
— डॉ. भोला प्रसाद सिंह —
यह डायरी शैली में लिखी एक औपन्यासिक कृति लगती है जिसमें स्थान, पात्र, घटनाएँ सब वास्तविक हैं, लेकिन रचनात्मक कल्पना के बिना यह पाठकों कोबाँधने में सफल नहीं हो पाती। प्रतिबद्धता और उर्वर कल्पना के मिश्रण से हीऐसी ही रचनाएँ आकार लेती हैं। शीर्ष कवि और उपन्यासकार विनोद कुमारशुक्ल का इस डायरी को एक बैठक में पढ़ जाना इसकी रचना–शक्ति को व्यक्तकरता है। इसके आवरण पर उनकी एक लघु टिप्पणी छपी है जो इसके रचना–वैशिष्ट्य को रेखांकित करती है– “इसकी मौलिक रचनात्मकता मुझे आकर्षितकरती है, कोई कुछ करना चाहता है और कोई कुछ करने में अधिक कुछ करताहै, यह किताब उसी बहुत कुछ की है….मनुष्य का तो दायरा होता है लेकिनमनुष्यता में दायरे की जगह नहीं होती”।
स्पष्ट रूप में पपड़ियाई धरती और अतृप्त लोगों की दुखती रगों को सजीवता केसाथ व्यक्त करने के क्रम में आनेवाली बाधाएँ और उन बाधाओं के बीच लक्ष्यप्राप्ति के संघर्ष की कहानी है। देवास ज़िले के कनौद जनपद के पाँच ऐसे गाँवोंको चुना गया है जहाँ उत्तर भारत के बुंदेलखंड की तरह यहाँ के लोग भी पानी केसंकटों को झेल रहे हैं, सरकारी योजनाओं की फाइलें धूल फाँक रही हैं।मध्यप्रदेश के देवास स्थित विभावरी संस्था ने कनौद जनपद के पानपाट, बांईंजग़वाड़ा, झिरनिया, नरायनपुरा और टिपरास गाँवों को चुना है, वाटरशेडयोजना द्वारा इन गाँवों के खेतों को बंजरपन से मुक्त करने की योजना है लेकिनपाँच गाँव हैं और पचपन समस्याएँ हैं।

पिछड़े और उपेक्षित गाँवों के खेतों को हरा–भरा रखने की योजना और वहाँ केजन–जीवन में भी हरियाली लाने की प्रेरणा सोनल को समर्पित, प्रसिद्धपर्यावरणविद अनुपम मिश्र से मिली। अनुपम जी की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’, जल संकट से जूझनेवालों के लिए अप्रतिम रोशनी है। वैसे गाँव–कस्बेतथा नगरों के साधनहीन जीवन के प्रति एक दुर्निवार आकर्षण सोनल में अपनीरचना–यात्रा के शुरुआती दौर से रही है। इनका पहला कविता संकलन ‘पतानहीं’ इसका प्रमाण है। संकलन की कविताओं में जो आत्मीयता का स्पर्श है, संवेदनाओं की जो तरलता है उसका एहसास डायरी भी कराती है।
जीवन को पस्त कर देनेवाले ‘ग्राम पंचायतों’ के दाँव–पेच के बीच भी सोनल जीडायरी के लेखन क्रम में शेर और गद्य कविताएँ लिखना नहीं भूलतीं। इसे पढ़तेहुए मलयज की डायरी ‘मेरा हँसता हुआ अकेलापन’ की याद ताज़ा हो जाती है।साहित्यिक डायरी–लेखन के इतिहास में यह एक हिंदी की अनोखी डायरी है औरआलोच्य डायरी में भी आप एक काव्यात्मक संसार से गुजर सकते हैं। भूमिका मेंजावेद अख़्तर का एक शेर उद्धृत है– ‘अपनी वजहें की बर्बादी सुनिए तो मज़े कीहै, ज़िंदगी से यूँ खेलें जैसे दूसरे की है’, लेकिन सोनल जी दूसरे की ज़िंदगी सेखेलने के बजाय अपनी ज़िंदगी से खेलना चाहतीं हैं।
वॉटरशेड योजना महज़ एक महत् काम नहीं, एक बीहड़ यात्रा है। ‘विभावरी’ संस्था इस यात्रा की अगुवाई कर रही हैं। प्रोजेक्ट के संचालन में तीन सदस्य हैं– वरिष्ठ सदस्य सुनील चतुर्वेदी, सुनील बघेल और सोनल। सोनल का यह कदमउनके कर्ममय जीवन का पहला पड़ाव है। प्रोजेक्ट तीस किलोमीटर के दायरे मेंफैला है। जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। पूरे मध्य प्रदेश की तरह इनगाँवों में भी जनजातियों की अच्छी-खासी संख्या है– बड़ी संख्या में बंजारे इनगाँवों में युगों से बसे हुए हैं। उत्तर भारत के अन्य प्रदेशों की तरह यहाँ के जनपदोंमें दबंग और दबी–कुचली जातियाँ हैं। गोरखनाथ के जीवन–दर्शन के अनुयायीनाथ जाति की उल्लेखनीय संख्या है। जाट इस क्षेत्र के बड़े जोतदार (किसान) हैंऔर स्वभावत: दबंग भी हैं।
वाटरशेड योजना को काग़ज़ी से व्यावहारिक रूप देने के क्रम में पग–पग परआनेवाली बाधाओं की चर्चा करने के पूर्व इन गाँवों में फैली हुई उस अमानवीयऔर क्रूर प्रथा की चर्चा हम करेंगे, जिसके बारे में डायरी के पन्नों से गुजरते हुएजानने को मिला। वॉटरशेड योजना के लिए सर्वे के क्रम में पहला गाँव पानपाटआया। यह मुख्यतः बंजारों का गाँव है, जो भूमिहीन हैं, खेत–मजदूरी के अलावाजंगल से लकड़ी काटते और बेचते हैं, तथा अपनी जीविका चलाने की कोशिशकरते हैं। महुए का शराब बनाना भी इनकी जीविका है।
सर्वे के दौरान दूसरा गाँव आता है ‘बाईंजगवाड़ा’— “यह समृद्ध किसानों कागाँव है– यहाँ जाटों का वर्चस्व है। बड़े–बड़े काश्तकार और इनकी बड़ी–बड़ीहवेलियाँ हैं। अनुसूचित जाति के लोग इनके खेतों से लेकर घरों के सारे कामकरते हैं। इन्हें मजदूर या नौकर नहीं कहा जाता, ये ‘हाली’ कहलाते हैं। ‘हाली’ एक प्रथा है, जिसका अर्थ है एकमुश्त रुपया देकर कर्ज लेनेवालों को गिरवीरख लिया जाता है फिर मालिक का वह चौबीस घंटों का ग़ुलाम हो जाता है।जब पुराने मालिक का अतिचार बढ़ जाता है तब हाली दूसरे मलिक को ढूँढ़ता हैऔर दूसरे भूमिपति से कर्ज लेकर उसका हाली बन जाता है। इस प्रकारआजीवन किसी न किसी जाट भूपति की ग़ुलामी में उसकी जिंदगी गुजर जातीहै। यह है इक्कीसवीं सदी के नए भारत की सच्चाई, जहाँ चंद्रयान पर अरबों–खरबों के साधन झोंके जा रहे हैं।
सर्वे करने के पूर्व सुनील चतुर्वेदी ने लक्ष्य-गाँवों को नक्शे पर गोला के रूप मेंचिन्हित किया है, सर्वे के दौरान नियोजनकर्ता को यह महसूस होता है कि हरएक गोले के भीतर कई गोले हैं। हर गोले (गाँव) में रहनेवाले लोगों की जीवनशैलियाँ अलग–अलग हैं। यहाँ तक कि उनकी बोलियाँ भी भिन्न–भिन्न ध्वनियोंऔर शब्दों को आत्मसात् किये हुए हैं। जैसे रेणु जी के ‘मैला आँचल’ में गाँवविभिन्न टोलों में बँटा हुआ है जो भिन्न–भिन्न जीवन स्थितियों में ये जी रहे हैं।
विभावरी संस्था ने प्रोजेक्ट को रूपायित करने के लिए हर गाँव की पंचायतोंकी बैठकों में वहाँ के निवासियों की सहमति से पानी बढ़ाने का काम शुरू करनेकी योजना बनायी। बैठकों में गाँवों के मुखिया और दबंग लोगों की उदासी औरएक आंतरिक विरोध बना रहा। आरंभ में निराशाजनक स्थिति बनी रही।मुश्किल से दो गाँव योजना में भागीदारी के लिए तैयार हुए। लेकिन विभावरीसंस्था निराश रहो और काम करो, के सिद्धांत को मानकर चल रही थी। डायरीके पन्नों से गुजरते हुए लगता है कि सोनल के लिए वॉटरशेड योजना केवल एककाम नहीं बल्कि एक बीहड़ यात्रा है जिस पर वह निकल पड़ी हैं। गाँव वालोंविशेषकर स्त्रियों और बच्चों के साथ सोनल की आत्मीयता ने उनको निकट हीनहीं लाया है बल्कि इस प्रोजेक्ट के प्रति उनमें आस्था और आत्मविश्वास भीजगाया।
स्त्रियाँ जब मुखर हुईं और संस्था के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगींतो पुरुष वर्ग भी कभी मौन कभी मुखर होकर संस्था के कार्यों को पूरा करने मेंजुटने लगे। अन्ततः ‘विभावरी’ की वॉटरशेड योजना सफल हुई, इसके विरोधीभी समर्थन में कदम बढ़ाने लगे। परिस्थितियाँ चाहे जैसी हों, दृढ़ता और समर्पणभाव तो अपना रंग लाते ही हैं। हर परिस्थिति में सोनल जी का रोजनामचाचलता रहा, उन कोशिशों का ही प्रतिरूप है, ‘कोशिशों की डायरी’।
वॉटरशेड योजना पर काम करते हुए विभावरी संस्था के कार्यवाहकों की उम्मीद की लकीर कभी बड़ी हो जाती है तो कभी छोटी। लेकिन सोनल न अपने मन को टूटने देती हैं न अपने सहयात्रियों को। झिरनिया गाँव के सर्वे के दौरान एक तनावपूर्ण स्थिति आ जाती है, ऐसी स्थिति में वह अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए जो व्यंजना सामने आती है उसे कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में कहूँ तो “मौसम चाहे जितना ख़राब हो उम्मीदें नहीं छोड़तीं कविताएँ”— मौसम का रुख यदि सुनामी हो तो सुहावनेपन का एहसास कैसे होगा? नीचे की पंक्तियों में इस एहसास की अभिव्यक्ति है- ‘हम ग़मज़दा हैं, लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत, देंगे वह जो पाएँगे ग़मे-ज़िंदगी से हम’।
डायरी में यत्र-तत्र जो काव्यात्मक पंक्तियाँ बिखरी हुई हैं बाहरी तौर पर वे रूमानी लगती जरूर हैं लेकिन जिंदगी की जमीनी सच्चाई है। पानपाट से टिपरास तक के ग्रामीण महिलाओं में सोनल ने आत्मीयता के जो प्रसाद बाँटे हैं, उसके प्रभाव में जवान, अधेड़, उम्रदराज़ महिलाएँ तक उनकी भक्त हो गयी हैं। शैशव से तरुणाई तक में वे सोनल जीजी हैं। स्त्रियाँ ‘महिलाओं’ का उच्चारण नहीं कर पाती हैं तो ‘मैला लोग’ कहती हैं क्योंकि सोनल जीजी ऐसा ही कुछ कहती हैं। यह श्रद्धाजनित उच्चारण है। अब विराम देना ही उचित होगा। इस आलेख की समाप्ति- डायरी की काव्य-पंक्तियाँ से करना चाहूँगा—
‘बदलाव एक धमाके की तरह नहीं होता दिन बदल जाते हैं,
दुनिया वह तो धीरे-धीरे,
कई असफल होते से दीखते प्रयासों से आकर लेती है।’
काव्य की तरलता, अभियान पूरा करने की दृढ़ता से डायरी के पन्ने पल्लवित हैं।
किताब- कोशिशों की डायरी
रचनाकार– सोनल
नियोलिट पब्लिकेशन, इंदौर, म.प्र.
संपर्क नं.- 9770977777
मूल्य– ₹ 196.00
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