सुमन मौर्य की तीन कविताएँ

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

1. युद्ध और इतिहास

जब भी लड़े जाते हैं युद्ध

हर बार मरता है एक मनुष्य

लड़ती हैं इच्छाएँ, कुत्साएँ और अहं

घायल होती मनुष्यता के चीथड़े उड़ाती हवा

सायं सायं करती, रचती है भयावहता।

कोई भी फर्क नहीं पड़ता शाह-ए-वक्त की दिनचर्या पर

दर-बदर ठोकरें खाती / विस्थापित होती है मनुष्यता।

इतिहास दर्ज नहीं करता मौतें,

चीख-पुकार और तबाही के मंजर / और ना ही

शाह-ए-वक्त की उँगलियों के इशारे।

दिन, तारीख और बरसों की गणनाएँ

तथ्यात्मक सूचनाएँ भर / दर्ज रह जाती हैं इतिहास में

कविताओं में दिखते हैं खून के छींटे / कराहते लोग

नोची जाती अस्मतों के भयानक मंजर।

शब्दों की सामर्थ्य चुक गयी है / क्रूर समय के भयानक दृश्य को उकेरना

अभी शेष है कविताओं में

इतिहास में शब्दों की बहुत कमी है

मनुष्यता की भी।


2. 
होड़

 

होड़ है सपनों और रोटियों में

साथ-साथ चलते हैं दोनों

बनते बिगड़ते हैं दोनों।

वृत्ताकार परिधि से बाहर

नहीं जातीं रोटियाँ

जबकि / सपने सीमाएँ तोड़ते हैं।

नींद, जागृति, कर्मलीनता / हर जगह

हर वक्त / किसी भी टोकाटोकी से बेखबर

ये कैसी आवाजाही है

सपनों की।


3. स्त्री और स्वर्ग


उसके सम्मान के लिए
/ सुरक्षा के लिए उसकी

कई सारे बिल पास हुए हैं संसद में,

पर सड़क पर अभी भी

बहुत खस्ताहाल दिखती है वह।

लिखना चाहती हूँ मैं तारीफ उसकी

पुल तारीफों के बाँधना चाहती हूँ

पर कलम कुछ और लिखवा जाती है

लिख जाती है स्त्री की चीख

जिसमें कठुआ और उन्नाव जैसी

हजारों दबी हुई चीखें शामिल हैं

मैं लिख ही नहीं पाती  उनके बगैर कविता।

कविता के मानदंडों से बेखबर होकर ही

मैं देख पाती हूँ सच  और कह भी पाती हूँ

एक सिलसिला / बरसों बरस चलता आया

कविता में भी

बहिष्कृत ही दिखती रही वह।

वह परिधिस्थ रही या केन्द्रस्थ

रचती रही स्वर्ग / सबके लिए

खुद को नर्क करके

खुद को गर्क करके।


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