गांधी और दलित : चौथी किस्त

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— पन्नालाल सुराणा —

वर्णाश्रम धर्म का जिक्र

न् 1920 में गांधीजी ने यंग इंडिया नामक साप्ताहिक शुरू किया। 5 सितंबर, 1921 के अंक में प्रकाशित लेख में उन्होंने लिखा आर्थिक दृष्टि से एक समय उसका (वर्णाश्रम का या जाति व्यवस्था का) बड़ा महत्त्व था। पैतृक कुशलता का जतन करना, प्रतिद्वंद्विता को सीमित रखना उसी के कारण संभव हुआ। भिखमंगापन रोकने का वही कारगर तरीका था। व्यवसायी संघ से जो अनुकूलता मिलती है, वह सब उस व्यवस्था से मिलती रही। यह सच है कि उसने साहसिकता या नयी खोज को बढ़ावा नहीं दिया। लेकिन उस दिशा में प्रयास करनेवालों के मार्ग में रोड़े डाले, ऐसा भी कोई नहीं। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो ऐसा कह सकते हैं कि भारतीय समाज की प्रयोगशाला मानव को जाति व्यवस्था के रूप में समायोजन करने की जाति व्यवस्था एक कोशिश थी। अमर्यादित संग्रह की लालसा से पैदा होनेवाली प्रतिद्वंद्विता तथा सामाजिक विघटन से बचने के बेहतरीन तरीके के रूप में हम जाति व्यवस्था को कारगर ढंग से चलाकर दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं।

पश्चिम यूरोप में पनपी हुई औद्योगिक (पूँजीवादी) अर्थव्यवस्था तथा सभ्यता के गांधीजी बड़े आलोचक थे। जॉन रस्किन तथा टॉल्सटॉय ने उस व्यवस्था पर जो टिप्पणी की, उससे गांधीजी सहमत थे। संपत्ति का केंद्रीकरण तथा व्यापार-उद्योग में चलनेवाली प्रतिद्वंद्विताके कारण श्रमिकों का शोषण होता है। अन्य कई सामाजिक बुराइयाँ बढ़ती हैं, ऐसा उन्हें लगता था। वे उस व्यवस्था का अच्छा विकल्प ढूंढ़ रहे थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत में रोजगार की तथा कई जीवनावश्यक वस्तुओं की कमी साधारण आदमी को तबाह कर रही थी। अपने देशवासियों को रोजी-रोटी उपलब्ध कराने का प्रयास करना यह स्वतंत्रता आंदोलन चलाने की सही दिशा हो सकती है। सन् 1917 से उन्होंने चरखे पर सूत कातना शुरू किया था। अपने देश में सदियों से चलते आए कुटीरोद्योगों का पुनर्जीवन करने से रोजी-रोटी का सवाल हल कर सकेंगे, ऐसा उन्हें लगता था। उस भूमिका से उन्होंने वर्णाश्रम या वर्ण धर्म का समर्थन किया। अपने बच्चों के जीवनयापन की व्यवस्था करवा देना माँ-बाप की जिम्मेदारी होती है। हर कोई अपना पैतृक पेशा अपनाता रहे, इससे प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा नहीं मिलता। अपना पेशा अपनी संतान को सिखाना माँ-बाप के लिए आसान रहता है। वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने के पीछे गांधीजी की इतनी ही इच्छा या दृष्टि थी।

वर्णाश्रम का समर्थन करने से परंपरागत उच्च जातीय भाव कायम रहेगा, पुरोहित वर्ग का वर्चस्व बना रहेगा तथा अछूत प्रथा मिटाना असंभव होगा ये बातें जब उनके सामने रखी गयीं तो वैदिक ग्रंथों का आलोड़न करना उन्होंने चालू किया। उन्हें अछूत प्रथा का न तो उन ग्रंथों में जिक्र मिला ना ही समर्थन। अछूत प्रथा निर्मूलन का प्रचार वे उसी समय से कर रहे थे।

गांधीजी के इस मत पर बड़ा विवाद चलता रहा। कई अलग-अलग पहलू सामने आए। उनके नजदीकी साथियों ने बात चलायी कि उन्हें जो शुद्ध श्रम विभाजन के रूप में वर्णधर्म अभिप्रेत है, वैसी वास्तविकता नहीं है। वास्तव में जन्माधारित जाति व्यवस्था चल रही है। दो जातियों के बीच रोटी या बेटी का व्यवहार नहीं होता। अपने को ऊँची जाति के माननेवाले लोग नीची मानी गयी जाति के आदमी के हाथ से पानी तक नहीं लेते। अछूत मानी गयी जातियों पर कई तरह के अत्याचार थोपे जाते हैं। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने 1931 में एक लेख में लिखा-

मैंने यह बार-बार कहा है कि आज जो जाति व्यवस्था चल रही है, उस पर मेरा बिल्कुल विश्वास नहीं है। इंसान की तरक्की के रास्ते में वह रोड़े डालनेवाली तथा बड़ी गंदी चीज है जो फेंक देने लायक ही है। आदमी-आदमी में ऊँच-नीच व विषमता है यह मैं कतई नहीं मानता। हम सब लोग पूरी तरह समान हैं। लेकिन समता आत्मा की है, शरीर की नहीं। वह मानसिक अवस्था है। हमें हमेशा समता का विचार करना चाहिए तथा वैसा आचरण करने का आग्रह रखना चाहिए। आज दुनिया में विषमता बहुत बढ़ गयी है। इस बाहरी विषमता के बीच रहते हुए हमें समता स्थापित करनी है। एक आदमी को दूसरे से ऊँचा कहना तो ईश्वर तथा मानवता के खिलाफ पाप करना है। हैसियत तथा औकात में असमानता दर्शानेवाली जाति एक दुष्ट प्रवृत्ति है।

(यंग इंडिया 4.6.1931)

तत्पश्चात गांधीजी ने वर्णाश्रम का कभी भी समर्थन नहीं किया। जाति प्रथा मुझे बिल्कुल मंजूर नहीं, ऐसा सन् 1931 के लेख में स्पष्टतः कहा है तथा बाद में कभी भी वर्णाश्रम का जिक्र नहीं किया है, तो वे वर्णाश्रम धर्म के समर्थक थे, ऐसा कहना या मानना ठीक नहीं।

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