संस्कृति का केन्द्रीकरण क्यों?

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— नंदकिशोर आचार्य —

धुनिक प्रौद्योगिकी अनिवार्यतः केन्द्रीकरण और एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को जन्म देती और उन्हें पुष्ट करती है- और स्वाभाविक है कि ये प्रवृत्तियाँ आर्थिक या राजनैतिक जीवन को तो अपनी गिरफ्त में लेती ही हैं, साथ ही जीवन का वह हर पक्ष इनसे ग्रसित हो जाता है जिसका यत्किंचित भी संबंध इस प्रौद्योगिकी से होता है। दूसरे शब्दों में, इसके प्रभाव सभी सामाजिक रिश्तों और सांस्कृतिक प्रक्रिया अर्थात मानवीय चेतना के विकास पर भी स्पष्ट पड़ने लगते हैं, और जैसा कि जाहिर है, ये प्रभाव हमेशा वांछनीय या काम्य ही नहीं होते।

जीवन के अन्य पक्षों की तरह सामाजिक संप्रेषण के माध्यमों और संचार-प्रसार साधनों तथा प्रक्रिया पर भी इस कथित आधुनिक प्रौद्योगिकी ने गहरा असर डाला है। इन साधनों का एक यह असर तो बिलकुल साफ ही है कि संप्रेषण एक जीवंत मानवीय प्रक्रिया की बजाय यांत्रिक प्रक्रिया का रूप लेता जा रहा है। संप्रेषण प्रक्रिया में निहित आत्मीयता का स्थान एक ठंडी तटस्थता लेती जा रही है, जिसका असर मानवीय चेतना के संवेदन-पक्ष पर भी देखा जा सकता है।

जटिल प्रौद्योगिकी वाली उपभोक्ता संस्कृति में बड़ी मानवीय त्रासदी आधुनिक प्रसार साधनों के लिए एक कच्चे माल की तरह हो जाती है जिसे अधिक से अधिक रोचक तरीके से अपने ग्राहकों के सम्मुख प्रस्तुत करना संचार-प्रसार उद्योग की एक अनिवार्यता हो जाता है और पाठक भी किसी करुणा या लगाव की भावना से कम और घटना-क्रम में एक प्रकार की कथा-रुचि या अधिक से अधिक अपने को तथ्यों के बारे में ‘अपटूडेट’ बनाये रखने की इच्छा से इस प्रकार की प्रस्तुतियों में अधिक रुचि लेते हैं।

हजारों लोगों के मरने या मार डाले जाने और उन्हें असह्य यंत्रणाएँ दिये जाने की खबरों पर बिना किसी आन्तरिक पीड़ा के चर्चा किये जाना एक आम प्रवृत्ति होती जा रही है। यदि कभी कोई पीड़ा उभरती भी है तो साथ ही एक असहायता का भाव भी घेर लेता है, क्योंकि घटनाओं की दूरी और व्यापकता के कारण यह पीड़ा किसी तरह का सक्रिय रूप ग्रहण नहीं कर सकती।

इस प्रकार बड़ी घटनाओं के प्रति जहाँ एक किस्म की उदासीनता और कभी-कभी असहायता का भाव व्यक्तित्व के स्वाभाविक विकास को कुंठित करता है, वहीं प्रसार माध्यमों की केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति उसे अपने तात्कालिक और अपने स्थानीय परिवेश से भी काट देती है। ये प्रसार माध्यम अपनी सीमाओं और विवशताओं के कारण स्थानीय परिवेश और समस्याओं की कोई जानकारी अपने श्रोता-पाठक को नहीं दे सकते। पाठक या श्रोता के मानसिक जगत को भी बड़ी समस्याएँ घेरे ही रहती हैं और आर्थिक-राजनैतिक जीवन के केन्द्रीकरण की वजह से वह यही मानकर चलता है कि स्थानीय समस्याओं का समाधान भी केवल केन्द्रीय स्तर पर ही हो सकता है। यही कारण है कि सामाजिक अन्याय, आर्थिक शोषण और राजनैतिक-प्रशासनिक दमन-उत्पीड़न के निराकरण के लिए वैयक्तिक या स्थानीय पहल करने की बजाय केन्द्रीय स्तर के संगठनों और नेताओं की ओर देखा जाता है। तय है कि यह प्रवृत्ति वैयक्तिक असहायता के भाव को और तीखा करती है।

यह बड़ी आसानी से देखा जा सकता है कि जो व्यक्ति या समाज जितने बड़े प्रसार साधन का उपभोक्ता होता है, वह स्थानीय परिवेश और समस्याओं के साथ उतना ही कम जीवंत रिश्ता रख पाता है। साथ ही यह भी सही है कि जो व्यक्ति या संगठन प्रसार साधनों पर जितना कम प्रभाव रखता है, वह अपने को उतना ही असहाय और विफल अनुभव करता है। सत्ता के सभी प्रकारों पर किसी न किसी प्रकार का लोक-नियंत्रण आज की महती आवश्यकता है, लेकिन यदि निजी स्तर पर व्यक्ति और सामूहिक स्तर पर स्थानीय संगठन और समाज असमर्थता का अहसास करने लगे तो निश्चय ही इसे मानवीय विकास-यात्रा का एक विकार ही मानना होगा।

इस प्रौद्योगिकी-आश्रित प्रसार-व्यवस्था और संप्रेषण प्रक्रिया का एक और गहरा असर पड़ता है जो किसी भी तरह कम चिंताजनक नहीं है। सांस्कृतिक विकास का सर्जनात्मक पक्ष भी इस प्रौद्योगिकी के दूषित प्रभावों या विकारों से मुक्त नहीं है। कोई भी समाज सही मानों में सांस्कृतिक तभी होता है जब वह अपने सामान्य दैनंदिन जीवन में भी अपनी संस्कृति से रचनात्मक स्तर पर जुड़ता है- उसके बिना सांस्कृतिक आदर्शों की सैद्धांतिक मान्यता या सम्मान उस समाज की आकांक्षाओं का तो परिचय देते हैं, लेकिन उन आकांक्षाओं और वास्तविक जीवन की दूरी या भेद अनिवार्यतः एक सांस्कृतिक द्विभाजन को जन्म देता है।

कला और साहित्य सांस्कृतिक चेतना का रचनात्मक अनुभूति पक्ष है। लेकिन यह पक्ष पूर्णरूपेण सार्थक और विकसित तभी माना जा सकता है जब यह रचनात्मक अनुभूति कुछ व्यक्तियों या विशेषज्ञों तक सीमित न रहकर समग्र समाज में हर स्तर पर व्याप जाय। प्रसार साधनों की प्रौद्योगिकी-आश्रित और केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति ने इन सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के साथ हमारा रिश्ता रचनात्मक नहीं रहने दिया है। कलाएँ और साहित्य धीरे-धीरे विशेषज्ञों की संपत्ति बनते जा रहे हैं। सामान्य स्तर पर उनके साथ समाज का रिश्ता उपभोक्ता का अधिक होता जा रहा है और रचनात्मक कम।

इन क्षेत्रों के समर्थ व्यक्तियों और विशेषज्ञों की उपलब्धियों तक इन प्रसार-साधनों के जरिए हर व्यक्ति की पहुँच हो सकती है जो शुभ है। लेकिन इसका एक उपप्रभाव यह भी हुआ है कि हम न केवल स्थानीय प्रतिभाओं की अवहेलना करने लगे हैं, बल्कि निजी स्तर पर इस प्रकार की सर्जनात्मक अनुभूति के मार्ग भी हमारे लिए रुद्ध होने लगे हैं। प्रसार-साधनों के माध्यम से बड़ी उपलब्धियों का हम पर छाया हुआ सांस्कृतिक आतंक इसका कारण है।

कला और साहित्य सदैव विशेषीकृत ही नहीं होते क्योंकि वे बुनियादी तौर कोई पेशा नहीं हैं। इन क्षेत्रों की बड़ी उपलब्धियाँ किसी समाज की सांस्कृतिक चेतना के विकास की संभावनाओं को उजागर करती हैं लेकिन ये संभावनाएँ पूरे समाज की चेतना तभी बनती हैं जब इनके साथ समाज का रचनात्मक रिश्ता हो, उपभोक्ता का नहीं। दस-बीस अच्छे वैज्ञानिक पैदा करने से या आधुनिक उपकरणों के प्रयोग से ही कोई समाज, वैज्ञानिक प्रवृत्ति का समाज नहीं कहला सकता। इसके लिए पूरे समाज के आचरण में अन्धविश्वासों का निराकरण और विवेकमूलक चिंतन पद्धति का प्रतिबिंबित होना आवश्यक है। वैज्ञानिकता के साथ किसी समाज का यही रचनात्मक रिश्ता हो सकता है। इसी प्रकार दस-बीस बड़े कलाकारों या साहित्यकारों की उपस्थिति या इनकी रचनाओं का व्यापक स्तर पर उपलब्ध होना ही किसी समाज को एक सांस्कृतिक समाज नहीं प्रमाणित करता।

इसके लिए आवश्यक है कि समाज में हर स्तर पर कला और साहित्य के प्रति एक रचनात्मक सक्रिय लगाव विकसित हो। मैं सिर्फ सक्रिय लगाव की माँग कर रहा हूँ, दक्षता या विशेषज्ञता की नहीं। अभी तो हालत यह है कि हम न केवल स्वयं गुनगुनाने, नाचने या टूटे-फूटे छंद रचने और उन्हें अपने निजी परिवेश में संप्रेषित करने में संकोच अनुभव करते हैं, बल्कि विभिन्न कलात्मक प्रस्तुतियों के बारे में भी अपनी पसंद और अपने निर्णय की बजाय प्रसार-साधनों की राय पर निर्भर करते हैं।

यह केंद्रीकरण, यह विशेषज्ञता संस्कृति को भी एक उपभोग की वस्तु बनाती है, उसे हमारी दैनंदिन रचनात्मक अनुभूति नहीं रहने देती और कोई भी समाज इसके बिना निश्चित ही बड़ी उपलब्धियों के माध्यम से उजागर हो रही सांस्कृतिक संभावनाओं को आत्मसात नहीं कर सकता। इसके लिए स्थानीय परिवेश से जुड़ाव के साथ-साथ संप्रेषण तथा प्रसार की सरल तकनीक और विकेंद्रीकृत व्यवस्था ही कारगर उपाय हैं।


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