— राजकिशोर —
काम के प्रति मेरा दृष्टिकोण बचपन में ही बन गया था और जीवन का इतना अनुभव हो जाने के बावजूद– या शायद उसके कारण– वह अभी तक कायम है। यह दृष्टिकोण काम विरोधी नहीं है, पर पूजा करने का भी नहीं है। साफ-साफ कहा जाए तो जीविका के लिए बहुत ज्यादा काम करना ठीक नहीं है। इससे जीविका के साधन भले ही दृढ़ होते हों, पर जीवन के सुख कम होते हैं। मैं उन व्यक्तियों को स्पृहा से देखता हूँ जो कोई सिलसिलेवार काम किये बिना जीवन बिताते है। इस वर्ग में ऐसे व्यक्ति भी आते हैं जिन्हें परजीवी कहा जाता है। इन्हें मैं कतई पसंद नहीं करता। जो परजीविता धोखे या शोषण पर टिकी होती है, वह तो घृणा की भी पात्र है।
इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि काम करना मनुष्य की आंतरिक विवशता है- इसके बिना वह अपने पशु-अस्तित्व से उबर नहीं सकता। जानवर काम नहीं करता, आदमी करता है। जो जानवर आदमी के संसर्ग में आ जाते हैं, संसर्ग-दोषवश उन्हें भी काम करना पड़ता है। बैल या भैंसा जंगल में रहते हैं तो अपने लिए थोड़े से पत्तों या घास का इंतजाम कर मस्त घूमते हैं। लेकिन मनुष्य के वशीभूत हो जाने के बाद उन्हें भी काम में जोत दिया जाता है। वह हल और रहट खींचते हैं या फिर आदमी या सामान से भरी हुई गाड़ी। घोड़े को आदमी को अपनी पीठ पर बैठाकर दौड़ना पड़ता है और चाल मद्धिम होने पर चाबुक खाना पड़ता है। पशुओं की यह उपयोगिता देखकर ही दास पद्धति की शुरुआत की गयी होगी। मरा हुआ जानवर सिर्फ एक बार काम आता है, जिंदा जानवर उम्र भर काम आता है। इसलिए युद्ध में आदमी को मारने से क्या फायदा! उसे जिंदा पकड़ लो, दास बनाओ और उससे खूब जमकर काम लो। दास बना दिया गया आदमी, आदमी नहीं रह जाता– वह बुद्धिवान पशु हो जाता है। औद्योगिक सभ्यता के पहले की सभी सभ्यताओं के आर्थिक आधार में दास श्रम का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। विकास के एतिहासिक और भौतिकवादी पहलुओं का अध्ययन करनेवाले अनेक विद्वानों का मानना है कि दास न होते तो मानव सभ्यता का विकास भी न होता। उनसे यह प्रश्न करना बेकार है कि एक बड़ी आबादी को दास बनाये बगैर जो नहीं हो सकता, क्या उसे भी विकास ही कहेंगे?
स्पष्टतः काम और काम में फर्क है। किसान, शिल्पी या व्यापारी जो काम करता था, उसकी गुणवत्ता दास के काम से भिन्न थी। जो काम अपने लिए किया जाए, वह सुख देता है। एक तरह से, यह आत्म का ही विस्तार है। जो काम दूसरे के लिए, लेकिन स्वेच्छा से यानी उसका बोझ हल्का करने या उसे सुख पहुँचाने के लिए किया जाता है, वह भी सुखकारक है। यह भी, एक तरह से आत्मा का विस्तार ही है। लेकिन जो काम विवशता में दूसरे के लिए किया जाए, वह अपने आप में सुखद हो, तब भी पीड़ा का कारण बनता है। ऐसी ही स्थितियों का वर्णन करने के लिए ‘प्रतिक्रियावादी’ कवि तुलसीदास ने कहा है– पराधीन सुख सपनेहु नाहीं। यह उक्ति स्त्रियों की स्थिति के संदर्भ में है, पर उन सभी पर लागू होती है जो किसी न किसी प्रकार की पराधीनता के शिकार हैं।
यह दिलचस्प है कि मानवता के लिए वरदान बनकर आनेवाली औद्योगिक क्रांति ने काम के घंटों को बेतहाशा बढ़ाया और काम की स्थितियों का स्तर बेहद गिराया। इस क्रांति के प्रारंभिक दो सौ वर्षों में मजदूरों को रोज बारह से अठारह घंटे काम करना पड़ता था– अत्यंत अस्वास्थ्यकर स्थितियों में। पुरुषों को ही नहीं, स्त्रियों और बच्चों को भी। अगर यह क्रांति थी, तो बहुत ही अमानवीय तरीके से की गयी क्रांति थी।
लाखों आदमियों का बालिदान लेने के बाद औद्योगिक सभ्यता ने दुनिया के एक छोटे से हिस्से में काम के घंटे कम किये और काम की स्थितियों को ठीक-ठाक बनाया। बच्चों और बूढ़ों को बख्श दिया गया। ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों को काम पर बुला लिया गया। इतनी संपन्नता हासिल कर लेने के बाद, कायदे से, पश्चिमी व्यक्ति को हफ्ते में तीन दिन से ज्यादा काम नहीं करना चाहिए और चार दिन मर्जी की जिंदगी बितानी चाहिए। वह अब भी हफ्ते में पाँच दिन इतना जमकर काम करता है कि थकान मिटाने के लिए उसे शेष दो दिन मनोरंजन में झोंक देने पड़ते हैं।
काम की यह नयी संस्कृति अब भारत के महानगरों में भी दिखाई देने लगी है। उच्च अधिकारियों को छोड़कर सरकारी नौकरियों में अब भी कार्य-घंटे सुनिश्चित हैं। लेकिन प्राइवेट नौकरियों में काम के घंटे पहले भी ज्यादा थे अब भी ज्यादा हैं। सबसे बुरा हाल उन युवाओं का है जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों या उन जैसी फर्मों में काम करते हैं। कहने को उन्हें वेतन ज्यादा मिलता है, पर उनसे काम भी दुगुना-तिगुना लिया जाता है। सुबह घर से निकल जाते हैं और रात गये लौटते हैं। यह भूमंडलीकरण की देन है।
बताते हैं कि उत्पादन की आधुनिक पद्धति में उत्पादकता ज्यादा होती है। तो फिर इतने घंटे काम करने की जरूरत क्या है? कम घंटों में ज्यादा उत्पादन क्यों नहीं किया जा सकता? इससे ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा और जो काम में लगेंगे, वे अपना बाकी समय अपनी मर्जी के मुताबिक बिता सकेंगे।
स्पष्ट है कि भारत की नयी संस्कृति में धन के देवता की पूजा बढ़ रही है। यह देवता सबसे अधिक असहिष्णु होता है। दूसरे देवताओं के बीच सह-अस्तित्व हो सकता है, लेकिन धन का देवता किसी और देवी-देवता को बर्दाश्त नहीं करता। या, उन्हें अपने अधीन कर लेता है, जिसके बाद उनका रहना-न रहना बराबर हो जाता है। काम होना चाहिए, क्योंकि इसी से उत्पादन होता है। लेकिन उत्पादन बढ़ाकर क्या फायदा, अगर उत्पादित वस्तुओं का उपयोग तसल्ली से न किया जा सके! और फिर जीवन उत्पादन और उपभोग ही तो नहीं है। क्या यह याद दिलाना होगा कि साहित्य-संगीत-कला विहीन मनुष्य को क्या कहा गया है?