भूमि कटाव से उजड़ती जिन्दगियाँ

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हमारे देश में लाखों परिवार ऐसे हैं जिनके आवास या कृषि-भूमि या दोनों, नदियों द्वारा भूमि-कटान की प्रक्रिया में छिन चुके हैं। चाहे पश्चिम बंगाल का मालदा व मुर्शिदाबाद का क्षेत्र हो या उत्तर प्रदेश के गाजीपुर व बहराइच का, चाहे असम के गाँव हों या बिहार के। आज देश में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ बड़ी संख्या में लोग भूमि-कटान में अपना सब कुछ खोकर पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं।

असम में तो राज्य-स्तर पर यह अति महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। वजह स्पष्ट है कि उपलब्ध अनुमानों के अनुसार आजादी के वर्षों में अभी तक असम की लगभग 4 लाख हेक्टेयर भूमि को नदियाँ लील चुकी हैं। यह समस्या यहाँ दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी पहल न होते देख यहाँ की राज्य सरकार ने राज्य स्तर पर भूमि-कटान पीड़ितों के लिए मुख्यमंत्री की एक विशेष योजना आरंभ की है पर अभी यह उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सकी है।

हाल के समाचारों के अनुसार 15वें वित्त आयोग द्वारा नदी से भूमि-कटान को नेचुरल कैलेमिटी या प्राकृतिक आपदा के रूप में मान्यता दी जाएगी जिससे भूमि-कटान से पीड़ित परिवारों को नयी उम्मीद मिल सकती है। पर अभी इस राहत के संदर्भ में असम और पश्चिम बंगाल का नाम ही अधिक आ रहा है, जबकि उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में भी इस आपदा पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। यदि उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो गाजीपुर, बहराइच और पीलीभीत जैसे जिलों में यह समस्या गंभीर रूप में उपस्थित है। गंगा व ब्रह्मपुत्र नदियों के अतिरिक्त घाघरा व महानदी जैसी अन्य नदियों के संदर्भ में भी इस समस्या का आकलन करना चाहिए। तुहिन दास, सुशील हालदार व अन्य अनुसंधानकर्ताओं के एक शोध-पत्र के अनुसार उत्तर प्रदेश में घाघरा नदी के आसपास भूमि कटान से प्रभावित होनेवाले परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। उनमें से अनेक बुरी तरह उजड़ चुके हैं पर उनकी क्षतिपूर्ति बहुत कम हुई है। इस प्रकार उनकी पलायन की मजबूरी बहुत बढ़ गयी है।

भूमि-कटान में परिवारों का आवास छिन जाता है, उनकी क्षति तो बहुत होती है पर प्रायः दूसरा स्थान घर बनाने के लिए मिल जाता है। कभी-कभी तो कटान की भारी संभावना उपस्थित होने पर लोग स्वयं अपने घर तोड़ने के लिए विवश होते हैं, ताकि इसकी ईंटों व अन्य सामान का उपयोग वे कहीं और घर बनाने के लिए कर सकें। पर जिनकी कृषिभूमि छिन जाती है उनकी आजीविका का निश्चित स्रोत प्रायः सदा के लिए छिन जाता है। पुनर्वास की कोई योजना न होने के कारण प्रायः ये परिवार प्रवासी मजदूरी पर निर्भर हो जाते हैं।

यही वजह है कि पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद हो या उत्तर प्रदेश का गाजीपुर जिला, प्रायः नदी-कटान प्रभावित परिवारों में प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता बहुत अधिक दिखायी देती है। ऐसे अनेक समुदायों में प्रवासी मजदूरी ही आय का मुख्य स्रोत बन जाता है। हाल के समय में जिस तरह प्रवासी मजदूरों की आय कम हुई व समस्याएँ बढ़ीं, तो नदी-कटान प्रभावित परिवारों की समस्याएँ भी तेजी से बढ़ गयी हैं।

जिस तरह की स्पष्ट मान्यता बाढ़ या चक्रवात जैसी आपदाओं को प्राप्त है वह मान्यता भूमि-कटान को प्राप्त न होने के कारण इन परिवारों के लिए उचित पुनर्वास व राहत का कार्यक्रम नहीं बन पाया है। यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर नदी-कटान प्रभावित लोगों की संख्या व उनकी क्षति के बारे में प्रामाणिक जानकारी भी प्राप्त नहीं है, जबकि राहत व पुनर्वास योजना के लिए यह पहली जरूरत है। अब हाल के समय में संकेत मिले हैं कि यह स्थिति बदल सकती है। अतः अब तो और भी जरूरी हो गया है कि इस समस्या से प्रभावित परिवारों की सही जानकारी उपलब्ध हो।

देश में जो क्षेत्र नदी-कटान से अधिक प्रभावित हैं वहाँ के बारे में प्रामाणिक जानकारी एकत्र कर राष्ट्रीय स्तर की राहत व पुनर्वास योजना आरंभ करनी चाहिए। असम जैसे राज्यों में जहाँ इस दिशा में पहले ही कुछ पहल हो चुकी है, उसके अनुभवों से भी सीखना चाहिए।

राहत पहुँचाने के अतिरिक्त इस समस्या को कम करने के प्रयास भी होने चाहिए। कुछ हद तो नदी द्वारा भूमि-कटान एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो चलती रहेगी, पर यह जरूर प्रामाणिक स्तर पर पता लगाना चाहिए कि किन स्थितियों में यह समस्या बढ़ती है तथा अधिक भीषण रूप लेती है।

इस बारे में सही समझ बनाकर नदी-कटान से होनेवाले विनाश को कम करने के सफल प्रयास हो सकते हैं। कुछ तटबंधों व बैराजों के बारे में कहा गया है कि इनके बनने के बाद कुछ क्षेत्रों में नदी-कटान की समस्या बहुत बढ़ गयी है। यह बहुत जरूरी है कि पिछले अनुभवों से हम सही सबक ले सकें। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो यह समस्या बढ़ती ही जाएगी और इसे सँभालना बहुत कठिन हो जाएगा।

इस बारे में सही समझ बनाने के लिए विशेषज्ञों के अतिरिक्त समस्या से प्रभावित परिवारों/ समुदायों व नदियों के आसपास के मछुआरों आदि से भी परामर्श करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति के बदलते रंग-रूप की अधिक विस्तृत और बारीक समझ उनके पास हो सकती है। इस तरह जमीनी जानकारी व विशेषज्ञों की राय में समन्वय से सही स्थिति सामने आएगी और सही नीतियाँ भी बन सकेंगी। आगामी दशक में नदियों के भूमि-कटान के विनाश को कम करने तथा प्रभावित होनेवाले समुदायों को राहत व पुनर्वास पहुँचाने के दो पक्षों को मिलाकर महत्त्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है।

–  भारत डोगरा

( सप्रेस )

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