहिक उत्कर्ष की साधना है। ज्ञान, सूचना, जानकारी और तथ्य को सबके लिए सुलभ बनाकर मनुष्य जाति की अभ्युन्नति में योगदान ही सरस्वती की पूजा है। सरस्वती का सम्मान है। सरस्वती का विस्तार है। इसी माध्यम से सरस्वती की प्राण प्रतिष्ठा सरस्वती के पुत्र व्यापक रूप से प्राणों में करते रहे हैं। यही हमारा चिराचरित मार्ग है।
अब समय दूसरा है। संदर्भ दूसरे हैं। हम विकास के पीछे दौड़ रहे हैं। तेजी से दौड़ रहे हैं। आँख मूँदकर दौड़ रहे हैं। अपने रास्ते पर नहीं दौड़ रहे हैं। अपना रास्ता छोड़कर दौड़ रहे हैं। हम जिस रास्ते पर दौड़ रहे हैं, वह हमारा रास्ता नहीं है। हमारी परंपरा का रास्ता नहीं है। हमारे विश्वास का रास्ता नहीं है। हमारी आस्था का रास्ता नहीं है। मनुष्यता के उत्थान का रास्ता नहीं है। सामूहिक उत्कर्ष का रास्ता नहीं है। सहिष्णुता के संवर्धन का रास्ता नहीं है। सह-अस्तित्व के सम्मान का रास्ता नहीं है।
अब रास्ता प्रतिस्पर्धा का रास्ता है। दूसरों को पीछे धकेलकर आगे निकल जाने का रास्ता है। दूसरों का हक हड़पकर, दूसरों को हड़काकर धाकड़ बन जाने का रास्ता है। अपना वर्चस्व बनाकर औरों को हेकड़ी दिखाने का रास्ता है। अब हमारा रास्ता पाखंड के पुरजोर प्रदर्शन का रास्ता है। आटा पोतकर भंडारी बन जाने का रास्ता है। बिना हर्रे-फिटकरी लगाये रंग चोखा कर लेने का रास्ता है। अद्भुत रास्ता है। आश्चर्यजनक रास्ता है। असंभव की मृग मरीचिका का रास्ता है। पानी के लिए प्यासे-प्यासे दौड़ते-दौड़ते मर जाने का रास्ता है।
हम लोभ और लालच के रास्ते पर दौड़ रहे हैं। हमने शुभ और लाभ का रास्ता छोड़ दिया है। हमारी सरस्वती की पूजा का आयोजन भी लोभ की पूजा का, लाभ की पूजा का आयोजन बन गया है।
अब हमारे समय में सरस्वती के मंदिर कहीं नहीं हैं। अब सब सरस्वती के प्रतिष्ठान हैं। प्रतिष्ठानों की अपनी मिल्कियत है। मिल्कियत के मालिक हैं। अब विद्यालय, विद्यालय नहीं रहे। अब विद्यालय किसी के विद्यालय हैं। अब विद्यालय किसी के लिए विद्यालय हैं। अब विद्यालय किसी के लाभ के लिए विद्यालय हैं। अब विद्यालय मैनेजमेंट के बूते चलाये जाते हैं। मालिक के मुनाफे के लिए चलाये जाते हैं। विद्यालयों में नौकर रखे जाते हैं। नौकर आधे पेट पर मुनाफे का गुणा-गणित करने का काम करते हैं।
अब वहाँ सरस्वती के सारे आभूषण, सारे अलंकार बेचने की जुगत लगायी जाती है। बाजार में माँ के गहनों की ऊँची कीमत है। माँ तुम बैठी रहो अपने आसन पर। चुप रहो। बोलो मत। तुम्हारा भला क्या बिगड़ जाएगा। हाँ, अपनी छाँह में, अपने प्रभामंडल की छाँह में हमें अपनी दुकान चलाने दो। दुकान भले हमारी है तो क्या, नाम से तो तुम्हारे ही है। तुम्हारी क्रेडिट हम कैश करते रहें, इसमें तुम्हें नुकसान भी क्या है। आखिर हम न हों तो सोचो तुम्हारा नाम भी तो डूब जाने का खतरा है।
सच है। निःसंदेह सच है। सरस्वती के प्रतिष्ठानों को छोड़ दिया जाय तो सरस्वती के मंदिर कहाँ बचे हैं। अब सरस्वती कहाँ बची हैं। बचा है तो सरस्वती का ब्रांड बचा है। पूजा बची है, ब्रांड की पूजा बची है।
अब सरस्वती पूजा के वे ही अधिकारी हैं जिनकी उनमें कोई रुचि नहीं है, जिनकी सरस्वती की मर्यादा में कोई आस्था नहीं है, जिनका विद्या में कोई विश्वास नहीं है, जिनके लिए सामूहिक उत्थान का कोई मतलब नहीं है। अब पूजा करने में वे तत्पर हैं जो सारे सार्वजनिक को व्यक्तिगत में बदलने की तरकीब जानते हैं।
जो कुछ है, कैसे अपना हो जाय यही हमारी सरस्वती पूजा का मकसद हो गया है।
हमारी सरस्वती पूजा में, सरस्वती नहीं हैं, सरस्वती की मृण्मयी मूर्ति है। मूर्ति का विसर्जन है। सरस्वती नहीं हैं, सरस्वती का सिंहासन है। सरस्वती नहीं हैं, सरस्वती का ताज है। हमारी पूजा में शुभ नहीं है, लाभ है। समूह नहीं है, व्यक्ति है। प्राण नहीं है, प्रतिष्ठा है। आस्था नहीं है, प्रदर्शन है। वसंत में सरस्वती के प्राणों की वेदना व्याकुल है। शंख बज रहे हैं, ढोल-मजीरे बज रहे हैं, स्रोत गूँज रहे हैं, स्तुतियों का शोर फैल रहा है। तरह-तरह के शोर में सरस्वती की वेदना सुनाई नहीं देती है।