भाजपा के वोट तो गैय्या चर गयी’, समाजवादी पार्टी के एक समर्थक ने अपनी तरंग में कहा। चुनावी नतीजों के बारे में आप इस समर्थक के पूर्वानुमान का अंदाजा लगा सकते हैं। उसका कहना था कि सूबे में जारी चुनावों में भाजपा चारों खाने चित होने जा रही है। उत्तरप्रदेश की एक अच्छी बात यह भी है कि यहां आपको हर कोई चुनाव-विज्ञानी (सेफोलॉजिस्ट) मिलेगा। सो, सेफोलॉजिस्ट के रूप में अपने पिछले जन्म के संस्कारों के कारण चुनाव-परिणामों के पूर्वानुमान को लेकर खुद से मेरी जो अपेक्षाएं रह गयी हैं, वे इस बार मुझपर हावी नहीं हो पा रहीं। हां, मुझे ये बात मानीखेज लगी कि शायद ये एक मुद्दा (समाजवादी समर्थक के शब्दों में कहें तो भाजपा के वोट गैय्या चर गयी) हर जगह तुरुप का पत्ता साबित हो। इसी खयाल ने मुझे सोचने को उकसाया कि क्या कोई एक मुद्दा इस बार यूपी के चुनावों में सारे मुद्दों पर हावी है और अगर ऐसा है तो वो एक मुद्दा क्या हो सकता है।
पिछले एक पखवाड़े से मैं उत्तर प्रदेश के दौरे पर हूं। कोरोना की जो तीसरी लहर है और इस तीसरी लहर के साथ-साथ जो सर्द हवाओं वाली शीतलहर है— इन दोनों के लिए इस बार मेरे मन में धन्यवाद का भाव है क्योंकि सिर पर टोपी और मुंह पर मास्क चढ़ाने में पहली बार कोई कोफ्त महसूस नहीं हो रही। नेतागीरी के दैनिक कर्तव्य जैसे बैठक, भाषण और प्रेस-सम्मेलन वगैरह तो निभा ही रहा हूं लेकिन इस सब के बीच थोड़ा सा समय निकाला है कि अपने परिचितों के दायरे से बाहर के लोगों से, जिनसे कभी मिला नहीं, जिन्हें कभी जाना नहीं, उनकी बातों को सुनूं, उनसे पूछूं और कुछ समझूं। अपने पूर्व जन्म यानी सेफोलॉजिस्ट के रूप में मैं जो फील्डवर्क किया करता था, यह कुछ वैसा ही काम है। अब ये तो नहीं कह सकते कि लोगों से हुई अपनी इस मानीखेज बातचीत को मैं किसी अच्छे सैंपल सर्वे या एक्जिट पोल का विकल्प मान लूं और इसके आधार पर पूर्वानुमान लगाऊं कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलने जा रही हैं या फिर यह कि किसका कितना वोट इस बार किस तरफ खिसक रहा है लेकिन इतना जरूर है कि लोगों से हुई बातचीत से एक अंतर्दृष्टि मिली है कि चुनाव परिणाम किन बातों पर निर्भर रहनेवाला है।
लोगों से हुई बातचीत से मेरे मन में इस खयाल ने सिर उठाया कि मसले तो मौजूद हैं लेकिन वे मुद्दा नहीं बन पाये। ‘अंकल, क्या आप यकीन करेंगे कि मुझे टोकन नंबर 272 मिला था?’ मैं हिन्द मजदूर सभा से जुड़े एक मशहूर मजदूर-नेता स्वर्गीय त्रिपाठीजी के घर पर था तो उनके बेटे ने ये बात मुझसे कही। कानपुर में, कोविड की दूसरी लहर में त्रिपाठी जी की मृत्यु हुई। नोएडा में प्रौद्योगिकी से जुड़ी नौकरी करनेवाला उनका बेटा मुझसे अपने दुख साझा कर रहा था कि पिछले साल 25 अप्रैल को जब अपने पिता के शवदाह के लिए वह श्मशान घाट पहुंचा तो उसके साथ क्या-क्या हुआ। उसका अनुमान था कि कानपुर के 14 श्मशान घाटों में हरेक पर उस रोज 200 से 400 यानी कुल मिलाकर 3000-4000 चिताओं को अग्नि दी गयी होगी। अगले रोज अखबारों में छपा कि कानपुर में कोविड से 40 लोगों की मौत हुई। वह पीड़ा के इस अनुभव को भुला नहीं पा रहा था- ‘यहां मैं जिस भी परिवार को जानता हूं, वे सब ही उन हफ्तों में किसी ना किसी संत्रास से गुजरे। लेकिन अंकल, चुनावों के वक्त इसकी कोई बात नहीं कर रहा। जो सवाल पूछे जाने चाहिए, उन्हें कोई पूछ ही नहीं रहा।’
त्रिपाठी जी के लड़के ने बात बिल्कुल पते की कही। दस-ग्यारह दिनों के दरम्यान हम लोगों ने जिन सैकड़ों लोगों से बात की उनमें से किसी ने भी जबतक पूछ न लिया गया तब तक कोविड के बारे में एक शब्द न कहा। उत्तर प्रदेश में कोविड के कारण हुई मौतों की संख्या 5 से 10 लाख के बीच हो सकती है। चूंकि ऐसी भयावह त्रासदी के साल भर के अंदर ही चुनाव हो रहे हैं तो आपको निश्चित ही उम्मीद होगी कि कोविड से हुई मौतों का सवाल एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा। लेकिन कोई भी इसकी बात नहीं कर रहा, यहां तक कि विपक्ष भी कोविड से हुई मौतों के बारे में अपने होंठ नहीं खोल रहा। जब आप कोविड से हुई मौतों के मामले को उठाते हैं, लोगबाग आपको इससे जुड़े अपने दुख-संताप की बात यों सुनाने लगते हैं मानो कोई प्राकृतिक आपदा आयी थी, जिसपर किसी का वश नहीं चलनेवाला। लेकिन फिर इसी क्रम में कुछ ऐसे मसले भी हैं जिन्हें यों तो लोगों का वास्तविक मुद्दा नहीं कहा जा सकता मगर बीजेपी ने ये आस जरूर लगायी थी कि ऐसे मुद्दे जोर पकड़ेंगे। बीजेपी का दुर्भाग्य कहिए कि हमलोगों ने जितने लोगों से बात की उनमें से किसी ने काशी-विश्वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार या फिर अयोध्या-काशी का मसला नहीं उठाया।
कानून और व्यवस्था का मुहावरा और मुसलमान
मुझे कुछ चौंकाऊ मुद्दों का पता चला। दिल्ली से लगते उस बड़े इलाके में जिसे अलां या फलां नोएडा के नाम से पुकारा जाता है, दादरी और उसके अड़ोस-पड़ोस में कायम यूपी के बने, अध-बने और ना-बने से कस्बों में जहां कहीं चले जाइए, आपको दीख पड़ेगा कि बीजेपी एक संवेदनशील मुद्दे पर पिछड़ रही है। कुछ माह पहले योगी आदित्यनाथ की सरकार ने 9वीं सदी के गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासक, प्रसिद्ध राजा मिहिर भोज की प्रतिमा का अनावरण किया लेकिन प्रतिमा के नाम-पट्ट से गुर्जर शब्द गायब था। ताकतवर और मुखर गुर्जर (इन्हें गुज्जर भी कहा जाता है) समुदाय ने इस बात को अपनी नाक का सवाल बनाया और प्रतिकार किया, गुर्जर समुदाय को लग रहा है कि उनके गौरव के प्रतीक को एक खास रंग-ढंग में ढालकर सांस्कृतिक तौर पर अनुकूलित करने की कोशिश की जा रही है। यूपी में, पहले चरण के चुनावों में यह एक ज्वलंत मुद्दा था। जयंत चौधरी ने इस मुद्दे को भुनाते हुए ऐलान किया कि जेवर एयरपोर्ट का नाम गुर्जर राजा मिहिर भोज एयरपोर्ट रखा जाएगा।
इसके अतिरिक्त कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो यों तो बड़े प्रकट हैं लेकिन उनसे निकलता संदेश मुखर नहीं हो पा रहा। पश्चिमी यूपी में हर कोई गुंडागर्दी की बात कर रहा है। बीजेपी के दर्दमंदों का दावा है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने ‘बहन-बेटियों की सुरक्षा’ सुनिश्चित की है। क्या समाजवादी पार्टी की सरकार के समय बहन-बेटियों की इस सुरक्षा में गड़बड़ी थी? हां, गड़बड़ी थी—आपको तुरंत ही जवाब मिलता है। सामनेवाले को कुछ और कुरेदिए और पूछिए कि क्या आसपास ऐसी कोई घटना हुई थी और वह ऐसी घटना को याद करने की कोशिश में बगले झांकने लगता है। फिर भी, ये मुद्दा है जरूर और अखिलेश यादव जितना बताना-जताना चाह रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा बड़ा मुद्दा है।
इलाके में लोगों से बात करते हुए आपको जल्दी ही अहसास हो जाएगा कि ‘कानून-व्यवस्था की अच्छी हालत’ का लोगों के लिए एक खास मतलब है— उनके लिए इस मुहावरे का मतलब है ‘मुसलमानों को उनकी सही जगह’ दिखा देना। ‘जैसे सर्दी में कबूतर चुपचाप बैठता रहता है ना एक जगह फूलकर, वैसे मुसलमान बैठे हैं पिछले पांच साल से।’ सर्दी-गर्मी के मौसम के हिसाब से कबूतरों के ऐसे बरताव को लेकर मुझे कुछ भी असहज नहीं लगता लेकिन कबूतरों की उपमा के सहारे जो बात मुझसे कही गयी, वो अपने मायने में बड़ी गहरी थी। ज्यों-ज्यों चुनाव के प्रचार-अभियान पर रंग चढ़ता जा रहा है, बीजेपी तुरुप के इस पत्ते का इस्तेमाल सारे मुद्दों पर पानी फेर देने की जुगत के रूप में कर रही है। लेकिन पश्चिमी यूपी से मध्य यूपी की तरफ जाते हुए मुझे जान पड़ा कि ये मुद्दा अपनी धार में बहुत कुछ कुंद होता जा रहा है। तो फिर, दरअसल यहां मुद्दा है क्या—कानून-व्यवस्था का मामला या मुसलमान?
‘हमारे पास सबकुछ है’
महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी जैसे मुद्दों का क्या? यह आलम तो आपको हर तरफ पसरा नजर आता है। मेरे लिए दलित पासी समुदाय के उन दो बुजुर्गों को भुला पाना मुश्किल है (मायावती के शासन में पुलिस ने अवैध शराब बनाने के आरोप में छापा मारा था, तभी से दोनों बेरोजगार हैं) जो बता रहे थे कि उनकी जिन्दगी बेहतरी की दिशा में बदल चुकी है- ‘पहले कहां कुछ था, अब तो सबकुछ है।’ मैंने सिर घुमाकर चारों तरफ देखा कि जिसे ‘सबकुछ’ कहा जा रहा है वो कहीं दिख जाए लेकिन मुझे तो यही दिखा कि आसपास घास-फूस से बनी छपरी है, महिलाओं के शरीर पर गर्म कपड़े नहीं हैं, बच्चे कुपोषण की जकड़ में हैं और गलियों में कूड़ा-कर्कट का ढेर लगा है। किसी ने सच ही कहा है कि सुन्दरता की तरह, वंचना की स्थिति भी अक्सर देखनेवाले की आंख में हुआ करती है।
हर कोई महंगाई का दुखड़ा रोने के लिए तैयार बैठा है, पेट्रोल और रसोई गैस के चढ़े दाम वह अंगुलियों पर गिनाने लगता है। लेकिन इससे जाहिर नहीं हो पाता कि महंगाई की मुश्किल उनके लिए इस चुनाव में कोई मुद्दा है या नहीं। महंगाई के लिए मोदी या योगी को दोष देनेवाले हर दो व्यक्ति में एक आपको ऐसा मिलेगा जो कह रहा होगा कि महंगाई का होना देश की आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरी है। लोगबाग बेरोजगारी का जिक्र कुछ इस भाव से कर रहे थे मानो वह कुदरत की देन हो। हां, कुछ पढ़े-लिखे और सरकारी नौकरी की आस लगाये नौजवान जरूर मिले जो जबानी गिना रहे थे कि कितनी वैकेन्सिज नहीं भरी गयीं, कितनी परीक्षाएं नहीं हुईं, कितनी परीक्षाओं के पेपर लीक हुए और किन-किन इंटरव्यू में ‘फिक्सिंग’ हुई। लोगों में अपनी आर्थिक दशा को लेकर बेचैनी तो दिखी लेकिन सत्ता-विरोध की वैसी कोई लहर न दिखी जो जातियों के उस चश्मे की काट कर सके जिसके सहारे हर कोई हरेक तथ्य को देख और दिखा रहा था।
इसी तरह, हर कोई कोटेदार के मार्फत दिये जा रहे अतिरिक्त राशन की बात बताता हुआ मिलेगा आपको (यूपी में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की राशन-दुकान को कोटेदार की दुकान के नाम से जानते हैं)। हर कोई यह मानने को राजी है कि महामारी के दिनों में राशन की आपूर्ति संतोषजनक रही और उसमें भेदभाव नहीं हुआ। लेकिन, इससे ये जाहिर नहीं होता कि चुनाव में यह कोई मुद्दा है। बीजेपी के समर्थक राशन मुहैया कराने की बात को सूबे में जारी ‘सुशासन’ और उसके असांप्रदायिक रवैये के सबूत के तौर पर गिनाते हैं। लेकिन, बाकी लोगों का कहना था कि जो अतिरिक्त अनाज दिया जा रहा है वह चंद दिनों की बात है, इसे बस चुनाव के पूरे होने तक जारी रहना है। बात चाहे जो भी है, ये तो जाहिर ही है कि लोगों को अतिरिक्त राशन के रूप में जो कुछ एक हाथ में मिला उसे महंगाई के रूप में दूसरे हाथ से झटक लिया गया। तो मसला बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि आप अतिरिक्त राशन मुहैया कराये जाने की बात को घुमाते किस तरफ हैं।
गैय्या की बात तो रह ही गयी…
आइए, फिर से गैय्या पर लौटें यानी उस बात पर जिससे इस लेख की शुरुआत हुई थी। आप किसानों के किसी समूह से बात कीजिए, पांच मिनट भी पूरे नहीं होंगे कि वह समूह छुट्टा घूमते गाय-बैल की परेशानी की बात पर आ जाएगा। किसान बताने लगते हैं कि छुट्टा घूम रहे गाय-बैलों के कारण उन्हें फसल का कितना नुकसान उठाना पड़ा, वे गिनाने लगते हैं कि खेतों में बाड़ और कांटेदार घेरे लगाने के लिए उन्हें कितनी रकम लगानी पड़ी और कैसे भूखा सांड ऐसे घेरे को भी फांदकर खेत में आ धमका। किसान बताते हैं कि जाड़े की रात में उन्हें मचान लगाकर खेतों की रखवाली करनी होती है। इसकी वजह हर किसी को पता है। गोकशी पर प्रतिबंध है और गौ-गुंडों के तांडव का भी डर है सो सूबे में पशु-व्यापार एकदम ठप पड़ा है। किसान बछड़े को बड़ा होने पर अपने पास रखना नहीं चाहते क्योंकि उसके दाना-पानी पर खर्च करना होगा, यही बात दूध देना बंद कर चुकी बूढ़ी गायों के मामले में भी है।गोशालाएं सिर्फ कहने भर को हैं, ज्यादातर तो वे कागज पर ही विराज रही हैं। जो इनी-गिनी गोशाला कायम हैं वहां भ्रष्टाचार ने अड्डा जमा रखा है। हालत ये है कि बीजेपी के समर्थकों तक को गो-रक्षा की दावेदारी का श्रेय लेने में हिचकिचाहट हो रही है। आपको यूपी में चारों तरफ छुट्टा, भूखे और आक्रामक पशुओं का झुंड विचरता हुआ दीख पड़ेगा।
हर किसी को पता है कि इस मुश्किल का निदान क्या है— या तो बड़े पैमाने पर गोशालाओं का निर्माण हो या फिर पशु-व्यापार और मांस-व्यापार को अनुमति दी जाए। अखिलेश यादव को पता है कि यह एक मुद्दा यूपी के ग्रामीण अंचलों में बाकी सारे मुद्दों पर भारी पड़ सकता है। लेकिन अखिलेश पसोपेश में हैं : वे ऐसा कोई उपाय नहीं सुझा सकते कि उसे गो-हत्या का मुद्दा बना दिया जाए।
तो फिर यूपी के इन चुनावों का मुद्दा क्या है? इस सैद्धांतिक से सवाल पर सोचने-विचारने में मेरी मदद एक जमीनी स्तर के सेफोलॉजिस्ट ने ही की। उसका कहना था : ‘देखिए, इश्यू कुछ होता नहीं है, इश्यू बनाने से बनता है।’ मैंने इस सूझ को नोट कर लिया है और आनेवाले दिनों में जब ‘ह्वाट दे डोन्ट टीच यू इन पॉलिटिकल साइंस’ (राजनीति विज्ञान की किताबों में क्या छिपाया जाता है) नाम की किताब लिखूंगा तो इस सूझ का इस्तेमाल करूंगा। अभी तो मुझे 10 मार्च की सांझ तक इंतजार करना होगा कि चुनाव परिणाम आएं तो पता चले कि जनादेश किन मुद्दों पर आया है। लेकिन इन्हीं खयालों में खोये मेरे दिमाग में यह भी कौंधा कि जनादेश दरअसल कुछ होता नहीं है, जनादेश तो बनाने से बनता है। जी हां, चुनावी जनादेश अपने से कुछ नहीं कहता—सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप जनादेश की व्याख्या किस तरह करते हैं।
(द प्रिंट से साभार)