17 मार्च। गर्मियों का मौसम शुरू होने के साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर टूटना और उनका एक हिस्सा लुढ़ककर नीचे की तरफ आ जाना आम बात है। इससे कई बार निचले क्षेत्रों में नुकसान भी होता है और उस क्षेत्र की सड़कें और पैदल रास्ते भी बंद हो जाते हैं।
आमतौर पर ताजा बर्फ और ग्लेशियर के टूटे हुए हिस्सों का नीचे की तरफ आने का एक निश्चित कोर्स होता है। यानी कि संबंधित क्षेत्र की ग्लेशियर के हिस्से और ताजा बर्फ एक निश्चित घाटी से नीचे की तरफ आते हैं।
लेकिन इस बार पिथौरागढ़ की दारमा घाटी में एक बड़ा हिमस्खलन (ग्लेशियर स्लाइड) हुआ, इसमें अप्रत्याशित रूप से टूटा हुआ ग्लेशियर अपने परंपरागत रास्ते नीचे नहीं आया, बल्कि इसने अपना कोर्स बदल लिया और उस हिस्से में पहुंचा, जहां से सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक सड़क गुजरती है।
यह बर्फ कितनी भारी मात्रा में सड़क पर आई इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 12 दिन बीत जाने के बाद भी यह सड़क वाहनों के लिए नहीं खोली जा सकी है।
हिमस्खलन की यह घटना 4 मार्च 2022 की बताई जा रही है। जिसकी सूचना करीब एक हफ्ते बाद संबंधित अधिकारियों तक पहुंची। यह घटना बंगलिंग और उर्थिंग गांवों के बीच घंगमंती में हुई।इस हिमस्खलन से दारमा घाटी की मुख्य सड़क का करीब 800 फीट हिस्सा दो से पांच फुट ऊंचे बर्फ के टीलों से ढक गया। इससे दारमा घाटी के आम लोगों के साथ ही भारत-चीन सीमा के आसपास स्थित कई सुरक्षा चौकियों तक पहुंचने का रास्ता भी बंद हो गया।
पिथौरागढ़ के जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी भूपेन्द्र ने बताया वहां पैदल चलने लायक रास्ता बना दिया गया है, लेकिन वाहनों की आवाजाही अभी नहीं हो पा रही है। भूपेन्द्र के अनुसार बर्फ बहुत ज्यादा मात्रा में है और केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) लगातार सड़क खोलने के प्रयास में जुटी हुई है।
विशेषज्ञ इस घटना को अप्रत्याशित बता रहे हैं। देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ. मनीष मेहता कहते हैं कि सर्दियों के बाद उच्च हिमालयी क्षेत्रों से ग्लेशियरों का खिसककर अथवा टूटकर नीचे की तरफ आना आम बात है। इस तरह की घटनाएँ हर साल कई जगह होती हैं। एक तरह से इसे एक सतत प्रक्रिया कहा जा सकता है। लेकिन, दारमा घाटी की इस घटना में खास बात यह है कि ग्लेशियर ने इस बार अपना कोर्स बदल लिया और वह टूटकर ऐसी जगह गिरा, जहां पहले कभी ग्लेशियर, बर्फ या ग्लेशियर पिछलने से आने वाले पानी का रास्ता नहीं रहा है।
भूवैज्ञानिक और उत्तराखंड वानिकी और औद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष डॉ. एसपी सती भी इस बात से सहमत हैं। वे कहते हैं घटनास्थल का चित्र बताता है कि जहां ग्लेशियर और बर्फ आकर रुकी है, उसके ठीक ऊपर खड़ी चट्टान है, वहां कोई ग्लेशियर नहीं है। वहां कोई छोटा-बड़ा नाला भी नहीं है, जिससे लगे कि वहां नियमित रूप से बर्फ या ग्लेशियर आते हैं। यदि ऐसा होता तो वहां सड़क पर पुल बनाने की जरूरत होती।
सती कहते हैं कि आमतौर पर ताजा गिरी बर्फ भी तापमान बढ़ने के साथ नीचे की तरफ खिसकती है, लेकिन तस्वीरें बताती हैं कि बर्फ का एक बड़ा हिस्सा वहां आया है। यानी यह सिर्फ इस सीजन में गिरी ताजा बर्फ न होकर इसमें ग्लेशियर का भी एक हिस्सा है। जाहिर है यह ग्लेशियर के कोर्स चेंज करने का मामला है और ऐसा क्यों हुआ, बिना गंभीरता से जांच किये इस बारे में कुछ कहना संभव नहीं है।
मनीष मेहता भी कहते हैं कि हिमालय सबसे युवा पर्वत श्रृंखला है और वह अत्याधिक नाजुक स्थिति में है। ऐसे में यहां जलवायु में हो रहे परिवर्तन के साथ-साथ टेक्टोनिक बदलाव की वजह से इस तरह की घटना हो रही है। इस पर नजर रखने की जरूरत है।
कहां गया अर्ली वार्निंग सिस्टम
पिछले वर्ष 7 फरवरी को ग्लेशियर टूटने के कारण चमोली जिले में ऋषिगंगा और धौली गंगा में हुई तबाही के बाद उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियरों पर नजर रखने और अर्ली वार्निंग सिस्टम विकसित करने के कई दावे किये गये थे, लेकिन एक वर्ष बाद में इस दिशा में शुरुआती कदम तक नहीं उठाये गये हैं। हालांकि उत्तराखंड सरकार ने इस दौरान 3 करोड़ रुपये लागत का एक प्रोजेक्ट जरूर तैयार किया है, जिसके माध्यम से ग्लेशियरों में बनने वाली झीलों पर पर नजर रखने की बात कही गई है।
इस तरह की झीलों के फटने से निचले क्षेत्रों में भयावही तबाही की लगातार संभावनाएं बनी रहती हैं। लेकिन, इस प्रोजेक्ट में कुछ घाटियों को ही शामिल किया गया है। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अधिशासी अधिकारी पीयूष रौतेला का साफ तौर पर मानना है कि कुछ जगहों पर बेशक ग्लेशियरों पर नजर रखना संभव हो, लेकिन यदि पूरे हिमालय पर नजर रखने की बात कही जाए, तो यह किसी भी हालत में संभव नहीं है।
– त्रिलोचन भट्ट
(Down to earth से साभार)
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