
— संजय कनौजिया —
वो मधु लिमये ही थे जिन्होंने जनता पार्टी की सरकार के समय जनसंघ घटक के सदस्यों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया था और तब इस पर खूब बवाल हुआ था। मधु लिमये आरएसएस के विचारों से पूरी तरह असहमत रहते थे। उन्हीं के चंद वाक्य देखिए- “मुझे गाली देने में अपने अखबारों का जितना स्थान आरएसएस ने खर्च किया, उतना तो शायद इंदिरा गांधी को गाली देने में खर्च नहीं किया होगा…’पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ में मुझे और जनता पार्टी के कई नेताओं के बारे में बहुत भला-बुरा लिखा गया, इसके बावजूद एक अरसे तक इन लोगों से मेरी बातचीत होती रही…एक दफा तो मुझे याद है, मेरे बम्बई वाले घर में बाला साहब देवरस आए फिर इसके बाद देवरस से, मई 1977 में मेरी बात हुई…इसीलिए ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी…लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि उनके दिमाग का किवाड़ बंद है, उनमें कोई नया विचार पनप ही नहीं सकता बल्कि आरएसएस की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देते हैं…पहला काम वो यही करते हैं कि बच्चों और नौजवानों की विचार प्रक्रिया को “फ्रीज़” कर देते हैं, उन्हें जड़ बना देते हैं…जिसके बाद कोई नया विचार वो ग्रहण ही नहीं कर पाते…
मधु जी ने पुरजोर यह मांग की कि जिन लोगों ने भी जनता पार्टी की सदस्यता ले रखी है..उन्हें आरएसएस की सदस्यता छोड़नी होगी। मधु जी का कहना था कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य आरएसएस जैसे “सांप्रदायिक मानसिकता” वाले संगठन का सदस्य नहीं हो सकता..”यह दोहरी सदस्यता नहीं चलेगी” और अंत में इसी ज्वलंत मुद्दे पर मोरारजी सरकार गिर गयी।
इन पंक्तियों का लेखक, कभी मधु लिमये जी के दर्शनों का लाभ नहीं ले सका..ठीक वैसे ही जैसे महात्मा गांधी, डॉ आंबेडकर, आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ लोहिया, जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर जैसे महान गणमान्यों के दर्शनों से वंचित रहा…परन्तु कुछ पढ़कर, कुछ उनके साथ रहे विद्वानों की बातें तथा अनुभव सुनकर, कुछ आधुनिक सोशल मीडिया का लाभ लेकर, कुछ प्रो. राजकुमार जैन, प्रो.आनंद कुमार, रमाशंकर सिंह (पूर्व मंत्री, मध्यप्रदेश), हिंद मजदूर सभा के राष्ट्रीय महासचिव हरभजन सिंह सिद्धू, पूर्व सांसद राजनीति प्रसाद, बिहार के पूर्व मंत्री श्याम रजक के सान्निध्य में रहकर मधु लिमये जी के बारे में कुछ जाना, समझा, सीखा।
समाजवाद के शिखर पुरुष मधु लिमये, जो कभी सरकार का हिस्सा नहीं रहे, जब सरकार में जाने का मौका मिला वह तब भी नहीं गए.. अंग्रेजों की लाठियां भी खायीं और पुर्तगालियों से भी लोहा लिया। आजादी की लड़ाई में तो जेल गए ही, गोवा मुक्ति संग्राम में भी जेल की सजा मिली। पुणे के रहनेवाले और प्रतिष्ठित फर्ग्यूसन कॉलेज के पढ़े मधु जी, बम्बई के बांद्रा से दो बार चुनाव लड़े लेकिन कामयाब नहीं हो सके। तब मधु जी ने बिहार को अपनी सियासी कर्मभूमि बनाई और वहां से चार बार संसद पहुंचे। संसद में ऐसी धाक जमाई कि जब वो बोलने के लिए खड़े होते थे, तब सत्तापक्ष में एक सिहरन पैदा हो जाती थी..सबूतों और दस्तावेजों के साथ ऐसा कमाल का भाषण कि कई केंद्रीय मंत्रियों की कुर्सी चली गयी..संसदीय परम्पराओं का ऐसा ज्ञान कि सत्तापक्ष के लोगों की तमाम दलीलें धरी की धरी रह जातीं थीं..फर्राटेदार अंग्रेजी, हिंदी के वक्ता लेकिन संसद में अपनी बात मधु जी, हिंदी में ही रखते थे। मधु जी ने दुनिया को बतलाया कि संसद में बहस कैसे होती है। मधु जी को संसदीय ज्ञान का चैम्पियन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति ना होगी। आपातकाल में भी मधु जी 19 महीने जेल में रहे।
साफ-सुथरी छवि के चरित्रवान मधु जी बहुत पढ़ाकू थे। कई भाषाएं जानते थे… तमाम विचारधाराओं तथा साहित्य का विशद ज्ञान तो उन्हें था ही, संगीत और नृत्य की बारीकियों को भी बहुत ही गहराई से जानते थे। सादगी की तो प्रतिमूर्ति थे। चार बार सांसद रहे लेकिन कार नहीं थी उनके पास। सांसद रहते हुए कभी कोई बेजा सुविधा नहीं ली और न ही पूर्व सांसद होने की सुविधाएं स्वीकार कीं। पूर्व सांसद की पेंशन अस्वीकार करते हुए अपनी अर्धांगिनी तक को पेंशन का एक रुपया तक लेने को मना कर दिया था। सांसद ना रहने पर अपना सरकारी आवास फौरन खाली कर दिया था। मधु जी को उनके अनुयायी शरद यादव यूँ ही नहीं कहा करते थे चलती फिरती संसद…मधु जी जब भी लड़ते थे एक योद्धा की तरह लड़ते थे और वह आजीवन समाजवाद के एक योद्धा की तरह रहे…!
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Bahut khoob. Badhai