— बगाराम तुलपुले —
करीब डेढ़ सदी पहले कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो (साम्यवाद का घोषणापत्र) में एक वर्गविहीन, शोषणमुक्त, समता पर आधारित समाज व्यवस्था की घोषणा की थी और उन ताकतों तथा प्रक्रियाओं की भी स्पष्ट पहचान की थी जो दुनिया भर में मानव समाज को इस दिशा में अग्रसरित करेंगे। मनुष्य द्वारा मनुष्य और देश द्वारा देश के शोषण और उत्पीड़न की बुराई को समझनेवाले और भी कई लोग थे। वे सभी न एक दूसरे से सहमत थे, न ही मार्क्स के मेनिफेस्टो को स्वीकार करते थे। उनके सिद्धांतों और कार्यक्रमों में कुछ महत्त्वपूर्ण फर्क था, फिर भी उन सभी विचारों की धाराएँ मिलकर समाजवाद के महानद का निर्माण कर गयीं।
उसके बाद लगभग एक सदी तक समाजवाद की धारा व्यापक और ताकतवर होती रही, कुछ देशों में हिंसक अभियानों के जरिए तो कुछ देशों में लोकतांत्रिक उपायों से। बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में कई महत्त्वपूर्ण, सचमुच दुनिया को झकझोर देनेवाली घटनाएँ हुईं। रूसी क्रांति से दुनिया में मजदूरों की पहली राज्य-व्यवस्था बनाने के दावे के साथ सोवियत संघ की स्थापना निस्संदेह युगांतरकारी घटना थी जिसका दुनिया के इतिहास में लगभग तीन-चौथाई सदी तक भारी असर रहा है। इसी तरह ब्रिटेन में लेबर पार्टी और पश्चिमी यूरोप के कई देशों में लोकतांत्रिक समाजवादियों का उदय भी इस कदर अद्भुत आकर्षक घटना भले न हो मगर समाजवाद के विकास में उनका स्थान कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। सोवियत संघ ने दुनिया के लगभग सभी देशों में साम्यवादी क्रांति के उद्देश्य से पहले कॉमिनटर्न और बाद में कॉमिनफार्म के जरिए कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने देशों में मजदूर वर्ग को संगठित करने और पूंजीपतियों तथा जमीदारों के खिलाफ संघर्ष में कुछ हद तक सफल भी हुईं। और यह भी आम धारणा थी कि इन कम्युनिस्ट पार्टियों की नीतियों, रणनीतियों और कार्यक्रमों पर सोवियत संघ का असर रहा है। समाजवाद की दूसरी धाराएँ इन कम्युनिस्ट पार्टियों के सिद्धांतों और नीतियों की सख्त विरोधी रहीं और उनके बीच टकराव भी होता रहा। फिर भी, ये दोनों दुनिया भर में वामपंथ का प्रतिनिधित्व करती रहीं।
बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में दो विश्वयुद्ध भी हुए और दोनों पूँजीवादी देशों के बीच अपनी आर्थिक और साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए हुए थे। तब ऐसा लगा था कि पूँजीवादी व्यवस्थाओं के अपने आंतरिक विरोधाभासों से ही चरमराने की मार्क्स की अवधारणा सही साबित हो रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध में अचानक सोवियत संघ खींच लिया गया और उसके साहसिक प्रतिरोध से नाजियों की विजय-यात्रा रुक गयी और वे बर्लिन लौटने को मजबूर हुए। इसका युद्ध पर निर्णायक असर हुआ और अंततः फासीवाद और नाजीवाद पराजित हुआ। इस तरह यह साबित हो गया कि पूँजीवादी देश तानाशाही की पराजय का श्रेय अकेले नहीं ले सकते।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही कई उपनिवेशों में साम्राज्यवाद के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ने लगा था। 1945 में युद्ध समाप्त होने के साथ ये आंदोलन तेज हुए और अगले कुछ वर्षों में दुनिया में लगभग हर जगह साम्राज्यवादी प्रभुत्व खत्म होने लगा। भारत दुनिया भर में स्वतंत्रता आंदोलनों की विजय में अग्रणी रहने का वाजिब दावा कर सकता है।
रूस में कम्युनिस्ट क्रांति की तरह ही दुनिया को झकझोरने वाली घटना माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की क़ॉमिनटांग पर विजय थी। कॉमिनटांग चीन की मुख्यभूमि को छोड़कर ताइवान में सिमट गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी पर लेबर पार्टी की विजय भी हुई। नतीजतन, बुनियादी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया और हर नागरिक को ‘पालने से कब्र’ तक सुरक्षा मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य व सुरक्षा योजनाओं का सूत्रपात हुआ। पश्चिम यूरोप में लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टियों का ताकत भी बढ़ी और पश्चिम जर्मनी में उन्हें सत्ता भी हासिल हुई।
इसी अवधि में दुनिया के लगभग सभी देशों में औद्योगिक मजदूर संगठनों की ताकत और प्रसार भी खूब बढ़ा। इसमें ज्यादातर मजदूर संघ या तो कम्युनिस्ट थे, या फिर किसी समाजवादी विचारधारा के। कम्युनिस्ट शासनवाले देशों में भी मजदूर संघ थे लेकिन वे पूरी तरह राज्याश्रित थे। बाकी दुनिया में कम्युनिस्ट मजदूर संघ कॉमिनटर्न/कॉमिनफार्म, या कहें, सोवियत सरकार की नीतियों-रणनीतियों के अनुसार चलते थे। फिर भी, इन संघों ने मजदूरों के संघर्षों की अगुआई की और वामपंथ की ताकत को व्यापक करने में मददगार हुए।
इसका यह मतलब नहीं कि पूँजीवाद ने वामपंथ की ताकतों को चुपचाप हावी होने दिया। युद्ध से जर्जर पश्चिम यूरोप के देशों में पुनर्निर्माण योजनाओं से उद्योगों को काफी मजबूती मिली, जो लगभग सभी निजी क्षेत्र के हाथों में थे। क्षत-विक्षत जापान में अमरीकी प्रभुत्व से जापानी उद्योगों और अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी तर्ज पर पुनर्जीवन मिला। इस तरह गैर-साम्यवादी दुनिया में पूँजीवाद की जड़ें मजबूत हो रही थीं और दुनिया भर में उसका प्रभाव बढ़ रहा था।
लेकिन इसे स्वीकार करके और सोवियत संघ की अगुआई वाली कम्युनिस्ट ताकतों तथा विभिन्न धाराओं की समाजवादी ताकतों के बीच तीखे टकराव की अनदेखी न करके भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछली सदी के मध्य में दुनिया के अधिकांश हिस्सों में समाजवादी ताकतों का उत्थान दिख रहा था।
यह उभार इतना तेज था कि भारतीय समाजवाद के एक अग्रणी सिद्धांतकार अशोक मेहता ने 1950 के आसपास घोषणा की कि बीती अर्धशती पूँजीवाद की थी तो अगली अर्धशती समाजवाद की होगी। निस्संदेह यह समाजवादी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के मकसद से दिया गया नारा था, मगर इस नारे में वास्तविक उम्मीदों की गूँज भी थी।
भारत में पिछली सदी में 1930 के दशक के मध्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय कुछ युवाओं ने समाजवादी पार्टी की स्थापना की थी। उसके पहले एक कम्युनिस्ट पार्टी भी अस्तित्व में आ चुकी थी। एक समय तो यह भी लग रहा था कि समाजवादी और कम्युनिस्ट साथ-साथ काम करने को तैयार हो जाएंगे, चाहे वास्तविक अर्थों में उनका विलय न हो। लेकिन तीखे सैद्धांतिक और नीतिगत मतभेदों की वजह से यह नहीं हो पाया। समाजवादी पूरी तरह कांग्रेस की अगुआई में स्वतंत्रता आंदोलन में शरीक थे जबकि कम्युनिस्ट आजादी के लिए संघर्ष में हिस्सेदारी की बातें करने के बावजूद सोवियत संघ नियंत्रित अंतरराष्ट्रीय संस्था से संचालित होते थे।
अगस्त 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन ने बड़ी संख्या में नौजवानों और युवतियों को आकर्षित किया। आंदोलन शुरू होते ही राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिले स्तर तक के सभी नेताओं को सरकार ने जेल में डाल दिया। इसके बाद आंदोलन की अगुआई के लिए गिरफ्तारी से बचने में कामयाब रहे कुछ समाजवादी नेता ही बच गए। इन लोगों ने नौजवानों को संगठित किया और पूरे देश में आंदोलन की धड़कन महसूस की जाने लगी। आखिरकार ये समाजवादी नेता भी पकड़े गए और उन्हें कई वर्ष जेल में बिताने पड़े। इनमें ज्यादातर 1944-45 में जेल से छूटे तो समाजवाद के प्रति उनकी धारणा और पुष्ट हुई। जेल में समाजवादी नेताओं के साथ रहने और वामपंथी साहित्य के अध्ययन से वे समाजवाद से गहरे प्रभावित हो चुके थे।
1945 के आखिरी महीनों तक अधिकांश स्वतंत्रता सेनानी रिहा हुए तो जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली जैसे समाजवादी नेताओं की ख्याति देश के कोने-कोने तक पहुँच चुकी थी। इन नेताओं ने फौरन युवा कार्यकर्ताओं की विशाल फौज के सहारे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को मजबूत करने का फैसला किया।
उन दिनों पार्टी में समाजवाद के बुनियादी सिद्धांतों और नीतियों-कार्यक्रमों पर गंभीर बहस चली। बड़े पैमाने पर संगठन के प्रसार और मजबूती पर भी ध्यान दिया गया। पार्टी में इसपर सर्वाधिक जोर था कि समाजवाद लोकतांत्रिक होगा और वास्तविक लोकतंत्र की रूपरेखा समाजवादी ही होगी। पार्टी ने सर्वहारा की तानाशाही की मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवधारणा को पूरी तरह खारिज कर दिया क्योंकि सोवियत अनुभव बता रहा था कि सर्वहारा की तानाशाही पार्टी की तानाशाही में बदल गयी और अंततः वह एक व्यक्ति की तानाशाही होकर रह गयी।
इस तरह पिछली सदी के मध्य में न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के कई हिस्सों में समाजवादियों को बढ़त मिली हुई थी। हर जगह ऐसी फिजा दिख रही थी कि पूँजीवाद बचाव की मुद्रा में आ गया था और समाजवाद की ताकतें आगे बढ़ रही थीं।
लेकिन सदी के उत्तरार्ध का इतिहास कुछ और ही कहानी कहता है। विश्वयुद्ध के बाद विजयी देशों में औद्योगिक और आर्थिक प्रगति लगभग चौथाई सदी तक छलाँग भरती रही और 1970 के दशक के मध्य तक तो पूँजीवाद के कदम औपनिवेशिक दासता से मुक्त हुए देशों में भी बढ़ने लगे। अंतरराष्ट्रीय पहुँच और वित्तीय पूँजी का आकार कई गुना बढ़ने से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विश्व-बाजार में पैर जमाने लगीं और उसका दोहन करने लगीं। राजनीतिक रूप से भी लोकतांत्रिक समाजवादियों और ब्रिटेन की लेबर पार्टी तेजी से महत्त्व खोने लगी। इसके साथ थैचरवाद, रेगनवाद और क्रिश्चियन डेमोक्रेटों का उदय हुआ जो निजी क्षेत्र के प्रसार, राज्य का नियंत्रण कम करने, संगठित मजदूरों पर अंकुश लगाने जैसी नीतियों के प्रबल समर्थक थे।
पूँजीवादी अमरीका और कम्युनिस्ट सोवियत संघ के बीच शुरू हुए शीतयुद्ध से दोनों पक्षों में हथियारों की होड़ बढ़ी। भारी सामरिक खर्च से सोवियत संघ के औद्योगिक और आर्थिक संसाधन चुकने लगे। पश्चिम यूरोप के औद्योगिक देशों द्वारा समर्थित अमरीका की मजबूत अर्थव्यवस्था के मुकाबले सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था भारी सैनिक खर्च उठाने के काबिल नहीं थी। इस तरह अपने शुरुआती वर्षों में अनोखी उपलब्धि दिखानेवाली सोवियत अर्थव्यवस्था के पाये हिल उठे। भारी सैनिक खर्च के कारण लोगों को उपभोक्ता सामग्रियों का अभाव झेलना पड़ा और अफसरशाही तथा भ्रष्टाचार बढ़ने लगा। पड़ोसी कम्युनिस्ट महाशक्ति चीन से भी रिश्ते बिगड़ गये।
आखिरकार हुआ यह कि विश्व-पूँजीवाद नहीं बल्कि सोवियत व्यवस्था ही अपने विरोधाभासों के कारण चरमरा उठी। सोवियत संघ टूटकर कई स्वतंत्र देशों में बिखर गया। इन सभी देशों की जर्जर अर्थव्यवस्था ने उन्हें पूँजीवाद की ओर झुकने को मजबूर कर दिया। कम्युनिस्ट चीन ने भी साम्यवाद की शुचिता को त्यागा और वह जोर-शोर से पूँजीवाद की राह पर बढ़ने लगा।
ऐसा लगा कि सोवियत संघ का बिखराव विश्व-पूँजीवाद (जिसे अमरीकी पूँजीवाद कह सकते हैं) की अंतिम विजय है। यह भी लगा कि विश्व में एकमात्र महाशक्ति अमरीका का ही प्रभुत्व कायम हो गया। एक अमरीकी विद्वान ने 1980 के दशक में इतिहास के अंत तक की घोषणा कर डाली। लेकिन थोड़े ही समय में इतिहास ने दिखा दिया कि उसका अंत अभी दूर है।
हालांकि पूँजीवाद कई तरीकों से मजबूत होता गया। पिछली सदी के आखिरी दो दशकों में वित्तीय पूँजी का आकार और ताकत इस कदर बढ़ गयी कि वही लगभग सभी गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं के शोषण का प्रमुख साधन बन गयी। सूचना प्रौद्योगिकी के हैरतअंगेज प्रसार से भी वित्तीय पूँजी की देशों की सीमाओं के आर-पार अबाध गतिशीलता तेज हो गयी। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष अमरीका और कुछ हद तक दूसरी औद्योगिक महाशक्तियों का औजार पहले ही बन चुकी थीं। इनके जरिए वे तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों की माली हालत खस्ता करते रहे हैं। तीसरी दुनिया के ये देश धीरे-धीरे अपनी आर्थिक नीतियाँ खुद तय करने का संप्रभु अधिकार खोते जा रहे हैं। विश्व पूँजीवाद ने शोषण की एक और संधि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नाम पर कायम कर ली है। भारी कर्जे में डूबे तीसरी दुनिया के देशों के लिए डब्ल्य़ूटीओ एक और फंदा साबित हो रहा है।
उधर, अपने देश में बीसवीं सदी के मध्य में समाजवादी ताकतें औद्योगिक मजदूर वर्ग को सामाजिक परिवर्तन का हरावल मान रही थीं। समाजवादी कार्यकर्ता इन्हीं मजदूरों के संगठन बनाने में पूरी तरह जुट गये। वैसे, समाजवादियों ने सैद्धांतिक तौर पर जरूर किसानों को सामाजिक बदलाव की शक्ति मान लिया था, लेकिन उन्हें संगठित करने और उनकी समस्याओं के लिए संघर्ष की मिसालें बहुत कम हैं। इस तरह वर्ग संघर्ष, और वह भी औद्योगिक हलकों में ही, समाजवादियों के विचार और कार्यक्रमों के केंद्र में था।
हालांकि समाजवादियों ने मजदूर संगठनों के क्षेत्र में काफी अच्छा काम किया मगर सामाजिक बदलाव के मामले में उसका असर खास नहीं हुआ। इसकी एक वजह तो यह थी कि भारत की अर्थव्यवस्था में संगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या बहुत थोड़ी थी। लेकिन बुनियादी वजह यह थी कि भारत जैसे देश में वर्ग-टकराव शोषण और उत्पीड़न का एकमात्र स्वरूप नहीं है। जाति-व्यवस्था शोषण की बड़ी और गहरी व्यवस्था है। इसी तरह, दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह भारत में भी स्त्री-पुरुष भेदभाव बहुत व्यापक है। भारतीय समाजवादियों के विचारों और कार्यक्रमों में शोषण के ये क्षेत्र पूरी तरह नदारद थे।
समाजवादी यूँ तो गांधीजी के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे लेकिन वे कई दशकों पहले प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में व्यक्त विचारों को गंभीरता से नहीं लेते थे। वे आधुनिक उद्योग और तकनीक को विकास की स्वाभाविक परिणति के रूप में देखते थे। हालांकि डॉ लोहिया केंद्रीकृत बड़े उद्योगों के मुकाबले छोटी मशीनों की तकनीक पर जोर देते थे। लेकिन कुल मिलाकर आधुनिक तकनीक और उद्योग की अंधी दौड़ और उसके सामाजिक तथा पर्यावरण संबंधी नतीजों की ओर बेहद कम ध्यान दिया गया।
(यह लेख पहली बार सामयिक वार्ता के दिसंबर 2002 के अंक में प्रकाशित हुआ था। समाजवादी एक्टिविस्ट और बौद्धिक बगाराम तुलपुले जी का अप्रैल 2015 में निधन हो गया।)