— पन्नालाल सुराणा —
(वरिष्ठ समाजवादी पन्नालाल सुराणा का यह लेख महात्मा गांधी के बारे में फैली या फैलायी गयी एक गलतफहमी का निराकरण करने का प्रयास करता है। यह लेख पहली बार सामयिक वार्ता के मई 2005 के अंक में प्रकाशित हुआ था।)
महात्मा गांधी ने वास्तव में अछूत प्रथा एवं समूचे जाति भेद को मिटाने के लिए भरसक प्रयास किये। लेकिन चंद दलित नेता उन्हें ‘दलित विरोधी’ मानते थे। उनकी मृत्यु के अट्ठावन साल बाद भी कांशीराम-मायावती जैसे राजनीतिक नेता हों, या बामसेफ संगठन के छोटे-मोटे पदाधिकारी हों, या डॉ. कांचा इलैया जैसे विश्वविद्यालयों में पढ़ानेवाले अध्यापक बुद्धिजीवी हों, सभी गांधीजी को दलितों का दुश्मन मानते हैं। इससे गांधीजी का कोई नुकसान अब होनेवाला नहीं है। लेकिन उनकी प्रेरणा पाकर राष्ट्रनिर्माण के काम में जुटे हजारों कार्यकर्ताओं को यह बात अखरती है। जाति प्रथा निर्मूलन के कार्य को प्रभावशाली बनाने के लिए दलित जाति में जनमे विचारक एवं कार्यकर्ताओं की भूमिका जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतनी ही अन्य जाति में पैदा हुए स्त्री-पुरुषों की सवर्ण समाज व अवधारणा एवं आदतें बदले के काम में शरीक होना जरूरी है। गांधीजी की भूमिका अगर गलत हो तो वैसा कहने में भी कोई हर्ज नहीं। लेकिन उस संबंध में गलतफहमी हो तो उसका निराकरण करना जरूरी है। भारतीय समाज को समता की दिशा में जो प्रगति करनी है, उस काम के लिए गांधीजी के विचार और कार्य से जो कुछ मार्गदर्शन तथा मदद मिल सकती है, वह लेनी चाहिए। परिवर्तनवादी आंदोलन को बलशाली बनाने में उससे मदद होगी।
दलितों के दो आक्षेप
बाबासाहब डॉ आंबेडकर से लेकर आज के कई जाने-माने दलित भाई-बहन गांधीजी की दो बातों का जिक्र करते हैं। गांधीजी ने वर्णाश्रम धर्म का समर्थन किया था, वह उनका एक मुद्दा है। दूसरी बात है, सन् 1932 का उनका अनशन तथा येरवदा पैक्ट। इन दो बातों की विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। लेकिन इसके पहले यह भी जान लेना चाहिए कि अछूत प्रथा के बारे में गांधीजी की निजी मानसिकता तथा आचरण कैसा था। उसकी जानकारी इस लेख में देने का इरादा है। बाद में वर्णाधर्म की तथा फिर येरवदा पैक्ट की चर्चा करेंगे।
अछूत प्रथा बचपन से नहीं जँची
भारत के पश्चिमी छोर पर गुजरात के कठियावाड़ इलाके के पोरबंदर गांव में 2 अक्टूबर 1869 को मोहनदास का जन्म हुआ। पिता करमचंद नागर बनिया जाति के थे। पोरबंदर तथा अन्य एक दो छोटी-छोटी रियासतों के दीवान के रूप में उन्होंने काम किया था। माँ पुतली बाई साधारण हिंदू या भारतीय स्त्री थीं। हर रोज भगवान के दर्शन करने हवेली (विष्णु मंदिर) जातीं, उपवास-व्रत रखतीं। परंपरागत दृष्टि से यह परिवार ऊँची जाति का माना जाता था। उनके घर का पाखाना साफ करने के लिए एक आदमी हर रोज आता था। काम पूरा करने पर उसे रोटी दी जाती थी। पुतली बाई छोटे मोहन को कहती, “जा उसे रोटी दे दे। लेकिन छूना मत।” बारह साल के मोहन ने पूछा, “क्यों? क्यों नहीं छूना उसे?”
“अरे, वह अछूत जाति का है, उसे छूने से पाप लगता है।”
“किसने कहा पाप लगता है?”
“अपना धरम कहता है रे जा, अब ज्यादा बातें मत कर।” माँ ने डाँटा।
अपने ही जैसे इंसान को छूने से पाप लगता है, यह बात छोटे-से मोहन को जँची नहीं। कभी-कभी वह उस आदमी को छू लेता। छुआछूत मानना जरूरी नहीं, वह गलत है। इतना उसने अपने मन में तय कर लिया।
घर में ‘मनुस्मृति’ पुस्तक थी, पिताजी व बड़े भैया ने मोहन को वह पुस्तक पढ़ने को कहा, उसने पढ़ी जरूर, लेकिन उसे रास नहीं आयी। शारीरिक श्रम का काम केवल शूद्र ही करें, ऐसा क्यों? जो काम अपने नित्य व्यवहार में आवश्यक है, वह करने में कोई हर्ज नहीं। कोई काम नीच नहीं हो सकता। जो भी शरीर श्रम का काम करना पड़े, मोहन स्वाभाविक रूप से करने लगा।
अठारह वर्ष की आयु में वह मैट्रिक परीक्षा पास हुआ, बैरिस्टर बनने इंग्लैंड गया। वहाँ किसी के घर में किराये से कमरा मिलना, भारतीयों के लिए आसान नहीं था। लेकिन एक गोरे आदमी ने मोहन की सहायता की। वह शुद्ध शाकाहारी था। शराब नहीं पीता था। पोरबंदर में ही चचेरे भाई के दोस्तों ने एक बार मोहन से कहा था, ताकतवर बनना है तो मांस-मछली खाना चाहिए। एक-दो बार उसने खाया। लेकिन रात को बड़ी परेशानी हुई। एक-दो बार उल्टी हो गयी। तबसे उसने मन में ठान लिया था कि मांसाहार कभी नहीं करूँगा। पढ़ाई के लिए परदेश जाते समय माँ ने कसम दिलायी थी कि मांस-मछली नहीं खाना, पर-स्त्री को नहीं छूना। लंदन में मोहनदास इसका पालन करता था। वहाँ कई ईसाई लोग भी शाकाहारी बने थे। वैसे होटल में तथा ‘वेजिटेरिअन सोसायटी’ में गांधीजी जाने लगे।
धर्मान्तरण को नकारा
भारत से इंग्लैंड आए हुए छात्रों को अपने समाज की कुरीतियों का भान होना, तथा अँगरेज समाज में जाति भेद या स्त्री-पुरुष विषमता नहीं है, सबको बराबरी से समाज सम्मान देता है, यह देखकर उन्हें अच्छा लगता है। ईसाई धर्म के कई प्रचारक ऐसे छात्रों को वह धर्म अपनाने का आग्रह करते। कुछ वैसा करते; कुछ नहीं करते, कई सज्जन ईसाइयों ने गांधीजी को भी उनका धर्म अपनाने को कहा। सभी मनुष्यों से प्रेम से बर्ताव करो, यह ईशू की सीख गांधीजी को भायी। लेकिन वह धर्म अपनाने के लिए अपना धर्म छोड़ना होगा, तो क्या उसमें सब खराबी ही खराबी है, अच्छाई कुछ नहीं है क्या? यह सवाल उनके मन में उछल आया। राजकोट के एक व्यापारी रायचंद भाई से गांधीजी हमेशा सलाह लेते रहते थे। हिन्दू धर्म की सही पहचान हो, इसके लिए क्या पढ़ूँ– यह पूछने पर रायचंद भाई ने ‘गीता’ का नाम सुझाया। गांधीजी ने ‘गीता’ गौर से पढ़ी। उसमें अन्याय का प्रतिकार करो, मन स्थिर रखकर अपने कर्तव्य का पालन करो, संग्रह वृत्ति छोड़ दो– ऐसी हिदायतें दी हैं, ऐसा गांधीजी को लगा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है –“ईसाई धर्म परिपूर्ण या महान है, ऐसा मानने का मेरा मन नहीं हुआ, हिन्दू धर्म वैसा है, ऐसा भी मुझे नहीं लगा। हिन्दू (समाज) की कई खराबियाँ तो स्पष्ट दिख रही थीं। अछूत प्रथा अगर हिन्दू धर्म का हिस्सा है तो (ऐसा धर्म के रखवाले कहते हों तो) वह बड़ा ही सड़ा-गला हिस्सा है, या बाहर फेंकी हुई गंदगी है। हिन्दू धर्म में इतने पंथभेद और इतनी जातियाँ क्यों है, उनके अस्तित्व का आधार क्या है? वेद ईश्वर की देन हैं, ऐसा मानने का क्या मतलब है? बाइबिल या कुरान को भी वैसा क्यों नहीं माना जाए?”
अछूत के बर्तन की सफाई का मामला
सन् 1899 की घटना है। गांधीजी उस समय दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में रहते थे। अपने दफ्तर में मदद करनेवाले को अगर रहने की सुविधा नहीं होती तो गांधीजी उसे अपने घर में ही रख लेते। एक दक्षिण भारतीय, जो मूल रूप से अछूत परिवार में जनमा था, लेकिन जिसने बाद में ईसाई धर्म को अपनाया था, उनके सहायक के रूप में काम करने आया। गांधीजी उसे अपने साथ घर ले गए। बाथरूम में एक बर्तन रखा हुआ रहता जिसमें पाखाना करना, बाद में उसे बाहर गड्ढ़े में फेंककर मिट्टी से ढंकना तथा बर्तन वापस बाथरूम में रखना– ऐसा सिलसिला परिवार में चल रहा था। उस सहायक ने बर्तन में पाखाना तो किया, लेकिन उसे बाहर ले जाकर साफ नहीं किया। बाथरूम साफ करने कस्तूरबा गयीं तब उन्हें वह दिखायी दिया। बर्तन मैं साफ करूँ, यह उनको जँचा नहीं, बापू ने देखा कि बा हिचकिचा रही हैं तो वे गुस्से में आकर बोले आपको इस घर में रहना हो तो यह बर्तन साफ करना पड़ेगा। इस पर गुस्से में बा बोली “मैं घर छोड़ कर चली जाती हूँ” तो बापू उन्हें सचमुच दरवाजे के बाहर ढकेलने लगे। तब बा बोली “इस परदेश में मेरा कौन है सगेवाला? – मैं कहाँ जाऊँ? और फिर, यह भी सोचो। लोग क्या कहेंगे?गांधी ने अपनी पत्नी को घर से बाहर निकाल दिया तो अपने पूरे परिवार की इज्जत जाएगी।”
अपनी आत्मकथा में बापू ने आगे लिखा है – “बा के वे शब्द सुनकर मेरी आँखें खुल गयीं। कितना घोर अन्याय मैं करने जा रहा था। घर केवल पति का नहीं होता, पत्नी का भी उस पर उतना ही अधिकार होता है। मेरी एक बात बा ने नहीं मानी तो मैं उसे घर से बाहर जाने को कहूँ- यह तो बड़ा अन्याय होनेवाला था। अच्छा हुआ, बा ने मुझे ठिकाने पर लाया।’’
बापू वह बर्तन उठाने लगे तो बा ने लपककर वह उठा लिया। बाहर ले जाकर साफ किया। तब से वैसे काम करने में कभी हिचकिचायी नहीं। हालांकि घर आए हुए मेहमान को बर्तन साफ करने जैसी सभी बातें शुरू में ही समझा देने का सिलसिला शुरू हुआ। पाखाना साफ करने का काम गांधी परिवार अपने आप करता रहा।
(जारी)