जागो नहीं तो असमानता और कुचलेगी

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arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

प्रयागराज में मौनी अमावस्या की रात को जो कुछ हुआ वह दुःखद भी है और दर्दनाक भी। लेकिन वह भेदभाव, गैरबराबरी, असमानता और अहंकार के जिस सोच के तहत हुआ वह वास्तव में क्रूर और संविधान विरोधी है। संविधान ही नहीं वह भारतीय संस्कृति की भी विरोधी सोच है। ऐसी सोच पर जितनी जल्दी लगाम लगाई जाए उतना ही उचित है। वरना भारतीय लोकतंत्र और भारतीय संस्कृति इसी तरह निरंतर कुचले जाते हुए एक दिन ट्रैक्टरों में भर कर किसी नदी या कचरे के ढेर में तिरोहित कर दिए जाएंगे। क्योंकि जिस तरह नदी का तैराक अकसर नदी में ही डूब कर मरता है उसी तरह नदियों के किनारे विकसित होने वाली संस्कृति उसी के किनारे दम तोड़ती है। संगम किनारे विलुप्त सरस्वती की गाथा भी वही है।

पिछले दस सालों से लखनऊ से लेकर दिल्ली तक शासन करने वाली सरकारों ने जिस राजनीतिक संस्कृति का विकास किया है वह असमानता पर आधारित है। वह कुछ लोगों को वीआईपी बना देने और कुछ लोगों को सामान्य जन से प्रजा बना देने पर टिकी है। उसने अल्पसंख्यक समुदाय के धर्म को तो आहत किया ही है लेकिन सबसे ज्यादा बहुसंख्यक समाज के धर्म को जख्मी किया है। इस क्रियाकलाप के मूल में न तो संस्कृति के मूल्य हैं और न ही आस्था की गहराई। इसके मूल में अगर कुछ है तो बाजार के सिद्धांत और उसके हितों के लिहाज से निर्मित नए अंधविश्वास। बाबाओं का बाजार है, अखाड़ों का बाजार है, प्रवचनों का बाजार है, डेरों की राजनीति है और उसी के साथ जुड़कर चलने वाली राजनीति का बाजार है। बाजार पहले तो खुली प्रतिस्पर्धा का दावा करता है लेकिन वह वास्तव में एकाधिकार और असमानता पर आधारित एक संस्था है। जिसका अदृश्य हाथ सिर्फ उन्हीं के साथ होता है जो किसी भी प्रकार के छल बल से शक्ति अर्जित करते हैं। यही छल बल से सत्ता अर्जित करने वाले बड़ी बड़ी इवेंट आयोजन करके नए नए रिकार्ड बनाते हैं और स्वयं और बाजार को लाभ पहुंचाते हैं।

वास्तव में बाजार अपने लिए राज्य गढ़ता है और एक समय के बाद राज्य उन तमाम सिद्धांतों और मूल्यों को भूल जाता जो संविधान बनाने वालों ने एक दस्तावेज के माध्यम से उसे थमाया था। यही वजह है विवेक देवराय ने संविधान बदलने की बेचैनी प्रकट की थी। यह अकारण नहीं है कि 1989 में कुंभ आयोजन के दौरान तत्कालीन इलाहाबाद के पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय ने मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी से अनुरोध किया कि वीआईपी व्यवस्था करने से नागरिकों को कष्ट उठाना पड़ेगा और वह उचित भी नहीं है और उन्होंने मान भी लिया। सरकारों का पतन तब भी हुआ था। लेकिन सरकार बाजार में फल फूल रहे असमानता के सिद्धांतों के हाथ की कठपुतली नहीं हुई थी। तब देश में न तो इतने अरबपति थे और न ही इतने वीआईपी पैदा हुए थे।

पिछले 35 सालों में जो भारत निर्मित हुआ है उसमें जातिगत असमानता जरूर कम हुई है लेकिन आर्थिक असमानता बढ़ी है। इस असमानता ने आबादी के एक प्रतिशत हिस्से को वह शक्ति दे दी है कि वह बाकी 99 प्रतिशत की भावनाओं से खेल सके। इस एक प्रतिशत ने लोकसंवेदना पर अपना अधिपत्य जमा लिया है और उसे अपनी राजनीतिक आर्थिक जरूरत के लिहाज से गढ़ रहा है। वह बता रहा है कि आप की संस्कृति का हित कितना बड़ा आयोजन करने में है और आप के धर्म का हित किस से नफरत करने में है। वह उन सभी तर्कों और मूल्यों को खारिज कर रहा है जिसे भारत ने पिछले डेढ़ सौ सालों में साम्राज्यवाद से संघर्ष के दौरान विकसित किए थे। या जो दीर्घकालिक इतिहास में समय समय पर प्रगट हुए थे।

अपने मित्र और दर्शनशास्त्री आलोक टंडन इस बात से चिंतित दिखते हैं कि क्या हम उन तमाम उपलब्धियों को खोते जा रहे हैं जो भारत ने बंगाल पुनर्जागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हासिल की थीं? वे यह सवाल भी करते हैं कि धार्मिक आस्था और अंधविश्वास में क्या फर्क है? आज डिजिटल नेटवर्क और एआई यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता के युग में भले यह अंतर करना मुश्किल हो रहा है और देश के पढ़े लिखे संपन्न मध्यवर्ग से लेकर सामान्य किसान और मजदूर सभी एक किस्म के अंधविश्वास के शिकार हो रहे हैं लेकिन सदैव ऐसा नहीं रहा है। आज की बदतर स्थिति का प्रमाण तब मिला जब इलाहाबाद के आयुक्त के आधी रात के उद्घोष पर कि ‘अमृत बरस रहा है, उठो जल्दी स्नान करो। जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है। वरना भगदड़ हो सकती है’, लोग जान देने दौड़ पड़े।

किसी प्रशासनिक अधिकारी के इस तरह के उद्घोष न सिर्फ अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर धार्मिक आस्था का दुरुपयोग है बल्कि अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जाना भी है। वह भारत के तमाम सुधारवादी आंदोलन का प्रतिकार है, वह संविधान विरोधी कार्य भी है। वह लोगों को जागृत करने के लिए नहीं लोगों को अंधविश्वास में सुला देने के लिए और किसी आशंका से भयभीत करने वाला उद्घोष है। यह वही सरकार और प्रशासन है जिसे आजादी के बाद लोगों के भीतर बराबरी का भाव पैदा करने और अंधविश्वास दूर करने का दायित्व दिया गया था। संविधान का मौलिक अधिकार प्रदान करने वाला भाग तीन समता का सोच प्रदान करता है और भाग चार यानी राज्य के नीति निदेशक तत्व वैज्ञानिक सोच विकसित करने का कर्तव्य निर्धारित करता है। भारत को अंधविश्वास से लड़ने के लिए युरोप जाने की जरूरत नहीं है। उसकी अपनी परंपरा में कबीर और रैदास जैसे क्रांतिकारी चिंतक और कवि पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ कह कर अंधविश्वास को ललकार रहे हैं। वे कहीं दूर नहीं वहीं बगल में बनारस में गंगा के किनारे ही रहते थे और वे युरोप से पहले भारतीय समाज में एक किस्म का ‘जागरण’ कर रहे थे और आधुनिक अर्थों में ‘लोकवृत्त’ का निर्माण कर रहे थे।

हमारे समय के महत्त्वपूर्ण चिंतक नंदकिशोर आचार्य ने ‘संस्कृति के व्याकरण’ में धर्म के नाम पर किए जाने वाले बाह्य आचरण की कड़ी आलोचना करते हैं। वे लिखते हैं, “ धर्म के नाम पर बाह्य आचरण के कुछ नियमों का पालन, प्रतीकों की पूजा और कुछ शास्त्रों का अनुकरण किए जाने का आग्रह किया जाता है तो उसका महत्त्व एक सीमा तक ही है। इसमें किसी की भी आत्यंतिक सार्थकता नहीं है। इसके बिना भी धार्मिक अनुभूति संभव है। अतः इन चीजों को ही धर्म मान लेना पूर्णतः संगत नहीं है।” आचार्य जी इसी पुस्तक में संस्कृति की देशबद्ध या किसी जाति विशेष की श्रेष्ठता पर खड़ी स्थानीय अवधारणा को नकारते हुए उसे सार्वभौमिक मूल्य के रूप में व्याख्यायित करते हैं। वे लिखते हैं, “यदि संस्कृति एक मूल्यगत प्रक्रिया है तो वह एक सार्वभौम और सनातन प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया का बुनियादी प्रयोजन और लक्ष्य एक ही है। उसकी मूलप्रवृत्ति और आकांक्षा एक ही होनी चाहिए। यदि उसके बाह्य स्वरूप में कोई परिवर्तन दिखाई देते हैं तो वे संदर्भगत परिवर्तन हैं जिनसे मूल आधार पर असर नहीं पड़ना चाहिए। ऐसी स्थिति में संस्कृति के देशबद्ध रूप पर अधिक जोर देना या उसी को किसी के लिए अनिवार्य मान लेना क्या प्रकारांतर से संस्कृति की मूल अवधारणा का विरोध करना नहीं है?” यानी भारतीय (हिंदू) संस्कृति का उपासक वह भी है जो महाकुंभ नहाने नहीं गया और वह भी है जो गैर हिंदू होते हुए भी सामान्य श्रद्धालुओं के लिए अपने मार्केट और अपने धार्मिक स्थलों के लिए दरवाजे खोलने को तैयार था। जो सरकार एक-एक एकड़ में बड़े बड़े बाबाओं के लिए शानदार टेंट की व्यवस्था करते हुए लोगों को माघ की रात में रेती पर सुला रही थी और आधी रात को नहाने के लिए जगाकर कुचले जाने की स्थितियां तैयार कर रही थी उसे कैसे संस्कृति की रक्षक कह सकते हैं। भारतीय संस्कृति के हिस्से वे भी हैं जिन्होंने अपने सोशल मीडिया पोस्ट से लोगों को आगाह किया कि गंगा वहीं रहेंगी, प्रयागराज वहीं रहेगा, अभी मत आइए जब भीड़ छंटेगी तब आइएगा।

लेकिन जिन्हें भी इस लोकतंत्र और भारतीय संस्कृति की तनिक भी चिंता है उन्हें अब आगे बढ़कर समाज और देश को उन लोगों के हाथों से निकालना होगा जो इस के समानता के भाव को नष्ट कर रहे हैं। भारत ऐसे ही लोगों से जागने का आह्वान कर रहा है।

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