जानकी बल्लभ शास्त्री की कविता

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पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल
जानकी बल्लभ शास्त्री (5 फरवरी 1916 – 7 अप्रैल 2011)

जीना भी एक कला है

इसे बिना जाने ही, मानव बनने कौन चला है?
फिसले नहीं, चलें, चट्टानों पर इतनी मनमानी।
आँख मूँद तोड़े गुलाब, कुछ चुभे न क्या नादानी?
अजी, शिखर पर जो चढ़ना है तो कुछ संकट झेलो,
चुभने दो दो-चार खार, जी भर गुलाब फिर ले लो।
तनिक रुको, क्यों हो हताश, दुनिया क्या भला बला है?
जीना भी एक कला है।

कितनी साधें हों पूरी, तुम रोज बढ़ाते जाते,
कौन तुम्हारी बात बने तुम बातें बहुत बनाते,
माना प्रथम तुम्हीं आये थे, पर इसके क्या मानी?
उतने तो घट सिर्फ तुम्हारे, जितने नद में पानी।
और कई प्यासे, इनका भी सूखा हुआ गला है।
जीना भी एक कला है।

बहुत जोर से बोले हों, स्वर इसीलिए धीमा है
घबराओ मन, उन्नति की भी बॅंधी हुई सीमा है
शिशिर समझ हिम बहुत न पीना, इसकी उष्ण प्रकृति है
सुख-दुःख, आग बर्फ दोनों से बनी हुई संसृति है
तपन ताप से नहीं, तुहिन से कोमल कमल जला है
जीना भी एक कला है।

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