
— पन्नालाल सुराणा —
येरवदा पैक्ट की राजनीतिक पृष्ठभूमि
अगस्त 1932 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मॅकडोनल्ड ने अपना ‘कम्यूनल अवार्ड’ घोषित किया। गांधीजी उस समय येरवदा जेल में बंद थे। कम्युनल अवार्ड में मुसलमान, सिख, एंग्लो इंडियन, इंडियन क्रिश्चियन आदि के साथ दलितों को (जिन्हें उस समय सरकारी परिभाषा में डिप्रेस्ड क्लासेस कहा जाता था) पृथक चुनाव क्षेत्र देने का प्रावधान था। गांधीजी ने इसके खिलाफ 20 सितंबर से अनशन शुरू कर दिया। पं. मदनमोहन मालवीय की अगुवाई में सर्वदलीय नेताओं की बैठकें होती रहीं। दलितों को आरक्षित सीटें दी जाएं, पृथक नहीं- ऐसा गांधीजी का कहना था। छह दिनों तक सलाह-मशविरा चलता रहा। डॉ. आंबेडकर को मनाने की पुरजोर कोशिश हुई। अंत में दलितों को पृथक की बजाय आरक्षित सीटें, प्रांतीय तथा केंद्रीय सभाओं में देने पर सहमति हुई। उनके लिए सरकारी नौकरियों में भी आरक्षण हो, अछूत प्रथा उन्मूलन के कार्य में सभी दल सहभागी हों, ऐसा येरवदा पैक्ट में मंजूर हुआ। आंबेडकर ने उस पर दस्तखत किए। 25 सितंबर को गांधीजी ने अपना अनशन समाप्त किया।
कई दलित संगठन और व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि पृथक चुनाव क्षेत्र नामक बहुत बड़ी सत्ता हमें मिलनेवाली थी। गांधीजी ने वह नहीं होने दिया। इसलिए गांधीजी दलितों की मुक्ति तथा विकास के रास्ते में रोड़े डालने वाले हिंदू नेता थे, वे दलितों के मित्र नहीं, शत्रु हैं।
येरवदा पैक्ट क्यों और कैसे हुआ, इसकी जानकारी लेने के पहले उस समय भारत पर राज करनेवाले ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता की नीति तथा चाल-चलन को भी समझ लेना चाहिए।
ब्रिटिशों की चाल
व्यापार के लिए भारत में सत्रहवीं सदी में आयी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अठारहवीं सदी में अपने गोदामों की सुरक्षा के लिए खड़ी की हुई फौज की सहायता से कमजोर राजाओं के राज कब्जे में लेना शुरू कर दिया। मुगल सम्राट औरंगजेब की नीतियों के कारण भी कई स्थानीय राजा दिल्ली की हुकूमत से नाराज हो गए थे। भारतीय राजा महाराजा, नवाब, मराठों के सरदार, दक्षिण में हैदराबाद का निजाम, मैसूर का टीपू सुल्तान, पुणे के पेशवा तथा अन्य छोटी-छोटी रियासतें अपनी सामंतशाही हूकूमत चला रही थीं। साधारण किसान तथा पेशेवर तबाह हो रहे थे। राजा-महाराजा, नवाब एक-दूसरे से छोटी-छोटी बातों को लेकर लड़ते-झगड़ते थे। ठग-पिंडारी लुटेरों को काबू में रखने की बजाय उनसे कुछ पैसा लेकर उन्हें जनता को लूटने की छूट देते थे। आपस की लड़ाई में कई राजा अंगरेजों से फौजी मदद लेने लगे।
ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरान एक-एक कर रियासतों में अपने पैर जमा रहे थे। फौज में भर्ती होने के लिए कई जातियों के लोग उत्सुक रहते थे। देशी राजा-नवाब पैसे की तंगी के कारण तनख्वाह नियमित रूप से नहीं दे सकते, अंगरेज इस बारे में चुस्त थे। वे माहवार तनख्वाह नियमित रूप से देते तथा कड़े अनुशासन से फौज का संगठन चलाते। लड़ाइयों में जीत पाना उनके लिए आसान था। महाराष्ट्र के दलित जाति के जवानों को अंगरेजों ने अपनी फौज में बड़ी संख्या में भर्ती किया। और महार रेजिमेंट ही खड़ी कर दी। कई सल्तनतों को नेस्तनाबूद करने में उस पलटन का पराक्रम प्रभावशाली रहा। 1857 में भारत के कई राजा-नवाब सरदारों ने, हिंदू-मुस्लिम भेदभाव मिटाकर बादशाह बहादुरशाह जफर के नाम पर अंगरेजों के खिलाफ जंग छेड़ी। अनुशासित फौज दूर तक मार कर सकनेवाली तोपों एवं गोला-बारूदों के बल पर अंगरेजों की जीत हुई, इसके बाद इंग्लैंड की महारानी ने भारत का राज ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने हाथ में ले लिया।
अंगरेजों के मन में यह बात घर कर गयी थी कि भारत की भूमि सुजलाम्-सुफलाम् है। यहां शांति से राजकाज चलाया जाए तो हर साल बहुत सारा धन अपनी मातृभूमि ले जाया जा सकता है। 1857 में सैनिकों ने जो बगावत की (कानपुर के मंगल पांडे आदि) उसमें इन्हें लगा था कि अंग्रेज हमारी धर्मभावना पर आघात कर रहे हैं। जनता में अपने राज के प्रति नाराजगी रहे, इस हेतु महारानी ने 1858 में जो जाहिरनामा या घोषणापत्र जारी किया, उसमें साफ कहा गया कि भारतवासियों के धार्मिक कामों में हम दखल नहीं देंगे। उन्हें अपनी-अपनी आस्था के अनुसार धार्मिक क्रियाकलाप करने की पूरी छूट रहेगी।
अंगरेजों की फौज में ब्राह्मण, जाट, मराठा आदि ऊंची मानी जानेवाली जाति के लोग बड़ी संख्या में भर्ती होने लगे। पहले से ही आसन जमाए हुए महार आदि नीची मानी जानेवाली जातियों के लोग उनके साथ-साथ रहे, यह बात उनको अखरने लगी। तब अंगरेजों ने उनको खुश रखने के लिए महार पलटन बरखास्त कर दी। दलितों को फौज में भर्ती नहीं करने की नीति चलाई। इसपर उन्नीसवीं सदी के अंत में दक्षिण के कई दलित नेताओं ने अपनी नाराजगी जाहिर की। सरकार को कई ज्ञापन दिये। बीसवीं सदी की शुरूआत में डॉ. आंबेडकर को भी इस बात पर लिखना–बोलना पड़ा।
मुसलमानों को लगता था कि 1857 तक दिल्ली के मुगल बादशाह की हुकूमत पूरे हिंदुस्तान में चलती थी। उस साल छिड़ी देशव्यापी लड़ाई में अंगरेजों ने देशी राजा-नवाबों को शिकस्त दी। बादशाह बहादुरशाह जफर को कैद कर बहुत दूर मांडले में नजरबंद कर रखा गया। पूरे देश का कामकाज कोलकाता से वायसराय तथा गर्वनर जनरल चलाने लगे। अपना राज उन्होंने छीन लिया। ऐसी भावना मुसलमान नवाब-उमराव तथा मुल्लाओं में फैल गयी। उन्होंने एक फरमान जारी किया ‘यहां अब अंगरेजों की हुकूमत चल रही है, यह दारुल-हर्ष है। हमें इस हुकूमत से सहयोग नहीं करना चाहिए। कोई भी मुलमान अंगरेजी न सीखे, उनकी नौकरी न करे।’
अपना साम्राज्य चलाने के लिए सब अफसर तथा कलमची कर्मचारी इंग्लैंड से लाना उनके लिए संभव नहीं था। भारतीयों का सहयोग लिये बिना राज चलाना असंभव था। सन् 1835 में लॉर्ड मैकाले की रिपोर्ट के आधार पर जो शिक्षा-प्रणाली यहाँ शुरू की गयी उसका लाभ उठाने में ऊँची जाति वाले हिंदू बड़े पैमाने पर आगे आए, मुसलमान तथा दलित पिछड़ गए। बीस-पच्चीस साल अंगरेजी शासन शांति से चलता रहा।
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