— राममनोहर लोहिया —
परंपरागत और छोटे-मोटे हथियार और उसके साथ-साथ अणु हथियार और दोनों के खात्मे की बात सोचते समय दिमाग चकरा जाता है कि क्या कभी यह संभव हो सकेगा? संसार में क्या कभी ऐसा जमाना आएगा जब चोरी और धोखेबाजी और तात्कालिक गुस्सा खत्म हो जाएंगे? मुझे यह मुश्किल मालूम देता है। लेकिन इसको इतना बड़ा कारण नहीं समझना चाहिए, क्योंकि एक तरह से यह तो जुर्म करनेवाले लोगों को छोड़कर, जो किसी भी एक संगठित समाज का अधिक से अधिक आधा या एक सैकड़ा हो सकता है, बाकी सब लोगों को ऐसी अवस्था पर लाया जाए कि वे बिना हथियार के अपने समाज और संगठन चला सकें? यह तार्किक दृष्टि से मुझे संभव मालूम होता है, क्योंकि इसपर बहुत सोचोगे तो हथियार की आवश्यकता या हथियारों का नतीजा क्या होता है? कारण या फल? मैं इस बहस में नहीं पड़ता कि हथियार किस कारण से निकले या हथियारों ने किस कर्म को पैदा किया।
असल में हथियार माने अन्याय। हथियार या तो अन्याय को मिटाने का जरिया है या उसे कम करने का जरिया है। कभी किसी तरह से अगर समाज में अन्याय खत्म किया जा सकता है तो फिर हथियारों की जरूरत नहीं रह जाती है। हथियार की जरूरत अन्याय के साथ चिपकी हुई है। अन्याय कितने और किस किस्म के हैं, कम से कम संपूर्ण बराबरी नहीं, तो सापेक्ष बराबरी कायम करने पर समाज में तुष्टि आएगी, न्याय की भावना आएगी और फिर हथियारों को खत्म करनेवाली हालत पैदा हो जाएगी। इसकी तरफ ध्यान दें, तो फिर कुछ आशा जैसी लग सकती है और खास तौर से अब जबकि दुनिया में, एकसाथ, सारे देशों में आदमी अन्यायों के खिलाफ थोड़ा-बहुत जूझ रहा है। यह अपने युग की विशिष्टता है।
बीसवीं सदी बड़ी बेरहम सदी है, बड़ी खराब सदी है, लेकिन उसके साथ-साथ इसमें एक गुण है जो कभी किसी सदी में नहीं रहा, और वह यह कि बीसवीं सदी का इंसान अलग-अलग देशों में अलग-अलग अन्यायों के खिलाफ एकसाथ लड़ रहा है। कम से कम तार्किक दृष्टि से वह ऐसी हालत पैदा कर रहा है कि अगर इस लड़ाई में वह सफल हो जाए तो इस सदी के खत्म होते-होते एक बिल्कुल अन्याय-शून्य दुनिया बन जाएगी। मैं फिर से कह दूँ कि खाली दिमागी तौर पर ऐसा सोचने की गुंजाइश पैदा हो गयी है। यह तो बहुत आशा वाली बात हुई। लेकिन अब मैं इसमें निराशा की बात भी कह दूँ। एक तरफ तो यह अन्याय के खिलाफ लड़ाई और दूसरी तरफ हथियारों को मिटानेवाली लड़ाई, इन दोनों में इतना ज्यादा साम्य खासतौर से समय का साम्य है कि यह सोचना मुश्किल हो गया है कि एक वक्त में दोनों लड़ाइयाँ इस तरह से चलती रहेंगी कि उन दोनों में आगे-पीछे वाला मामला नहीं होगा।
मैंने कुछ अन्तरराष्ट्रीय निराशा की बात बतायी और इसलिए भी कि जहाँ मैंने हथियार के संबंध में अन्याय की बात कही तो थोड़ा-बहुत रूस व अमरीका के बारे में बताया ही कि सारे संसार में हथियारों की मिल्कियत का अन्याय भी है। उसी तरह से, कुछ अन्यायों को यहाँ खाली कुछ तफसील के साथ गिन भर लेना जरूरी है। पहला अन्याय है अंतरराष्ट्रीय जमींदारी। साइबेरिया या आस्ट्रेलिया या केनेडा के बहुत बड़े हिस्से में एक वर्ग मील पर प्रायः एक, कैलिफोर्निया में 1 वर्ग मील पर 7 या 8 आदमी और हिंदुस्तान में कोई 350 आदमी रहते हैं और पूर्वी उत्तर प्रदेश या केरल में एक हजार। राष्ट्रीय पैमाने पर हम जब जमीन के पुनः बँटवारे की बात सोचते हैं तो एक जमाना आ सकता है, या आज भी हमारे जैसे आदमी सोचने लग जाते हैं कि यह राष्ट्रीय गैरबराबरी खत्म हो तो अंतरराष्ट्रीय गैरबराबरी क्यों न खत्म हो। आखिर इसकी जड़ कहाँ है? कोई पट्टा कहीं से थोड़े ही लिखाया गया है? यह भी तो आकस्मिक घटना ही है। कभी किसी जमाने में दूसरी जातियों के ऊपर कब्जा करने का, उन्हें प्रायः नष्ट करने का कुछ जातियों को ज्यादा मौका मिल गया। अमरीका में गोरों ने लाल हिंदुस्तानियों (रेड इंडियन्स) को खत्म किया तो उन्होंने उनकी जमीनें हड़प लीं। रूस में जो कोई भी शुरू में आए, उन लोगों ने जमीनें अपने कब्जे में कर लीं। यह एक तरह की अंतरराष्ट्रीय जमींदारी चली।
इसके साथ-साथ चिपकी हुई है पैदावार की अंतरराष्ट्रीय गैरबराबरी, उसे साम्राज्यशाही भी कह सकते हैं। इतनी जबरदस्त साम्राज्यशाही है कि अमरीका व रूस जैसे देश तो 8 हजार से 14 हजार रुपया हर साल आदमी के हिसाब से पैदावार कर रहे हैं और हमारे जैसा देश 400 रुपए पर पड़ा हुआ है।
तीसरी साम्राज्यशाही, दिमागी साम्राज्यशाही है। जैसे, हिंदुस्तान में शूद्र पर द्विज की दिमागी साम्राज्यशाही है। मैं समझता हूँ, यह शब्द अब इस्तेमाल होने लग गया है और अच्छा है कि वह जो अधिकांश गैर-द्विज या शूद्र जनता है, उसका दिमाग परंपरा और संस्कार से सैकड़ों या हजारों बरस से कमजोर बन गया है। पिछड़े खुद बोलेंगे, बनाकर रखा गया है। मुझे ये शब्द इस्तेमाल नहीं करने हैं। मैं कहता हूँ, जिस किसी सबब से हो, आज अपने देश के अंदर एक तरफ तो द्विजों के दिमाग, मुकाबले में, ज्यादा खुले या चढ़े या विद्या वाले हैं और दूसरी तरफ शूद्रों के दिमाग या छोटी जातियों के दिमाग दब गए हैं। यह बिल्कुल कुदरती चीज तो नहीं बन गयी है, प्रायः कुदरती चीज बन गयी है। उसी तरह से, गोरे और रंगीन के बीच में भी यह दिमागी फर्क आ गया है। गोरा आज दुनिया के सामान को जिस खूबी और अकल के साथ इस्तेमाल कर सकता है, समझता है, उसमें हेर-फेर कर सकता है, उसको रंगीन नहीं जानता। यह तो बिल्कुल साफ बात है। गोरा इस दिमागी साम्राज्यशाही के रहस्य को रंगीन को देता भी नहीं है। उसका प्रमाण है अणु का रहस्य। उसके साथ-साथ और भी बहुत-सी चीजें सोच सकते हो।
चौथा, उसके साथ जुड़ा हुआ है, हथियारों की साम्राज्यशाही।
पाँचवाँ है दामों की साम्राज्यशाही। यह जबरदस्त साम्राज्यशाही संसार में चल रही है। कोई हिसाब अगर करने बैठे, तो पूरे संसार के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में शायद 20, 25 या 30 अरब रुपए की लूट होती हो तो मुझे कुछ अचरज नहीं होगा। आजकल रूस या अमरीका या ज्यादा संपन्न देश दान या कर्जे के रूप में गरीब देशों को देते हैं उससे कहीं ज्यादा रुपया इस समय ये संपन्न देश गैर-संपन्न देशों से दामों की लूट से ले लिया करते हैं। इसका थोड़ा-बहुत जिक्र तो अब होने लग गया है, लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं। गैर-संपन्न देश ज्यादातर कच्चा माल बेचते हैं और जो संपन्न देश हैं वे ज्यादातर पक्का माल और पक्के में भी पक्का, मशीन वगैरह बेचते हैं। पक्के माल के दाम इस तरह से रखे जाते हैं कि कच्चे माल वालों को हमेशा नुकसान उठाना पड़ता है। इसपर ज्यादा बहस न करके, इतना ही बता दूँ कि पिछले 10-15 बरस के ही दामों के गठन को देखो, तो कच्चे माल का दाम कम रफ्तार से बढ़ा है और पक्के माल का दाम ज्यादा रफ्तार से बढ़ा है।
ये हैं अंतरराष्ट्रीय गैरबराबरी और अन्याय के कुछ नमूने। इसी ढंग से राष्ट्रीय भी हैं। उस अरसे तक इन अन्यायों को मिटा सकना जबकि हथियारों को मिटाने का समय भी हमको मिला हुआ है, जरा कुछ संदेह वाला मालूम पड़ता है।
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