देश की स्वतंत्रता के 75 बरस हो गए हैं और हमारा दुनिया के देशों में एक लोकतांत्रिक देश के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान है। हमारी स्वराज यात्रा में 1857, 1905, 1921, 1942 के बाद 1947 और 1950 का बड़ा महत्त्व है। सबको राजनीतिक समानता और सामाजिक-आर्थिक न्याय की नींव पर लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण की 1947-’52 के बीच ऐतिहासिक शुरुआत हुई।
2. लेकिन यह चिंता की बात है कि आजकल हमारी छबि की चमक घट रही है। क्योंकि हमारे जनतंत्र में सबकी हिस्सेदारी का वायदा अधूरा है। प्रतिनिधित्व की दृष्टि से हमारी विधायिका असंतुलित है। महिलाओं के लिए अवसर नगण्य हैं। गाँव की आवाज दब गयी है। देश में 80 प्रतिशत स्त्री-पुरुष गरीब हैं लेकिन हमारी संसद और विधानसभाओं में 80 प्रतिशत सीटों पर करोड़पतियों का कब्जा है। हमारी राष्ट्रीयता बहुभाषी और बहुधर्मी है लेकिन गैर-हिंदुओं के लिए विधायिका में जगह घट रही है। यह राष्ट्रीयता और लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।
3. हमारी सत्ता व्यवस्था का आधार राजनीतिक समानता है। इसके लिए संविधान में हर भारतीय को वोट के अधिकार के साथ ही कुछ मौलिक अधिकार दिए गए हैं। नागरिक कर्तव्यों की एक सूची भी है। दूसरी तरफ, भारत की समाज व्यवस्था में प्रभुजातियों के संपन्न हिस्से के वर्चस्व के कारण पुरुष प्रधान जाति व्यवस्था से जुड़ी सामाजिक विषमता की समस्या है। अर्थव्यवस्था में पूँजीपतियों और भूस्वामियों की केंद्रीयता और एक चौथाई जनसंख्या की साधनहीन जिंदगी का सहअस्तित्व है। वैभव से संतृप्त सर्वोच्च वर्ग और वंचित भारत के बीच का फासला पिछले तीन दशकों से लगातार बढ़ रहा था। कोरोना की महामारी ने 1990 से इस गैर-बराबरी की आग में घी का काम किया है।
4. वंचित भारत के करोड़ों स्त्री-पुरुष (क) दवाई, (ख) कमाई, (ग) पढ़ाई, और (घ) महंगाई के चौमुखी राक्षस से प्रताड़ित हैं। उनके लिए इस संकट का समाधान ही राष्ट्रनिर्माण की कसौटी है। इसमें वे केंद्रीय और प्रादेशिक सरकारों से सक्रिय सहायता की अपेक्षा रखते हैं। यह उम्मीद उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की तरफ तेजी से बढ़ रही सरकार की नीतियों से टकराहट पैदा कर रही है।
5. पूँजीवादी भूमंडलीकरण से लाभ पानेवाले वित्तीय पूँजी के स्वामी इस सवाल पर जनसाधारण के हितों की अनदेखी कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप किसान, कारखाना मजदूर और रोजगार की तलाश में परेशान युवाशक्ति से लेकर छोटे और मझोले उद्योगों के संचालक समुदाय में बहुत बेचैनी है। 2021 का किसान आंदोलन इसी बेचैनी का एक परिणाम रहा है।
6. राजनीतिक समानता और सामाजिक/आर्थिक विषमता के अंतर्विरोधों को संविधान ने चुनावी तरीके से सुलझाने की व्यवस्था की है। लेकिन हमारी चुनाव व्यवस्था देशी और विदेशी पूँजी के दबाव से अस्वस्थता का शिकार हो गयी है। इसमें अवैध कमाई और टैक्स चोरी से पैदा ‘काला धन’ की खुली भूमिका है। दलों का कारोबार काले धन से चल रहा है। इसीलिए परस्पर गंभीर मतभेद के बावजूद सभी दल अपने आय-व्यय की जानकारी छिपाने के लिए एकजुटता कायम किये हुए हैं। दबंग प्रभुजातियों के अपराधी तत्त्वों की धनशक्ति मतदाता के विवेक को पराजित करने लगी है। दलों के बीच ‘जीत की संभावना’ के चलते संपन्न वर्गों के अपराधी तत्त्वों को अपना उम्मीदवार बनाने की खुली होड़ है।
7. ऐसे परिवेश में हर चुनाव के बाद हमारी राजनीति लोकतंत्र से कुछ और दूर जा रही है। दलों के गठबंधन हार-जीत के कागजी खेल में व्यस्त दीखते हैं। मतदाताओं में जाति और सांप्रदायिकता का व्याकरण भी चलता है। लेकिन अंतिम विजय लोकशक्ति के बजाय धनशक्ति की होने लगी है। अब तो दलों के टिकट भी जनसेवा के बजाय धन की ताकत के लिहाज से दिए जाने लगे हैं। मतदाताओं के निर्धन हिस्से को नकद रकम, मुफ्त शराब और भरपेट भोजन देना चुनावी रणनीति का हिस्सा हो रहा है।
8. इस चौतरफा अपवित्रता के बीच अभी पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और गोवा की विधानसभा के चुनाव हुए। चार प्रदेश भारतीय जनता पार्टी और एक प्रदेश आम आदमी पार्टी के खाते में चले गए। इस जीत-हार की समीक्षा में इन प्रदेशों की राजनीति में काले धन, अपराधी तत्त्वों और विदेशी कंपनियों की भूमिका पर कोई चर्चा नहीं की जा रही है। चुनाव आयोग की शर्मनाक विफलताओं की आत्मघाती अनदेखी की गयी है।
9. हम जनतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण के जरिये देशज नवनिर्माण के लिए समर्पित लोग हैं। हमारे लिए हर चुनाव दलों की हार-जीत के साथ ही लोकशक्ति निर्माण की दिशा में लोकशिक्षण का अमूल्य अवसर है। इसलिए चुनावों को ‘बाँटो और बहुमत जुटाओ’ का मौका बनते देखना जनतंत्र के नाजुक पौधे की जड़ में मट्ठा डालने पर चुप रहने जैसा अपराध है। इस चुप्पी से चुनाव के जरिये जनतंत्र को नष्ट करने पर आमादा प्रभुजातियों और अपराधी गिरोहों को प्रोत्साहन मिलेगा।
10. इसलिए 10 मार्च को पूरे हुए निर्वाचन के बाद यह जरूरी हो गया है कि सभी सरोकारी नागरिक 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले चुनाव सुधार का अभियान चलाने के लिए स्थानीय मतदाताओं के बीच जागरूकता पैदा करें और एक मांगपत्र के लिए ‘चुनाव सुधार समिति’ गठित करें। इसके लिए तारकुंडे समिति, दिनेश गोस्वामी समिति, और इंद्रजीत गुप्ता समिति से लेकर देवसहायम संपादित चुनाव सुधार किताब (2022) की मदद लें, जिससे 1. चुनाव को अवैध धन के बजाय स्वच्छ धन से संपन्न किया जाए; 2. वोट के प्रतिशत और सीटों में संतुलन हो; 3. नेतृत्व निर्माण और दल-निर्माण परस्पर पूरक बनें; 4. चुनाव घोषणा पत्र की पवित्रता क़ायम हो; 5. चुने हुए जन-प्रतिनिधि मतदाताओं के प्रति ज़िम्मेदार बनें.
11. अगर हमने अगले राष्ट्रीय चुनाव के पहले चुनाव सुधार की दिशा में कदम उठाये तो हमारी स्वतंत्रता की 75वीं जयंती एक ऐतिहासिक उत्सव बन जाएगी। आज चुनाव सुधार ही लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण की पहली जरूरत है।
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