पाँच राज्यों के चुनाव और देश की राजनीति

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— प्रेम सिंह —

पाँच राज्यों में 10 फरवरी से 7 मार्च 2022 तक होनेवाले विधानसभा चुनावों का सत्ता की राजनीति और विचारधारा की राजनीति दोनों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। राजनीतिक पार्टियों, जनसंचार माध्यमों और नागरिक विमर्श में इन चुनावों के सत्ता की राजनीति पर पड़नेवाले प्रभावों की चर्चा ही ज्यादा हो रही है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के स्वीकार और परवान चढ़ने के साथ भारत के राजनीतिक और बौद्धिक मंच पर जोज्ञान-कांडउपस्थित हुआ है, उसमें विचारधारा की राजनीति के स्रोतों और प्रेरणाओं को लगभग ग्रहण लग गया है। किसी भी देश में विचारधारा की राजनीति की प्राथमिक कसौटी वहाँ का संविधान होता है। राजनीति में हिस्सेदार वामपंथी, दक्षिणपंथी या मध्यमार्गी राजनीतिक दलों की विचारधाराओं को संविधान की विचारधारा को आगे विकसित और मजबूत करके अपनी वैधता और सार्थकता हासिल करनी होती है। संविधान की कला में निष्णात नेता और कानून-निर्माता ही यह काम कर सकते हैँ।

भारत में अब ऐसा नहीं है। इसका प्रमाण संसद और विधानसभाओं में बनाये जानेवाले कानूनों और नीतियों में; तथा कानून और नीति-निर्माताओं को संसद और विधानसभाओं में पहुँचानेवाले चुनावों के विमर्श में स्पष्ट देखा जा सकता है।

पाँच राज्यों के चुनावों में किसी भी दल ने भयावह आर्थिक विषमता और बेरोजगारी के बावजूद नवउदारवादी नीतियों की समीक्षा करने तक की बात नहीं कही है। जबकि सभी दलों के घोषणापत्र जारी हो चुके हैं। चुनाव संबंधी किसी रिपोर्ट, विश्लेषण और लेख में भी अभी तक इस परिप्रेक्ष्य से विचार नहीं किया गया है। मतदाताओं की जो प्रतिक्रियाएँ अखबारों में पढ़ने और टीवी पर सुनने को मिली हैं, उनमें भी बेरोजगारी, महँगाई, आर्थिक गैर-बराबरी, विकास, भ्रष्टाचार आदि की चर्चा/शिकायत नवउदारवादी नीतियों के मद्देनजर नहीं की गयी है।

पाँच राज्यों के ये चुनाव भी इस तथ्य की समवेत गवाही हैं कि नए अथवा निगम-भारत का निर्माण संविधान की विचारधारा के ऊपर थोपी गयी नवउदारवादी विचारधारा को तेजी से आगे बढ़ाने/मजबूत बनाने से होगा। इस तरह, नए भारत के साथ उभरता कॉरपोरेट सामंतवाद आनेवाले लंबे समय तक टिका रहेगा। इन चुनावों का विचारधारा की राजनीति पर यही प्रभाव है, जिसे समझने के लिए चुनाव-परिणामों का इंतजार करने की जरूरत नहीं है।

सत्ता की राजनीति की कुछ सामान्य विशेषताएँ आसानी से चिह्नित की जा सकती हैं : यह राजनीति कमोबेश सांप्रदायिक और जातीय गोलबंदी के आधार पर चलती है; चुनावों पर भारी धन-राशि खर्च की जाती है जो कारपोरेट फंडिंग और पार्टियों/नेताओं द्वारा राजनीतिक सत्ता के जरिए संग्रहित की गयी दौलत से आती है; सभी पार्टियों में छोटे-बड़े पैमाने पर दल-बदल होते हैं; सभी नेता लोक-लुभावन नारों और वादों की बौछार करते हैं; कौन क्या मुफ़्त दे सकता है, इसकी होड़ मचती है; पार्टियों/नेताओं के बीच परस्पर ओछेपन की हद तक आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं; सत्तारूढ़ दल पूरी निर्लज्जता से सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करते हैं इत्यादि। ये चुनाव भी इस सब का अपवाद नहीं हैं।

इन चुनावों के सत्ता की राजनीति पर पड़नेवाले प्रभावों की फ़ेहरिस्त काफी लंबी है, जो इस साल जुलाई में होनेवाले राष्ट्रपति पद के चुनाव से लेकर 2024 में होनेवाले लोकसभा चुनावों तक फैली है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल बताया गया है। यहाँ के परिणाम विपक्ष की राजनीति को तो प्रभावित करेंगे ही, राज्य के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के राजनीतिक भविष्य पर गहरा प्रभाव डालेंगे। इसीलिए तीनों ने यूपी चुनाव जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है।

सत्तारूढ़ भाजपा सांप्रदायिकता की टेक लेकर चुनाव अभियान में उतरी है। निराशा-जनित उत्तेजना से ग्रस्त भाजपा नेतृत्व का चुनाव अभियान नफरत की राजनीति के रास्ते खुले-आम बहुसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण का अभियान है। सांप्रदायिकता की तेज रफ्तार गाड़ी के पीछे उसने विकास का छकड़ा भी बाँधा हुआ है। नफरत की राजनीति की झोंक में उसने यूपी के मुकाबले में कुछ राज्यों को लांछित कर एक ओर विकास के अपने दावों को कटघरे में खड़ा कर दिया, दूसरी ओर राष्ट्रीय अखंडता पर ही प्रहार कर डाला।

सांप्रदायिकता और विकास के घालमेल के साथ उसने यूपी की पिछली सरकार के शासन-काल को ‘गुंडाराज’ प्रचारित करने की मुहिम छेड़ी हुई है। भले ही राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े यूपी में बढ़ते अपराधों की सच्चाई बयान करते हों, और केंद्र सरकार में गृहराज्य मंत्री के बेटे पर सरेआम चार किसानों को अपनी गाड़ी के नीचे कुचलकर मार देने का आरोप हो, भाजपा योगी-राज को कानून-व्यवस्था का स्वर्ग प्रचारित करने में लगी है। कबीर अगर नए भारत में आएँ तो पाएंगे कि यहाँ उलटबासियों के लिए भरपूर सामग्री है। उनके अचंभे की सीमा नहीं रहेगी जब वे देखेंगे कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और आदित्यनाथ योगी विपक्ष, खासकर सपा नेताओं को दंगाई और गुंडे-माफिया बता रहे हैं!

भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए कुछ पेशबंदी भी की हैं। महँगाई को लेकर आरएसएस/भाजपा की मीडिया मशीनरी ने यह ‘नवीन तर्क’ फैलाया हुआ है कि नए भारत के निर्माण में महँगाई की मार झेलना राष्ट्र-भक्ति है! महँगाई का असर किसी भी चुनाव में उसके वोटों पर न पड़े, इसके लिए भाजपा ने यह स्थायी पेशबंदी की है। यूपी चुनाव को सात चरणों में फैलाना भी पेशबंदी का एक अंग है। वह भी इस तरह कि मुजफ्फरपुर-कैराना में मतदान के एक दिन पहले सहारनपुर में भाषण किया जा सके। पहले दो चरणों के चुनाव से पता चलता है कि मतदाता सूची से बड़ी संख्या में लोगों के नाम काटने और पोस्टल बैलट का दुरुपयोग करने जैसी खबरें निराधार नहीं थीं। लोगों को आशंका है कि मतों की गणना के वक्त सरकार सत्ता का दुरुपयोग कर धाँधली कर सकती है।

पश्चिम यूपी में भाजपा के सामने विपक्ष की कड़ी चुनौती है। किसान आंदोलन का ज्यादा प्रभाव प्रदेश के पश्चिमी और तराई इलाके में है। लेकिन मध्य और पूर्वी उतर प्रदेश के किसान भी आंदोलन और उसकी जीत से अप्रभावित नहीं रहे हैं। किसान एक बड़े समूह के रूप में भाजपा से खफा हुए हैं। इसका चुनावी नुकसान भाजपा को हुआ है, इसके स्पष्ट संकेत पहले तथा दूसरे चरण के चुनावों से मिलते हैं। यह स्पष्ट हो गया है कि लोगों ने सांप्रदायिक वैमनस्य के ऊपर भाईचारे और विकास की हवाई बातों के ऊपर ठोस मुद्दों को तरजीह दी है।

कोरोना महामारी से हुई तबाही भी यूपी में एक महत्त्वपूर्ण कारक है। प्रधानमंत्री ने भले ही तबाही का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ने की कोशिश की है, लेकिन प्रियजन और रोजगार खोनेवाले भुक्तभोगियों को बहलाना आसान नहीं है। सरकारी नौकरियों के लिए यहाँ से वहाँ धक्के और पुलिस के डंडे खानेवाले युवक-युवतियाँ सरकार से खफा हैं। उन्हें विकास की तोता-रटंत- जैसे एक्सप्रेसवे, अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे, स्मार्ट-सिटी, मेगा-सिटी,सौंदर्यीकृत तीर्थ-स्थल, और, यहाँ तक कि भव्य राम मंदिर का निर्माण आदि- से हमेशा के लिए बहलाए नहीं रखा जा सकता। भाजपा की पेशबंदी के बावजूद छोटा-मोटा स्थायी-अस्थायी काम करनेवाले निम्न और निम्न मध्य-वर्ग के लोगों से लेकर दिहाड़ी मजदूरों तक महँगाई निश्चित ही एक मुद्दा है।

उत्तर प्रदेश में विपक्षी दायरे में सपा-आरएलडी और कुछ अन्य छोटी पार्टियों का गठबंधन बसपा और कांग्रेस से ज्यादा मजबूत स्थिति में है। ज्यादातर अल्पसंख्यक मतदाताओं का झुकाव सपा-आरएलडी गठबंधन की तरफ है। काफी संख्या में पिछड़े मतदाता भाजपा को छोड़ कर सपा से जुड़े हैं। तभी नरेंद्र मोदी और अमित शाह का हमला सबसे ज्यादा गठबंधन की बड़ी पार्टी सपा पर है। बसपा के पक्ष में दलित मतदाता एकजुट बताए जाते हैं। लेकिन मायावती की अवसरवादी, धनवादी और भाजपापरस्त राजनीति ने दलित आंदोलन की राजनीतिक ताकत को बहुत हद तक नष्ट कर दिया है। लिहाजा, दलित वोटों में बिखराव नजर आता है। इस चुनाव में ज्यादातर दलित मतदाता निश्चित ही बसपा के साथ खड़े दिखते हैं। लेकिन जिनका बसपा से मोहभंग हो चुका है, वे भाजपा या गठबंधन के साथ हैं। सतीश मिश्रा के दावे, कि एक बार फिर दलित-ब्राह्मण एका से बसपा की सरकार बनेगी, को लोगों ने शायद ही गंभीरता से लिया हो। कांग्रेस ने चुनाव के समय महिला मतदाताओं का आधार खड़ा करने की जो रणनीति अपनायी, उसका इस चुनाव में कोई बड़ा फायदा होने की उम्मीद नहीं है।

अलबत्ता, विपक्ष के वोटों के बिखराव का फायदा भाजपा को मिलेगा। इसके अलावा भाजपा के पास एक संशक्त मजबूत काडर है। राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) में आवाजाही करते रहनेवाले दलों के कार्यकर्ताओं के साथ भी आरएसएस/भाजपा के कार्यकर्ता नजदीकी संपर्क और संबंध बना लेते हैं। हर चुनाव मीडिया में भी लड़ा जाता है जिसमें सोशल मीडिया शामिल है। मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया दोनों के इस्तेमाल में भाजपा अन्य दलों के मुकाबले बहुत आगे है। सपा-आरएलडी जैसे दलों की तरफ से मीडिया में जो प्रवक्ता पेश होते हैं, वे ज्यादातर चुनावी यानी चुनाव के समय प्रकट होनेवाले होते हैं। पार्टी के संगठनात्मक ढाँचे और नीतियों/विचारधारा से उनकी पहचान नहीं जुड़ी होती। जबकि भाजपा के पास स्थायी प्रवक्ताओं की पूरी शृंखला होती है। साथ ही, आरएसएस/भाजपा समर्थक ‘राजनीतिक विश्लेषकों’ की भी पूरी फौज चैनलों पर मौजूद होती है। 

(बाकी हिस्सा कल)


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