13 मार्च। दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि जब तक अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 को उसके वास्तविक अर्थों और भावना में लागू नहीं किया जाता तब तक जाति आधारित भेदभाव रहित समाज का सपना दूर का सपना बना रहेगा।
जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने अधिनियम के तहत दर्ज एक प्राथमिकी को शिकायतकर्ता पीड़ित और आरोपियों के बीच हुए समझौते के आधार पर रद्द करने से इनकार कर दिया और कहा कि संविधान के संस्थापक समाज की कठोर वास्तविकताओं से अवगत थे और ऐसे मामलों में आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए अपने असाधारण अधिकारक्षेत्र का प्रयोग करने में अदालत को बेहद चौकस रहना चाहिए।
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि आरोपी ने उसके खिलाफ जाति आधारित अपमानजनक टिप्पणी की, गाली दी और धमकाया। अदालत ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम का उद्देश्य इन समुदायों के सदस्यों के अपमान और उत्पीड़न के कृत्यों को रोकना और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार करना है। अदालत ने कहा, ‘यह दलितों और कमजोर वर्ग के लोगों के कल्याण के लिए है। यह सुनिश्चित करने के लिए सुधारात्मक और उपचारात्मक उपाय किए गए हैं कि उनके नागरिक अधिकारों की रक्षा की जाए और उनके साथ सैद्धांतिक रूप से समान व्यवहार किया जाए।
अदालत ने कहा, यह दोहराना महत्वपूर्ण है कि जब तक अधिनियम के प्रावधानों को उनके वास्तविक अर्थों और भावना के साथ लागू नहीं किया जाता है, तब तक जाति-आधारित भेदभाव से मुक्त समाज का सपना केवल दूर की कौड़ी बना रहेगा। समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, जस्टिस सिंह ने कहा कि वर्तमान मामले में शिकायतकर्ता का अपमान अकारण और अनावश्यक था और ऐसा एक छोटी-सी राशि के लिए उसे अपमानित करने के एकमात्र इरादे से किया गया था। समझौते के आधार पर संबंधित प्राथमिकी को रद्द करके अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम को कमजोर नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि मौजूदा मामले में अपराध पीड़ित को उसकी जाति के आधार पर अपमानित करने के आपराधिक इरादे से किया गया था।
(MN News से साभार)