— डॉ सुरेश खैरनार —
(दूसरी किस्त)
गांधीजी दक्षिण अफ्रीका की जेल में बंद रहे तब जनरल स्मट्स के लिए एक जोड़ी चप्पल खुद बनाकर जेल से बाहर निकलने के पहले उन्हें भेट दी थी ! यह इतिहासप्रसिद्ध प्रसंग सर्वविदित है।
कर्म आधारित जाति को बदलने के लिए गांधीजी के द्वारा किया गया प्रयोग! ज्यादा असरदार और कारगर कदम उठाने वाले गांधीजी को जाति-व्यवस्था का समर्थक कहनेवाले लोगों की बुद्धि पर तरस आता है!
(1) अस्पृश्यता हिंदू धर्म का अंग नहीं, और अगर है तो वह हिंदू धर्म मुझे मंजूर नहीं है !
(2) अगर हिंदू धर्म में विधवाओं को पुनर्विवाह करने का हक नहीं है तो विधुर पुरुषों को भी पुनर्विवाह करने का हक नहीं होना चाहिए !
(3) महिलाओं को परदे के अंदर रहने की जरूरत जब रही होगी तब की बात अलग है लेकिन वर्तमान समय में भी वही प्रथा जारी रखने की बात गलत है और वह राष्ट्र के लिए हानिकारक है। परदा प्रथा के पालन का आज भी आग्रह करना सिर्फ लोकभ्रम ही नहीं उसमें मुझे पाप भी दिखता है!
(4) हिंदू-मुस्लिम में हार्दिक ऐक्य के बगैर इस देश की प्रगति होना असंभव है !
(5) कल मुझे कोई अस्पृश्यता कायम रखने की शर्त पर स्वराज देने की पेशकश करेगा तो मैं ऐसे स्वराज्य को नकारता हूँ !
इसी दृष्टि के कारण गांधी जी ने अंग्रेजी सरकार ने जब मुसलमानों के जैसा दलितों को भी पृथक मतदाता संघ देने की पेशकश की तो उसका विरोध किया था। अंग्रेज सरकार के इरादे की भनक गांधी जी को 1932 के प्रारंभ में ही लग गयी थी । गांधीजी को मुसलमानों को भी पृथक मतदाता संघ देना मंजूर नहीं था ! क्योंकि वह बंटवारे की नींव डालने की अंग्रेजों की कूटनीति तथा बांटो और राज करो की रणनीति की देन थी। लेकिन लोकमान्य तिलक ने 1916 में लखनऊ समझौते पर बैरिस्टर जिन्ना के साथ हस्ताक्षर कर दिया था ! तब गांधीजी की हैसियत एक मामूली कार्यकर्ता से अधिक नहीं थी। उन्हें भारत आए कुछ ही दिन हुए थे, और लोकमान्य तिलक तब कांग्रेस के सर्वोच्च नेता थे ! उन्होंने लखनऊ प्रस्ताव में मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात से भी ज्यादा सीटें देना मंजूर किया था, इसके बावजूद हिंदुत्ववादियों ने आज तक कभी उन्हें मुस्लिमपरस्त नहीं कहा ! लेकिन महात्मा गांधीजी को गाहे-बगाहे मुस्लिमपरस्त बोलते हुए उनकी हत्या तक कर दी !
महात्मा गांधी ने देखा कि अंग्रेजी सरकार का इरादा दलितों को समस्त हिंदुओं से मुसलमानों के जैसा अलग करने तथा बांटो और राज करो वाला है, और यह सिलसिला सिख, एंग्लो इंडियन तथा अन्य जातियों और संप्रदायों के साथ भी है। इसी कारण 11 मार्च 1932 को गांधीजी ने भारत मंत्री सर सैमुअल होर को खत लिखकर कहा कि “दलितों को पृथक मतदाता संघ देकर भारत के हिंदुओं और दलितों में अलगाववादी तत्त्वों को हवा देने के कार्य के प्रति मेरा विरोध है। इस तरह के मतदाता संघों का राजनीतिक महत्त्व आपको समझ में आता होगा, लेकिन उसमें से उठनेवाले सामाजिक- धार्मिक-नैतिक सवाल काफी बड़े है ! और अगर अंग्रेज सरकार ने यह करने के लिए ठान लिया है तो मैं अपने प्राणों के अंत तक अनशन करके विरोध करूंगा ! यह बात गांधीजी ने भारत मंत्री सैमुअल होर को साफ-साफ लिखी थी। तो सैमुअल होर ने 13 अप्रैल को गांधीजी को दिए जवाब में कहा कि अभी इस बारे में कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है। और आपका रुख ध्यान में रखते हुए ही हम निर्णय लेंगे !
लेकिन 17 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने दलितों के लिए पृथक मतदाता मंडल की घोषणा कर दी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने गांधीजी की आपत्तियों की अनदेखी कर दी। इसी अंग्रेजी कूटनीति ने सबसे पहले मुसलमानों को लेकर भावी बंटवारे की नींव डालने की शुरुआत की थी ! (1906 में प्रिंस आगा ख़ान के साथ ही )
दलितों को लेकर एक और बंटवारे की नींव डालने का काम किया जा रहा था ! और महात्मा गांधी की कोशिश एक मां की ममता जैसी थी। भारत की आजादी के पहले क्या ऐसा टूटा- फूटा भारत का भविष्य होगा, यह सवाल उन्हें अपनी ममतामयी दृष्टि के कारण मथ रहा था। 1932 में वह साठ साल पार कर चुके थे, 63 के हो गये थे। इसके बावजूद आमरण अनशन का निर्णय! आमरण अनशन दूसरे ही दिन 20 सितंबर को शुरू होगा यह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड को बताया।
मैकडोनाल्ड इतने चालाक थे कि उन्होंने गांधीजी को लिखे पत्र में अपने निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि मुझे लगता है यह निर्णय आपको पसंद आएगा ! और आगे वह लिखते हैं कि संयुक्त मतदाता संघ का विचार किया, लेकिन उसमें से चुनकर जानेवाले प्रतिनिधियों को सवर्ण वर्ग के लोग ही चुनकर देंगे तो? वे दलित समाज के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हो सकते। और आगे चलकर मैकडोनाल्ड कह रहे हैं ! कि दलितों को सर्वसामान्य मतदाता संघ में एक और उनके लिए बीस साल आरक्षित रहनेवाले जातीय मतदाता संघ में एक, ऐसे दो मत देने के अधिकार प्रदान करने का अपनी सरकार का निर्णय है, यह गांधी जी को सूचित किया !
9 सितंबर को दिये जवाब में गांधीजी ने कहा कि “आप हिंदू समाज को बांटने का काम शुरू कर रहे हैं ! हिंदू समाज के और भी टुकड़े करने का सबसे बड़ा षड्यंत्र मुझे नजर आ रहा है ! और इस तरह समाज में वैधानिक विभाजन करने की किसी भी योजना का मैं विरोध करूंगा! और ऐसे विखंडित समाज पर देश का नया संविधान थोपा गया तो “देश के इतिहास में जितने भी सुधारकों ने जो भी काम किया उसके ऊपर पानी फिर जाएगा!” और मुझे जाति-धर्म के आधार पर कोई भी विभक्त मतदाता संघ मान्य नहीं है ! इसके बाद अंग्रेजी सरकार के साथ उनका पत्राचार थम गया और वह अपने अनशन की तैयारी में जुट गए। गांधीजी का यह निर्णय नेहरू के साथ-साथ कांग्रेस के ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आया। और उन्होंने कहा कि जब आजादी की लड़ाई ने काफी गति पकड़ी है तो गांधीजी सामाजिक सवालों में उलझकर अटक रहे हैं! यह कहते हुए नेहरू ने कहा कि मात्र गांधीजी को ऐसी मुश्किलों का सामना करने के समय अच्छे भविष्य के जवाब भी मिलते हैं!
गांधीजी की यह भूमिका आंबेडकरजी को मान्य होने का सवाल ही नहीं आता है, क्योंकि 1920 में ही वह दलितों के लिए स्वतंत्र मतदाता संघ की मांग कर चुके थे।
सर्वसाधारण मतदाता संघ से, संख्याबल के अभाव में, वे चुनकर नहीं आते हैं ! और सर्वसामान्य प्रतिनिधि दलितों के सवाल पर न्यायोचित रुख अख्तियार नहीं करते हैं, ऐसा आंबेडकर जी का मानना था जो गांधीजी की भूमिका के विपरीत रुख था और इस कारण 1932 के मैकडोनाल्ड सरकार के प्रस्ताव पर बवाल मचना स्वाभाविक था। और वह मचा भी !
एक बात सच थी कि 1932 तक बाबासाहब आंबेडकर के पीछे जानेवाला वर्ग महाराष्ट्र के उनकी खुद की जाति के महारों का ही था ! इसके उलट महात्मा गांधी के साथ महाराष्ट्र सहित संपूर्ण देश में सवर्ण के साथ-साथ दलित भी खड़े थे ! इसलिए यह संघर्ष एक राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ एक जाति का था, और इसी घटना से बाबासाहब आंबेडकर की छवि में काफी इजाफा हुआ। और बाद में वह सिर्फ महाराष्ट्र के महारों के दायरे से आगे बढ़ने में विशेष रूप से काम आया !
शांतिनिकेतन से रवींद्रनाथ ठाकुर का तार आया “देश के ऐक्य के लिए अपने मौलिक जीवन को न्योछावर करना, यही जीवन की सार्थकता है ! और यह राष्ट्रीय शोकांतिका रोकने हेतु संपूर्ण देश अपना प्राण समर्पित करेगा, इसका मुझे विश्वास है ! आपका शब्द देश को प्रमाण है!”
गांधी जी के साथ 20 सितंबर 1932 को देश भर में करोड़ों लोगों ने उपवास किया और संपूर्ण देश में प्रार्थनाएं की गयीं। इस देश पर एक भयंकर काले ग्रहण की काली छाया फैल गयी थी! ऐसे वचन टैगोर के मुंह से निकले थे और उन्होंने कहा कि “प्रत्येक देश का एक स्वतंत्र भूगोल होता है ! और उसमें एक आस्तिक्य का वास होता है ! और उस पर भौतिक सत्ता नही चलती है ; लेकिन महान लोगों की आत्माओं का उस पर राज होता है ! गांधीजी ने जो अनशन शुरू किया है यह वही संदेश है !
अंतिम दिन 24 अक्तूबर 1932 को बाबासाहब डॉ आंबेडकर ने संयुक्त मतदाता संघ को मान्यता दी ! और उनकी संख्या मैकडोनाल्ड के अनुसार 97 थी, जिसमें बाबासाहब ने और पचास सीटें बढ़ाने के लिए कहा और गांधी तथा राजाजी की आपसी सहमति से 147 सीटों तक की बढ़ोतरी हुई ! बाबासाहब की सुलह की वजह से इतिहासप्रसिद्ध पूना पैक्ट, जो यरवदा जेल में हुआ, महात्मा गांधी को छोड़कर बाकी सभी दलित और हिंदू नेताओं ने उस पर हस्ताक्षर किये। बाद में मुंबई की सर्व संबंधित लोगों की सभा में उस पैक्ट को मान्यता भी दी गयी।
लेकिन ब्रिटेन की सरकार ने जब तक उसे मान्यता नहीं दी तब तक गांधी उपवास छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। उस योजना पर ब्रिटेन की सरकार ने रविवार को रात में विस्तार से चर्चा की और सुबह पांच बजे अंग्रेज सरकार ने पूना पैक्ट को मान्यता देने की अधिकृत घोषणा की। तब जाकर महात्मा गांधी अपना अनशन समाप्त करने के लिए तैयार हुए।
उसी दिन मुंबई की सभा में बाबासाहब डॉ आंबेडकर ने कहा कि “मुझमें और गांधीजी में जो साम्य दिखे वे मुझे बहुत आश्चर्यचकित कर गए ! पहले हममें मतभेद थे; पर जैसे-जैसे मतभेदों के मुद्दे उनके सामने उठाये गये वैसे-वैसे मेरी ही तरफ से बोलते हुए मैंने उन्हें पाया! मुझे बहुत बड़े चक्रव्यूह से निकालने में वे मददगार सिद्ध हुए ! महात्माजी का मैं हमेशा-हमेशा के लिए कृतज्ञ हूँ ! मुझे रह-रहकर लगता है कि यही स्टैण्ड उन्होंने गोलमेज परिषद में क्यों नहीं लिया? इसका ही मुझे आश्चर्य है !” गांधीजी के जीवनीकारों के मुताबिक, आंबेडकर ने गांधीजी का जो वर्णन किया है वह यथार्थ है। आंबेडकर के सिवाय किसी और के लिए ऐसा करना संभव नहीं था !