शैलेन्द्र चौहान की चार कविताऍं

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

1. ईहा

सारंगी के तारों से झरता
करुण रस
हल्का हल्का प्रकाश
कानों में घुलने लगते मृदु और दुखभरे गीत
शीर्षहीन स्त्री

सारंगी तू सुन
मद्धम सी धुन

अनवरत तलाश एक चेहरे की
हाथ, पाँव, धड़, स्तन
पर नहीं कोई चेहरा….
चाँदनी बनकर उभरते चेहरे
केनवास पर लगातार ….लगातार …..
कौतुक …………. कुतूहल…….

दौड़ती पटरियाँ
समानांतर
तूलिका, रंग और
नित नए रहस्यों की तलाश
दीर्घ अनुभव, परम्परा, इतिहास, दर्शन
मिथ और प्रकृति

जैसे जैसे शुरू होती
पहाड़ की चढ़ाई
हर मकान में
जीने के ऊपर की चौकोर कोठरी
पुती है गहरे नीले चूने से

विरल है बूंदी का यह सौन्दर्य
देखो-देखो, राजप्रासाद को

मात दे रही लोक रुचि
है न मज़ेदार !

इतना सब पाने और देने के बाद
वो क्या है जो तुम नहीं पा सके
प्रसिद्धि के रोबिनहुड घोड़े पर सवार
ओ अघाये मदमस्त घुडसवार
तुम्हें किस चीज़ की है दरकार?

नहीं, कुछ भी नहीं
मैं यहीं पैदा हुआ
इसी धरती पर

मिथ, आत्माएँ, शरीर, भूगोल
इतिहास
यह मेरा ही है
ये संगीत मेरा है
ये संस्कृति और
अहंमन्यता भी मेरी है

मैं इसी मिट्टी में पैदा हुआ हूॅं।
मरना भी चाहता हूॅं
इसी सरज़मीं पर।

2. अग्निगर्भा हूं मैं

उपलों की आग पर
जलती लकड़ियां
खदकती दाल
सिंकती रोटियां

जलती आंखें धुएं से
फिर भी नित्यप्रति वही दोहराव
क्या कभी नहीं सोचती माँ
हमारी क्षुधातृप्ति से इतर
अपनी परेशानी

हर वक्त परिवार के सदस्यों की
सुख-सुविधा और खुशियों से अलग
अपने निज दुख-सुख की बाबत

नहीं सोचता उसके बारे में कोई
जिस तरह सोचती है वह हमेशा

उन सबकी खातिर

वह एक नदी है सदानीरा
हमेशा बहती है
हवा है शीतल
निरंतर चलती है

आग है
लगातार जलती है
छूट गयी माँ गांव में
पढ़ने लिखने खेलने में गुजर गया वक्त
पता ही नहीं चला
किस आग में जलने लगा मैं
कितनी कितनी तपिश
कितनी आशाएं, आकांक्षाएं और कोशिशें
कभी उत्साह फिर
असफलताएं, निराशा और कुंठाएं
उबरना चलना रुकना ठहरना

माँ रही आयी गांव में
चिंता में डूबी चिर योद्धा सी
अडिग
बहुत आग थी मन में

धीरे धीरे शमित होती रही
अवरुद्ध होती रही ताजा हवा

एक बिजूका खड़ा था
सुविधाओं के खेत में
एक ठूंठ वन में
जंगल की आग जला देती है सब
वृक्ष, वनस्पतियां और दूब
सुखा देती है जल झरनों, छोटी नदियों और झीलों का

जीविकोपार्जन, भविष्य, अगली पीढ़ी
गांव, घर, खेत छूटे

माँ भी समाई
अग्निगर्भ में
जी रहा हूं आकाश के अनंत विस्तार में
एक क्षुद्र प्राणी पृथ्वी का

किसी अन्य ग्रह से नहीं आया
लेकिन एक नए विश्व की आशा में
सदियों से
अग्निगर्भा मैं।

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

3. एक घटना

उत्ताल तरंगों की तरह
फैल गया है मेरे मन पर
सराबोर हूँ मैं
उल्लसित हूँ

झाग बन उफन रहा है
जल की सतह पर
धरा के छोर पर
छोड़ गया है निशान
क्षार, कूड़ा-करकट अवांछित
यही है फेनिल यथार्थ
गुंजार और हुंकार बन
बिखर गया है तटीय क्षेत्र में
एक प्रक्रिया, एक घटना,
एक टीस बन

ऋतुओं की तरह बदल रहा है चोला
बैसाख सा ताप
आषाढ़ की व्यग्रता
भाद्रा की वृष्टि
शरद की शीत
और शिशिर की
कंपकंपी बन

जन्मा है धरती पर
अकलुष प्रेम।

4. जीवन-संगिनी

हाँ, मैं
तुम पर कविता लिखूँगा
लिखूँगा चालीस बरस का
अबूझ इतिहास
अनूठा महाकाव्य
असीम भूगोल और
निर्बाध बहती अजस्र
एक सदानीरा नदी की कथा

आवश्यक है
जल की
कल-कल ध्वनि को
तरंगबद्ध किया जाए
तृप्ति का बखान हो
आस्था, श्रद्धा और
समर्पण की बात हो
और यह कि
नदी को नदी कहा जाए

जन्म, मृत्यु, दर्शन, धर्म
सब यहाँ जुड़ते हैं
सरिता-कूल आकर
डूबा-उतराया जाए इनमें
पूरा जीवन
इस नदी के तीर
कैसे घाट-घाट बहता रहा

भूख प्यास, दिन उजास
शीत-कपास
अन्न की मधुर सुवास
सब कुछ तुम्हारे हाथों का
स्पर्श पाकर
मेरे जीवन-जल में
विलीन हो गया है।

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