— किशन पटनायक —
(यह लेख अगस्त 1977 में लिखा गया था। इसमें कई जगहों पर विभिन्न चीजों की कीमतों और सरकार या सत्तारूढ़ दल आदि का जो उल्लेख है वह तब का है। इसे वैसा का वैसा रहने दिया गया है। इस लेख में महँगाई के बुनियादी कारणों को चिह्नित किया गया है, और इस मायने में यह आज भी उतना ही मौजूँ है। आज जब महँगाई एक बहुत बड़ा मसला बन गयी है, किशन जी के इस लेख का पुनर्प्रकाशन जरूरी जान पड़ता है।)
दाम को बाँधा जा सकता है। लेकिन इसके लिए बहुत सारे नए कदम उठाने पड़ेंगे। कांग्रेस की दाम-नीति क्या थी? दाम का बढ़ना अच्छा है या बुरा? क्यों दाम बढ़ते हैं? इन बातों को कांग्रेस के लोग ठीक तरह समझ नहीं पाते थे। जवाहरलाल नेहरू ने एक बार लोकसभा मे कहा था – ‘दाम का बढ़ना तो अच्छी बात है। हम बढ़ रहे हैं।’ इंदिरा गांधी हमेशा कहती रही – ‘यह तो सारी दुनिया की बात है यह बीमारी सारी दुनिया से आ रही है हम क्या कर सकते हैं?’ ऐसा कहनेवाली सरकार कभी भी दाम बाँध नहीं सकती थी।
कांग्रेस शासन यह सोचता था कि दाम को घटाने-बढ़ाने वाले व्यापारी ही हुआ करते हैं। इसलिए दाम बढ़ जाता था तो कांग्रेस शासन बड़े व्यापारियों से आवेदन-निवेदन करता था, या फिर लाल आँख दिखाकर धमकी देता था। कुछ व्यापारियों के गोदामों पर छापा मारता था। जेल और मीसा का डर दिखाकर थोड़े दिन बाजार को नियंत्रित भी करता था। तो लोग उसकी तारीफ करने लगते थे कि दाम गिर रहा है। लेकिन पुराने दाम कभी वापस नहीं आते थे। थोड़े दिन बाद फिर चढ़ने लगते थे। दाम की लकीर उठती थी, बैठ जाती थी, फिर थिरकने लगती थी – इसी को डॉ. लोहिया कहते थे ‘दामों का कांग्रेसी नाच’।
1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी तब वह पूरी बात को शायद समझ नहीं पाई। कांग्रेसी तरीके से दाम पर काबू पाने की कोशिश करती रही। दिल्ली में सरकार बनने के बाद दाम बढ़ने लगे तो जनता पार्टी को चिंता हुई कि आनेवाले विधानसभा चुनावों में इसका बुरा असर पड़ेगा। मंत्रियों ने बड़े सेठों से अपील की कि दाम को रोको। बड़े सेठों ने अपील सुनी। अपनी बैठक बुलाकर प्रस्ताव किया कि अगर कच्चे माल का भाव नहीं बढ़ेगा तो हम दामों को नहीं बढ़ाएंगे। लोगों क कुछ तसल्ली हुई लेकिन बाजार में दाम बढ़ता गया और विधानसभा चुनाव के बाद दाम बढ़ने का नंगा नाच शुरू हो गया। जनता पार्टी के नेता दूसरा तरीका अपना रहे थे और व्यापारियों को गाली-धमकी दे रहे थे, चोर-डाकू कह रहे थे, मीसा का डर दिखा रहे थे। कोई-कोई फाँसी देने की भी बात करता। यह असली गुस्सा था या दिखावा?इस तरह के गुस्से में दाँत नहीं होता, वह पोपला होता है, क्योंकि यह गुस्सा तो व्यापारी पर होता है, आर्थिक नीति पर नहीं, दाम पर भी नहीं। व्यापारी भी बात करते होंगे-
एक व्यापारी : साला, हमसे चुनाव के लिए पैसा भी लेता है, घर में बैठकर अच्छी-अच्छी बातें करता है और बाहर आकर गाली सुनाता है।
दूसरा व्यापारी : अरे भाई, इसको तो झेलना ही पड़ेगा। उसको सरकार चलाना है, जनता को कुछ तो दिखाना पड़ेगा। अगर कभी-कभी गाली देता है या जेल भी भेज देता है तो समझो कि बेचारे की मजबूरी है।
गाली देने के पीछे नादानी और लाचारी है। मंत्री समझता है कि दाम हमेशा व्यापारियों के ऊपर ही निर्भर करेगा। सरकार उससे या तो गुहार-विनती कर सकती है या धमकी दे सकती है। उसकी समझ में यही दाम की सही आर्थिक नीति है।
असल में दाम के नियम तो दूसरे ढंग से चलते हैं। लेन-देन में, खरीद-बिक्री में आदमी का मन होता है – कम दे और ज्यादा ले। देने में कितना कम करे और लेने में कितना अधिक ले, यह निर्भर करता है अर्थव्यवस्था पर। समाज की व्यवस्था उसकी बेईमानी को कितना मौका देती है या प्रेरणा देती है। अगर समाज में गरीबी और गैरबराबरी बहुत ज्यादा है, अगर बेईमानी न करने पर गरीब और असहाय हो जाने का डर रहता है तो एक औसत व्यापारी मौके की तलाश में रहेगा। जब भी मौका मिलेगा बेईमानी करके कुछ ज्यादा पैसा कमा लेगा।
जिस समाज में एक ईमानदार आदमी को हमेशा यह लगता हो कि बेईमानी किये बिना बीवी-बच्चे जिंदा नहीं रह सकते, उसमें हर आदमी बेईमानी करता रहेगा। तो व्यापारी के बारे में क्या उम्मीद करें? जेल या छापा डर जरूर पैदा करता है। लेकिन जहाँ सब लोग बेईमानी से ही बड़े हो रहे हैं, वहाँ जेल के डर से कोई ईमानदार नहीं हो जाएगा। जेल सिर्फ एक जोखिम होती है। एक हजार व्यापारी हैं। छापा पड़ेगा तो एक या दो या दस पर पड़ेगा। इतना जोखिम व्यापारी लोग उठा लेंगे। इसलिए दंड के द्वारा न अपराध को रोका जा सकता है, न काला बाजार को, न मुऩाफाखोरो को। ऐसी व्यवस्था में कितना भी कड़ा दंड-विधान हो व्यापारी जरूर बेईमान होगा।
अगर मुनाफा कम होगा तो बहुत ज्यादा सामान बहुत ज्यादा लोगों को बेचकर ही ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है। अच्छे समाजों में यही होता है। भारत जैसे पिछड़े देश में गरीबी और गैरबराबरी इतनी ज्यादा है कि खरीदनेवाले लोग कम होते हैं।
हम जब किसी शहर के बाजार में निकलते हैं तो देखते हैं कि सारे बाजार में एक-दो चीजों को छोड़कर हम और कुछ खरीद नहीं सकेंगे। यह कितना बुरा लगता है! इसी को अर्थशास्त्री लोग खरीदने की शक्ति या क्रय-शक्ति कहते हैं। यह बात कारखाने वाला जानता है। वह हमारे लिए चीजें नहीं बनाता। ऐसे लोगों के लिए बनाता है, जिनके पास बहुत पैसा है। गरीब लोग तो सस्ती चीजों को भी खरीद नहीं पाते। अनाज, कपड़ा शाक-सब्जी, आम, दूध और चीनी जैसी चीजों को भी पैसेवाले लोग ही पूरी मात्रा में खरीदते हैं। सेठ लोग ऐसी चीजें बनाने पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जिन्हें ऐसे थोड़े लोग खरीदेंगे, जो सारे के सारे पैसेवाले हों।
ऐसी चीजों पर बहुत मुनाफा मिलता है। पैसेवालों को भी अखरता नहीं, और कारखानेवाले तथा व्यापारी को बढ़िया मुनाफा मिल जाता है। मोटर, स्कूटर, नायलान, ठंडी मशीन, टेप रिकार्डर ऐसी चीजें हैं, जिनको कम मात्रा में बनाना पड़ता है और जो ज्यादा दाम में बिक जाती हैं। पैसेवाले ही इन्हें खरीदते हैं। दूध, आम और कपड़ा भी उन्हीं के लिए पैदा होता है। इससे दाम बढ़ेगा ही। मान लीजिए, कोई बड़ा सेठ साधु बन गया। उसने सारी पूँजी लगाकर देशभर के लोगों के लिए सस्ता कपड़ा बना दिया तो क्या होगा? वह बेचारा तो दिवालिया हो जाएगा। मान लीजिए, वह यह सोचकर कि हर आदमी को साल में तीन धोती, तीन बनियान, तीन कुर्ते चाहिए, इतना कपड़ा बनाता है। तो क्या होगा? जिसके लिए उसने कपड़ा बनाया, वह तो मुश्किल से शायद एक धोती उठाए। लेकिन अगर वह थोड़े ही लोगों के लिए नायलान का कपड़ा बनाएगा तो कपड़ा खप जाएगा और सेठ करोड़पति बन जाएगा।
गरीब खरीद नहीं सकता। जो खरीद सकता है उसके पास बहुत ज्यादा पैसा है। तो चीजें सिर्फ पैसेवालों के लिए होती हैं। पिछड़े देशों में दाम बढ़ने का बुनियादी नियम यही है। इससे एक सुवर्ण नियम बनता है : अगर दाम घटाना चाहते हो तो आम आदमी की चीजों को बहुत परिणाम में पैदा करो और बनाओ और सबको कम से कम इतना पैसा दो कि सब लोग इन चीजों को खरीद सकें। इसका मतलब है कि सबको रोजगार दो।
कांग्रेस शासन अगर सत्तर के दशक में कहने लगा था कि आम आदमी की जरूरत की चीजों को हम ज्यादा पैदा करें। यह फरेब था। किसी भी पार्टी की सरकार अगर नीचे लिखे दो काम नहीं करेगी तो वह भी फरेब होगा – (1) अगर आम आदमी के लिए बहुत ज्यादा कपड़ा, चीनी, तेल, दूध पैदा करना हो तो सरकार की तथा सेठों की पूँजी को इन कामों में लगाना होगा। मोटर, स्कूटर, नायलान, ठंडी मशीन पर पूँजी लगाना बंद करना होगा। दूध, फल, मोटा कपड़ा, साइकल, बस आदि के निर्माण में ज्यादा पूँजी लग सकेगी। (2) फिर सारे गरीब लोगों का रोजगार देना होगा। तब ही वे लोग इन सस्ती चीजों को खरीद पाएँगे।
गेहूँ, चावल का दाम ज्यादातर सस्ता ही रहता है लेकिन उसको भी लोग खरीद नहीं पाते हैं क्योंकि उनके पास रोजगार नहीं है। अगर सरकार गरीबों को रोजगार नहीं दे पाएगी तो सस्ती चीजें बनाना फिजूल होगा। फिर केवल बड़े और विशेष लोगों के लिए ही सामान बनाना पड़ेगा। जो सरकार अमीरों के सामान बनाएगी वह सस्ती चीजें बना नहीं पाएगी। अब हमारा सुवर्ण नियम तीन सूत्र में बनता है (क) अमीरों के आराम की चीजों को बनाना बंद करो। (ख) आम आदमी की जरूरत की चीजों को बहुत ज्यादा बनाओ। (ग) गरीबों को रोजगार दो ताकि वे इन चीजों को खरीद सकें।
अगर पहली बात होती है तो अमीरों का खर्च भी कम हो जाएगा। बेचारों के पास पैसा भी रहेगा तो खर्च नहीं होगा। इसका एक अच्छा परिणाम होगा कि उस पैसे को ये लोग खेती में या कारखाने में लगाएँगें। फलस्वरूप खेती और और कारखाने मे अधिक चीजें भी पैदा होंगी और अधिक लोगों को रोजगार भी मिल जाएगा। इसी तरह से अर्थव्यवस्था बदलती है।
अर्थशास्त्र पढ़ानेवाले कहते हैं कि घाटे का बजट बंद करो। ये लोग किताबी बात कहते हैं। लोगों से दूर रहते हैं, इसलिए इनका ज्ञान हमेशा अधूरा रहता है। घाटे का बजट क्या है? जब सरकार चाहती है देश में ज्यादा विकास का काम हो, मजदूरों को ज्यादा भत्ता मिले तो सरकार दूसरी जगहों से पैसा काटती नहीं बल्कि और अधिक नोट छपवा लेती है। पैसा ज्यादा हो जाता है, चीजें कम रहती हैं। तो दाम बढ़ता है। बात तो सही लगती है लेकिन अधूरी है। सरकार कभी-कभी इस बात को मानती हैं और घाटे का बजट बंद करती है। फिर विकास का काम बंद हो जाता है, बेरोजगारी और अधिक बढ़ती है।
असल मे अर्थशास्त्रियों को कहना चाहिए कि घाटे का बजट बंद करो, लेकिन विकास का काम चलाओ। तो सरकार को विकास पर खर्च करने के लिए दूसरी जगह से पैसा लाना पड़ेगा। यानी अमीरों को सरकार कहेगी आप अपना खर्च कम करो। मोटर, नायलान, विलायती शराब खरीदना बंद करो। इनके पैसों को विकास के काम में लगाओ। इस पैसे को हम लागाएंगे अधिक दूध, चीनी, मोटा कपड़ा पैदा करने के लिए।
अब चीनी की बात देखो। कोई चीज अगर ज्यादा होती है तो सस्ती होने लगती है। फिर सेठ लोग और अफसर लोग मिलकर एक साजिश करते हैं कि इसको बाजार से गायब किया जाए। इस साजिश का नाम है निर्यात। निर्यात का मतलब अपने देश के माल को दूसरे देश में बेचो। बेचना चाहिए। लेकिन जिन चीजों के अभाव से अपने देश के लोगों का जीना मुश्किल हो जाता है, ऐसी चीजों का निर्यात तो नहीं होना चाहिए।
कुछ चीजों का दाम बढ़ाने के लिए ही निर्यात किया जाता है, जैसे चीनी। अभी बाजार में चीनी का दाम है चार या पाँच रुपया। चीनी पर कंट्रोल हटा दो और उसका निर्यात बंद कर दो तो चीनी का दाम हो जाएगा दो रुपए से भी कम। चीनी का निर्यात करके यानी जान-बूझकर चीनी का परिणाम कम किया जाता है और उस चीनी को लेकर गाँव-गाँव में ‘डीलर’ पैदा किया जाता है। गाँव के मुखिया लोग इस चीनी के कारबार में ही भ्रष्ट और बदनाम हो जाते हैं। जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में चीनी के निर्यात की निंदा की थी। लेकिन सरकार बनने के बाद वह क्या करती रही? शायद सेठ और अफसर की बुद्धि मे फँस गई। खाली चीनी नहीं, चीनी की देखा-देखी चावल, आम, प्याज, सब्जी सबका निर्यात शुरू हो गया। यह सब निर्यात जन विरोधी है। उसको रोकना है। इस निर्यात के कारण प्याज और सब्जी का दाम काफी बढ़ा है।
(बाकी हिस्सा कल)