— संजय गौतम —
मूर्धन्य कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी अस्सी पार के होकर भी पूरी तरह सजग-सक्रिय हैं और अपने समय की चुनौतियों से संघर्ष करते हुए साहित्य की भूमिका को दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। दरअसल यह उनके स्वभाव में है। सत्रह वर्ष की अवस्था से वह साहित्य के गंभीर विमर्शों में शामिल रहे, सक्रिय रहे। उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में गए, लेकिन साहित्यिक मोर्चे पर अपनी सक्रियता को कभी कम नहीं होने दिया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में होने का लाभ उठाकर उन्होंने साहित्यिक संस्थाओं को बनाने, चलाने एवं साहित्यिक आयोजनों का भरपूर सिलसिला जारी रखा। उन्हें भोपाल स्थित भारत भवन के साथ ही अनेक संस्थाओं को बनाने का श्रेय जाता है।
यह सब तो महत्त्व का है ही, ज्यादा महत्त्व की बात यह है कि सारी व्यस्तताओं के बावजूद उन्होंने अपनी मूर्धन्यता का पूरा निवेश साहित्य की आत्मा को समझने, उसे किसी विचार सरणि के बरक्स स्वायत्त बनाए रखने, उसे किसी विचारधारा का उपनिवेश न बनने देने, उसे राजनीतिक सत्ता से आगे रखने, उसे विभिन्न कलाओं से जोड़ने और विश्व स्तर पर उसको प्रतिष्ठित करने के लिए किया। प्राचीन भारतीय साहित्य से लेकर विश्व साहित्य के सभी आयामों की यात्रा करते हुए समकालीन साहित्य को झकझोरते रहने की क्षमता उनमें है। साहित्य के अलावा कला की विधाओं चित्रकला, नृत्य, संगीत, गायन, नाटक, रूपंकर, फिल्म इत्यादि में उनकी गहरी रुचि और पैठ ने उन्हें हिंदी का विरल व्यक्तित्व बनाया है। इसीलिए उनके संस्मरणों की यह किताब अगले वक्तों के हैं ये लोग हिंदी साहित्य के पाठक के वैचारिक एवं सांस्कृतिक मानस का विस्तार करती हुई मालूम पड़ेगी।
इस किताब में अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नेमिचंद्र जैन, इंतजार हुसैन, हरिशंकर परसाई, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, बदरी विशाल पित्ती, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा जैसे साहित्यिक हैं तो मल्लिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व जैसे गायक; सैयद हैदर रजा, जगदीश स्वामीनाथन जैसे चित्रकार; हबीब तनवीर, ब.व.कारंत जैसे नाट्यनिर्देशक हैं और अर्जुन सिंह जैसे राजनीतिक भी, लेकिन राजनेता होने के नाते नहीं, बल्कि गहरी सांस्कृतिक समझ और मध्यप्रदेश में सांस्कृतिक परिवेश के निर्माण में सहयोग देने के कारण।
इस किताब में स्मृत व्यक्तित्व की सूची से ही अशोक वाजपेयी की लोकतांत्रिकता एवं खुलेपन का पता चलता है। एक समय उन्हें प्रगतिशीलता विरोधी व कलावादी समझा जाता था, लेकिन इन संस्मरणों को पढ़ने पर यह धारणा टूटती है। यह दिखाई पड़ता है कि वह साहित्य के हर आयाम को खुलकर विकसित होने देने के पक्षधर रहे हैं। यह अलग बात है कि उन्होंने अपनी आत्मनिष्ठता को कहीं से प्रभावित नहीं होने दिया। हाँ, दूसरों के साहित्य को परखते हुए उन्होंने उनकी निजता का सम्मान करते हुए उनके निजी सौष्ठव को ही उदघाटित करने का प्रयास किया। इसीलिए उनके यहाँ अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध या शमशेर बनाम त्रिलोचन की बहस न होकर सभी के अपने साहित्य का सौंदर्य रेखांकित करने का प्रयास ही दिखाई देता है। इसलिए कि ‘आत्म’ और ‘द्वितीय’ के प्रति उनकी अपनी सोच बहुत पहले बन गयी थी, “लगभग एक अधसदी, अपनी निजता और आत्मनिष्ठा का आग्रह करते हुए, मैंने दूसरों के साथ बितायी है। मुझे बहुत जल्दी समझ में आ गया था कि आत्म अपनी द्वितीयता भी, अगर वह अभीष्ट हो तो, दूसरों से प्रतिकृत होकर ‘द्वितीयता’ से मिलकर ही गढ़ सकता है। किसी गहरी और टिकाऊ साथर्कता में आत्म पर के बिना संभव ही नहीं है।”
इस किताब को पढ़ते हुए आधी शताब्दी का साहित्यिक हलचल सामने आता है। अशोक वाजपेयी का जीवन इतना सक्रिय और विविध तरह के अनुभवों से भरा है कि हम पिछली शताब्दी के साहित्यिक विमशों के अन्तर्गृह में चल रही गतिविधियों को जान पाते हैं। प्रथमतया ये संस्मरण घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमते हुए से मालूम पड़ते हैं, लेकिन अशोक वाजपेयी की आत्मनिष्ठता के साथ साहित्यिक-सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति गहरी निष्ठा और तीक्ष्ण दृष्टि ने साहित्यकारों की रचनाओं के आंतरिक सौष्ठव को जगह–जगह भरपूर उजागर किया है, जिससे हमारी साहित्यिक समझ भी विकसित होती चलती है।
यह किताब समर्पित है प्रसिद्ध लेखिका कृष्णा सोबती को। संस्मरण में कृष्णा सोबती का जीवन संघर्ष, रचनात्मक संघर्ष, उनका स्वाभिमानी व्यक्तित्व, उनका आतिथ्य-भाव सामने आता है। पुरस्कारों के प्रति उनकी वितृष्णा का पता चलता है। एक बार उन्हें पद्म पुरस्कार प्रदान किए जाने की भनक लग गई तो उन्होंने घोषित होने के पहले ही अशोक वाजपेयी को फोन कर उसे रोकवाया, ताकि घोषित होने पर अस्वीकार करना नाटकीय न हो जाए। पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम के साथ किताब के शीर्षक को लेकर उनके मुकदमे की विस्तृत जानकारी मिलती है। यह भी पता चलता है कि अपनी किताब की भाषा को संपादित कर छाप देने का पता चलने पर उन्होंने प्रकाशक को पूरी कीमत चुकाकर किताबें ले लीं और उसे प्रकाशित नहीं होने दिया। ऐसी थी उनकी वैचारिक दृढ़ता। उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति लेखकों के ठहराव के लिए इंतजाम करने के निमित्त वसीयत कर दी। कृष्णा सोबती के व्यक्तित्व के इस पहलू को जानना हर लेखक के लिए जरूरी है। स्वार्थ के अवगुंठनों से लुंठित होता समाज यह सब जान-सुनकर कुछ तो पर की चिंता की तरफ आगे बढ़ेगा।
इसी तरह इस किताब में हर साहित्यकार के जीवन और साहित्य के अंतरंग पहलुओं के बारे में रोचक व गंभीर जानकारी मिलेगी।
अब थोड़ा सा हम संगीतकारों और चित्रकारों के विषय में अशोक वाजपेयी की टीपों को देखें। ये टिप्पणियां उनके जीवन के सभी पहलुओं को छूते हुए, उनकी संगीत सभाओं की चर्चाओं के साथ की गयी हैं। मल्लिकार्जुन मंसूर के बारे में वे कहते हैं- “उन्होंने अपना गायन आरंभ किया तो लगा कि उनके द्वारा रचा-बुना संसार हमारे आसपास के पार्थिव संसार के ऊपर पूरी तरह से एक व्योम की तरह छा गया। वह एक जटिल संसार था लेकिन निर्मलता, निश्छलता और पारदर्शिता से रचा गया। उसमें सब कुछ लौकिक था लेकिन, बार-बार अनायास, अलौकिक को छूता हुआ। मल्लिकार्जुन मंसूर का संगीत अपने मूलार्थ में दिव्य था।” (पृ.210) ‘मल्लिकार्जुन मंसूर का संगीत जीवन की सुरों से आरती उतारते हुए संसार का गुणगान था : उसमें गहरी आसक्ति, उच्छल मोह, अदम्य आवेग और निपट एकांत सब थे जैसे कि वे संसार में होते हैं। हर बार उनका गायन सुनकर लगता था कि उसमें संसार का फिर एक बार अनुमोदन है। उसे सुनकर हम कुछ अधिक जी सके, अधिक गहरे अपने उलझे हुए अंधेरों से दूर स्पंदित उजाले में- हम कुछ विराट का हिस्सा बन पाये। पृथ्वी पर रहते हुए भी आकाश को छू पा रहे हैं।‘ (पृ.223) आविन्यों में कुमार गंधर्व को सुनते हुए उन्होंने गद्यकविता लिखी, ‘द्रुम-द्रुम लता-लता उस ऑंगन में उनका स्वर पहली बार। उनकी प्रसन्न लय और अवसन्न विषाद पहली बार। पहली बार उनके शब्दों और सुरों की फूलमालाएं, उस ऑंगन में। सुनने वालों में, कोई ध्यान से देखता तो, यातना तपे चेहरे वाला बूढ़ा भी था, जो अगर पहचान जाता, तो न जाने कब से सुर के वरदान की प्रतीक्षा में बैठा शायद कोई देवता था।‘ (पृ.240) उन्होंने कुमार गंधर्व पर कविताएं भी लिखीं और ‘बहुरि अकेला’ शीर्षक से किताब भी।
चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन पर लंबा संस्मरण है। उन्होंने भारत भवन के लिए नौ वर्षों तक कार्य करते हुए लोक कलाओं का संग्रह तैयार किया। इसके लिए जगह-जगह से अपने घरों में चित्र एवं तरह-तरह की कलात्मक वस्तु बनाने वालों को भोपाल ले आए तथा उनसे कार्य करवाये। एक साथ शास्त्रीय एवं लोक कलाओं का संगम हुआ। उन्होंने ही यह भी रेखांकित किया कि कला में अमूर्तन पश्चिम की देन नहीं है, बल्कि आदिवासी समाज अपनी कलाओं में अमूर्तन का सहारा लेता रहा है, इसलिए आधुनिक कला को देखते हुए उसे विस्मय नहीं होता है। गांधीजी के साथ घटित प्रसंग भी रोचक एवं उल्लेखनीय है। जब गांधीजी दिल्ली की भंगी बस्ती में रह रहे थे, स्वामीनाथन समाजवाद एवं जयप्रकाश नारायण से जुड़े थे। गांधीजी की नीतियों को नापसंद करते थे। उन्होंने एक अखबार निकाला। नाम रखा ‘मजदूर समाचार’। इसका अंक लेकर वह गांधीजी के पास पहुंचे। अखबार उन्हें दिखाया। गांधीजी ने पूछा कि यह पर्चा किसके लिए निकला है। स्वामीनाथन को चिढ़ हुई, क्योंकि नाम में ही मजदूर लिखा हुआ था। उन्होंने चिढ़ते हुए ही कहा मजदूरों के लिए। गांधीजी ने एकदम शांत भाव से अपना सुझाव दिया। तब इसके हरफ थोड़े बड़े और मोटे होने चाहिए। इस बात से स्वामीनाथन को एहसास हुआ कि गांधीजी की नजर सामान्य जन की समस्या को लेकर कितनी पैनी है। इस तरह के तमाम प्रसंग इस किताब में हैं।
अशोक वाजपेयी जिन साहित्यकारों, संगीतकारों, चित्रकारों से जुड़े बहुत गहराई से जुड़े और उनके पूरे जीवन पर अपनी निगाह रखी। उनके साहित्य के उतार-चढ़ाव को परखते रहे। उनकी कृतियों के मूल्यों को एहसास के स्तर पर जीते रहे, उससे संघर्ष करते रहे, इसलिए जिन लोगों ने सिर्फ उनकी गतिविधियों के उड़ते हुए समाचारों के जरिए उनके बारे में अपने विचार बनाये हैं, उन्हें इन संस्मरणों को पढ़ना चाहिए। इससे लोकतांत्रिकता एवं बहुलता के प्रति उनके गहरे सम्मान-भाव का पता चलेगा। उनके खुलेपन और बेबाकी का भान होगा। पता चलेगा कि असहमति को कैसे सहज रूप में व्यक्त करते हुए भी साहित्यकार के सम्मान को सुरक्षित रखा जा सकता है। सिर्फ साहित्य में रुचि रखनेवालों को अपने मन को अन्य कलाओं तक ले जाने के लिए भी इस किताब को पढ़ना चाहिए। देखें कि कैसे कोई सैयद हैदर रजा बनता है। जगदीश स्वामीनाथन बनता है या फिर हबीर तनबीर या ब. व. कारंत और यह भी कि कलाकारों तथा कलाओं से साहित्य का कितना गहरा संबंध है।
किताब – अगले वक़्तों के हैं ये लोग
लेखक – अशोक वाजपेयी
प्रकाशन – सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65, नोएडा-201301
मूल्य – 320 रु.